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"हाँ, कहिए क्या काम है।"
"आपके खिलाफ शिकायत दर्ज हुई है। थाने चलना है।"

पुलिस को देख कर शर्मिला भी परेशान हो गई। दोनों ने सपने में भी नहीं सोचा था कि कोई उनके खिलाफ थाने में शिकायत कर सकता है। गला साफ करते हुए सुनील बड़ी मुश्किल से पूछ सका। "मेरी तो किसी से दुश्मनी भी नहीं है। शिकायत किसने की है।"
अब सिपाही ने हरियाणवीं अंदाज में कहा "घबड़ा न सुनीण, दुश्मणी न है तदी तो शिकायत हुई है। शरीफ आदमियाँ को कोई न जीणे दे। घबड़ा न।"

सिपाही की बाते सुनील को समझ नहीं आई। शर्मिला भी टुकुर टुकुर देखती सुनती रही, कुछ बोल नहीं सकी। सुनील के खिलाफ शिकायत गले के नीचे नहीं उतर रही थी।
"टैम न खड़ाब कर। मैंणें घणें सारे काम हैं। जल्दी कर।" सिपाही की बात सुन कर हिम्मत जुटा कर फुसफुसाया "चलिए।"

सुनील के मुख से इतना सुन कर शर्मिला बोली "अकेले नहीं जाने दूँगी। मैं भी चलती हूँ। पता नहीं क्या हो जाए, थाने में।" कह कर फटाफट चप्पल पैरों में डाली और सुनील के पीछे सीडियाँ उतरने लगी। भला हो करवाचौथ का जिसके कारण वह सुबह सुबह तैयार हो गई थी वर्ना नाइटी में ही साथ चल पड़ती।

सुनील इस सोच में डूबा था, कि उसने कौन सा गुनाह कर दिया कि पुलिस थाने में पेशी हो रही है। थाने का नाम कर तो अच्छो अच्छो के पसीने छूट जाते है तो सुनील ठहरा एक आम आदमी, जो सुबह ऑफिस निकल जाता है, शाम को घर आकर अपने बीवी बच्चों के साथ तक ही जीवन सीमित है। अड़ोस पड़ोस में क्या हो रहा है, कोई सरोकार नहीं, उसके थाने के नाम पर होश ही गुम हो चुके थे। थाना घर के पास ही था, पुलिस जीप में मुश्किल से दो मिनट लगे होंगे, लेकिन ऐसा लग रहा था कि दो साल से पुलिस जीप में बैठा है और थाना है कि आने का नाम ही नहीं ले रहा है। थाने पहुँच कर चुपचाप एक मुजरिम की तरह हाथों को बाँधकर सिपाही के पीछे पीछे चलने लगा। थानाध्यक्ष के सामने डाक्टर सुभाष को देखकर सुनील एकदम आश्चर्यचकित हो गया। वह कुछ सोच सकता, उससे पहले थानाध्यक्ष के चेहरे के हावभाव शर्मिला का हुलिया देखकर आश्चर्यचकित हो गए मानो आँखों ही आँखों में कह रहा हो थाने आने के लिये सजधज कर बैठी थी क्या?
"आप कौन।"
"मेरी पत्नी।" सुनील ने कहा।
"बैठिए" थानाध्यक्ष ने कुर्सियों की तरफ इशारा करके कहा।

कुर्सी पर बैठ कर शर्मिला ने आँखें थोड़ी ऊपर की और सामने डाक्टर सुभाष को देख कर दंग रह गई। दोनो हाथ जोड़ कर प्रणाम किया। "नमस्ते भाई साहब।"

डाक्टर सुभाष ने प्रणाम का कोई जवाब नहीं दिया। वह टस से मस नहीं हुआ। उसने शर्मिला के अभिनंदन को अनदेखा कर दिया। थानाध्यक्ष की अनुभवी आँखे बहुत कुछ बातों की गहराई में पहुँच कर जाँच पड़ताल कर चुकी थी।

"क्या आप डाक्टर साहब को जानते हैं।"
थानाध्यक्ष के इस प्रश्न पर सुनील ने कहा "जी हाँ डाक्टर साहब मेरे बड़े भाई हैं। हम एक ही घर में रहते हैं।"

इतना सुन कर थानाध्यक्ष ने डाक्टर सुभाष से कहा "डाक्टर साहब अब आप जाईए। आपकी समस्या का समाधान हो जाएगा। आप चिन्ता न करे।" यह सुन कर डाक्टर सुभाष ने प्रस्थान किया। डाक्टर सुभाष के जाने के बाद थानाध्यक्ष ने सुनील और शर्मिला की तरफ देख कर कहा "आप नर्वस लग रहै हैं। थोड़ा पानी पीजिए। अपने को स्वस्थ कीजिए। फिर बात करते है।"

पानी पीकर सुनील ने पूछा "मेरा क्या कसूर है, जो आपने मुझे यहाँ बुलाया। मैनें तो कुछ नहीं किया है।"
"घबराओ मत, पहले मुझे यह समझने दो, कि आपका और डाक्टर सुभाष का रिश्ता क्या है, क्या आपका कोई झगड़ा हुआ है?"

सुनील ने थानाध्यक्ष को समझाना शुरू किया "मैं और डाक्टर सुभाष ताऊ, चाचा के लड़के हैं। हमारी उम्र में दो साल का फर्क है। डाक्टर सुभाष मेरे से दो साल बड़े है। हमारा दो मंजिल का मकान है। नीचे के तल में ताऊ जी और ऊपर की मंजिल में हम रहते हैं। डाक्टर साहब अपना क्लिनिक चलाते है। पहले तो रहते भी यही थे, लेकिन अब अलग मकान बना लिया है, सुबह शाम को क्लिनिक आते हैं। हम दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते थे। सुभाष के डाक्टर बनने के बाद हम सब डाक्टर सुभाष ही कहते हैं। बिना डाक्टर लगाए सुभाष नहीं बोलते हैं। डाक्टर साहब की प्रैक्टिस अच्छी चलती है और दो जाने माने हास्पीटल में विजिट भी करते हैं। अच्छा पैसा और नाम बनाया है। मैं तो नौकरी करता हूँ। थोड़ा पढ़ने में मन नहीं लगता था, ज्यादा पढ़ नहीं सका। डाक्टर साहब का नाम अब शहर के नामी डाक्टरों में होता है, थोड़ा मिलना जुलना कम हो गया है। आर्थिक और सामाजिक स्तर में अंतर आ गया है।" कह कर सुनील चुप हो गया।

"
कोई आपका खटारा स्कूटर भी है?"
"स्कूटर पुराना जरूर है, लेकिन खटारा नहीं है। एकदम बढ़िया चलता है।"
"कहाँ खड़ा करते हो स्कूटर को?"
"नीचे मकान की दीवार के साथ खड़ा करता हूँ।"
"जहाँ आप स्कूटर खड़ा करते हो, वहाँ से हटा कर पीछे सर्विस लेन में खड़ा कर लिया करो।"
"लेकिन क्यों?"
"डाक्टर साहब की शिकायत है कि आपका स्कूटर उनके क्लिनिक के गेट पर खड़ा रहता है, जिससे मरीजों का रास्ता रूकता है।"
"सरासर झूठ है, मेंने आज तक क्लिनिक का रास्ता नहीं रोका। गेट छोड़ कर दीवार के साथ सटा कर स्कूटर रखता हूँ। आप खुद चल कर देख सकते है। मेरा स्कूटर कहाँ खड़ा होता है। अभी ऑफिस जाने के लिए निकाला भी नहीं है। अगर मेरे स्कूटर से क्लिनिक का रास्ता जरा-सा भी रूके, आप जो सजा कहे, मैं कबूल करूँगा।" कहते हुए सुनील उत्तेजित हो गया और मेज पर एक जोरदार मुक्का मार कर कुर्सी छोड़ कर उठ गया।

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तनी उत्तेजना सेहत के लिए अच्छी नहीं है। शान्त होकर कुर्सी पर बैठो।" थानाध्यक्ष ने इशारा करके सुनील को बैठने को कहा। सुनील बैठ गया। उसकी आँखे नम हो गई। ऐसा लगने लगा कि शायद वह रो पड़ेगा।
"स्कूटर को थोड़ा पीछे खड़ा करने से आपको कोई फर्क नहीं पड़ेगा और समस्या हल हो जाएगी।"

"समस्या मैं समझ गया, बात स्कूटर की नहीं, बल्कि अहंकार की है। डाक्टर साहब का स्तर अब मुझ से कहीं अधिक हो गया है। उनका उठना बैठना बड़े लोगों में है। शहर के नामी गरामी लोग उनके मरीज है। नेता, अभिनेता भी डाक्टर साहब से इलाज करवाने आते हैं। एक से एक बड़ी गाड़ी, उनके सामने भाई का पुराना स्कूटर कोई माएने नहीं रखता। वो भूल गये हैं कि इसी स्कूटर पर शादी से पहले भाभी जी से मिलने जाते थे। पिछली सीट पर भाभीजी बैठती थी। इंडियागेट और पुराना किला भी डाक्टर साहब की प्रेम कहानी के गवाह है और आज वोही प्रेम का प्रतीक स्कूटर आँखों में खटक रहा है।" कहते कहते सुनील भावुक हो गया।

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