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डिब्बे में शोर कुछ कम हुआ तो वे बोले...
घर से निकले मुझे काफी देर हो गई थी जब लौटा तो सभी परेशान थे। मैंने उन्हें पूरी घटना बताई। पचास रुपए देने वाली बात किसी को नहीं जँची।
‘‘रुपए देने की क्या जरूरत थी?’’ पत्नी ने कहा, ‘‘हम खुद कितने तंग हैं! इस बार तो बच्चों की गुल्लकें तक खाली हो गई हैं।’’ पत्नी ने कहा।
‘‘पापा बहुत सीधे है,’ बड़ी बेटी राधिका बोली, ‘‘इन्हें तो जो चाहे मूँड़ ले।’’
‘‘पापा, आपको शुरु में दस पंद्रह रुपए से अधिक नहीं देने चाहिए,’’ रेखा ने भी रद्दा जमाया, ‘‘अगर बच्ची के घर वाले आज ही आ जाते हैं तो पचास रुपए मुफ्त में ही रिक्शे वाले के हो जाएँगे। उसके तो मजे हो गए।’’
‘‘पापा, यह भी हो सकता है कि बच्ची असलियत में रिक्शेवाले की हो और उसने उसे चारे के रूप में, आपको फँसाने के लिए, इस्तेमाल किया हो।’’ जासूसी उपन्यासों की शौकीन राखी बोली, ‘‘ऐसी घटनाएँ रोज देखने में आ रही हैं।’’
मैंने पत्नी की गोद में लेटी अपनी छोटी बेटी की ओर देखा। मुझे लगा अगर वह बोल सकती तो आज वो भी मुझे नसीहत दिए बिना न छोड़ती।

मैं बहुत थका हुआ था। घर घुसते ही पचास रुपए को लेकर जिस तरह सब मेरे पीछे पड़ गए थे, उससे मैं बिलकुल पस्त हो गया था। ताज्जुब इस बात पर हो रहा था कि पत्नी समेत सभी की सोच पचास रुपए के गिर्द घूम रही थी। उस नन्हीं बच्ची को लेकर किसी ने कुछ नहीं कहा था। मैं मन ही मन इस बात को लेकर भी फिक्रमंद था कि अगर रिक्शे वाले की जालिम बीवी ने बच्ची को नहीं स्वीकारा तो क्या होगा। उस दिन जब रिक्शेवाला मेरे पास नहीं लौटा तो मैं समझ गया कि उसने अपनी घरवाली को जैसे–तैसे मना लिया है।

गाड़ी कटरा स्टेशन पर खड़ी हुई तो भीड़ का रेला–सा भीतर घुसा। डिब्बा खचाखच भर गया। ज्यादातर सवारियाँ तिलहर और शाहजहाँपुर की थीं।

‘‘बच्ची के घर वाले मिले?’’ गाड़ी के चलते ही मैंने पूछा।
नहीं, बच्ची को लेने कोई नहीं आया था, न ही पुलिसवालों ने उसकी सुध ली थी। रुपए लेने के लिए असलम हर महीने की पहली तारीख को आ धमकता था। हमारे घर में उसे कोई पसन्द नहीं करता था। मुझे तनख्वाह छह तारीख के आस–पास मिलती थी। पहली तारीख आते–आते हाथ बहुत तंग हो जाता था। ऐसे में असलम को पचास रुपए देना बड़ा भारी पड़ता था। आखिर मुझे उससे कहना ही पड़ा कि वो रुपए लेने दस तारीख के बाद आया करे। बच्ची के बारे में जानने की इच्छा तो होती थी, पर वो अँगुली पकड़कर अब पहुँचा न पकड़ ले, इस डर से मैं उसे बिलकुल लिफ्ट नहीं देता था। वैसे भी पत्नी और बच्चों की निगाह में हर महीने पचास रुपए देकर मैं बेवकूफी कर रहा था।

दस महीने तक वो लगातार तय तारीख पर आता रहा, फिर एकाएक उसका आना बंद हो गया। शुरू में हम सोचते रहे कि बीमार हो गया होगा या कहीं बाहर चला गया होगा लेकिन जब छह महीने से ऊपर हो गए तो हम सोच में पड़ गए। बच्ची के हिस्से के पचास रुपए हम अलग ही रखते जा रहे थे। जरूरत पड़ने पर भी इस्तेमाल नहीं करते थे। हमें लगता था कि किसी भी दिन वो रुपए लेने आ धमकेगा। पर दिन गुजरते गए और वह नहीं आया।

उस दिन मैं आईटी चौराहे पर खड़ा था, तभी मेरी नजर असलम पर पड़ी थी। उसने भी मुझे देख लिया था, पर अनदेखा कर तेजी से पैडल मारता हुआ डालीगंज की ओर बढ़ गया था। मैं उसके पीछे लपका था, दो तीन आवाजें भी दी थीं। पर वह नहीं रुका था। उसकी इस हरकत ने मुझे चिन्तित कर दिया था। तरह–तरह की आशंकाएँ जन्म लेने लगी थीं।

घर आकर पत्नी और बच्चों को इस बारे में बताया तो वो भी परेशान हो गए। सभी को असलम के रुपए लेने न आने और मुझे देखकर खिसक जाने के पीछे किसी बड़े षडयंत्र की गंध महसूस हो रही थी।

‘‘मुझे लगता है उसने लड़की को बेच दिया है।’’ मेरी जासूस बेटी ने धमाका किया।
‘‘पापा, इसकी बात में दम है,’’ राधिका बोली, ‘‘हम तो उसे पचास रुपए महीना दे ही रहे थे और हमने कौन–सा उसके घर लड़की को चैक करने जाना था। मुफ्त में मिल रहे रुपए कौन छोड़ता है। जरूर उसने कोई बड़ा क्राइम किया है।’’
‘‘मुझे तो शक्ल से ही क्रिमिनल लगता था।’’ पत्नी बोली।
‘‘पापा वो लड़की हिन्दू थी या मुसलमान?’’ राखी के गुप्तचर दिमाग ने फिर करवट ली।
‘‘पता नहीं, यह तो उसके घरवालों के मिलने पर ही पता चलता। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है...’’
‘‘आज के हालात में फर्क पड़ता है, पापा जी!’’ राखी ने जोर देकर कहा, ‘‘क्या पता उसे पता चला हो कि लड़की हिंदू है और तभी उसने....’’
‘‘वो कहता था उसकी घरवाली बहुत ज़ालिम है,’’ सबकी बातें सुनकर मैंने भी अपने दिमागी घोड़े दौड़ाए,‘‘हो सकता है किसी बात पर उसने लड़की को बेरहमी से पीट दिया हो और बच्ची मर गई हो।’’
‘‘हे भगवान!’’ पत्नी बुदबुदाई, ‘‘काश! हम बच्ची को अपने पास रख लेते।’’
‘‘वह नन्हीं जान कितना खा लेती?’’ राधिका ने कहा।
‘‘पापा, आपसे बहुत बड़ी गलती हुई,’’ रेखा बोली, ‘‘आपको उसे सीधे घर ले आना था, हम उसे अपनी पाँचवी बहन के रूप में बहुत प्यार से रखते।’’
‘‘आप का दिल तो मोम जैसा है,’’ पत्नी ने उलाहना दिया, ‘‘फिर उस दिन आप को क्या हो गया था! हम भी उस कसाई के पाप में भागीदार बन गए!’’
‘‘मुझे क्या पता था कि वो ऐसा निकलेगा।’’ मेरे दिल को भी कुछ होने लगा था।
हम सब उदास हो गए थे। मैं पुलिस थाने जाकर असलम की शिकायत कर सकता था, पर पिछले अनुभव को देखते हुए मेरी हिम्मत नहीं पड़ रही थी। दूसरे घर में कोई भी इस बात के लिए राजी नहीं था।

ताश खेलने वालों ने पत्ते समेट लिए थे। पैसों के लेन–देन को लेकर उनमें झाँय–झाँय हो रही थी। यह तो रोज का किस्सा था और हमें इसकी आदत पड़ गई थी। तिलहर आते ही वे उतर गए। डिब्बे में शान्ति छा गई।

प्रभात कह रहे थे.....
दिन यूँ ही गुजर रहे थे कि एक दिन अमीनाबाद की भीड़ भरी गली में मेरा असलम से सामना हो गया। वो सवारी उतार कर लौट रहा था, उसका रिक्शा जाम में फँस गया था। मैं मौके का फायदा उठाकर उसके रिक्शे पर बैठ गया था। मुझे देखते ही उसका चेहरा फक पड़ गया।
‘‘थाने चलो!’’ मैंने कड़ककर कहा, ‘‘क्या किया तुमने बच्ची के साथ?’’
‘‘बच्ची?’’ मुझे असलम की आँखें साफ–सुथरी–सच्ची लगीं, ‘‘अब जे़बा है वह, हमारी बेटी!!’’
‘‘रुपए लेने क्यों नहीं आए?’’
‘‘
अब उसकी जरूरत नहीं, अपनी औलाद को पालने की ताकत है मुझमें।’’ बोलते हुए उसका चेहरा तमतमा गया।
‘‘फिर उस दिन मुझे देखकर रुके क्यों नहीं?’’
‘‘बाबूजी, मेरी घरवाली बड़ी चुड़ैल है। जे़बा अब उसके कलेजे का टुकड़ा है, बेटे से ज्यादा प्यार करती है उसे। जे़बा की वजह से ही दूसरा बच्चा जनने को तैयार नहीं हुई। उसकी बेटी किसी दूसरे के टुकड़ों पर पले, यह उसे मंजूर नहीं। अगर उसे पता चल जाता कि मैं आपसे मिलता हूँ, पैसे लेता हूँ तो मुझे घर में घुसने ही नहीं देती। वो बड़ी ज़ालिम औरत है, बाबूजी।’’

ज़हीर मियाँ, मैं आपको बता नहीं सकता कि उस दिन मैं कितना खुश था। घर में पत्नी, बच्चे सभी चहकने लगे थे। असलम की ‘ज़ालिम’ घरवाली की वजह से मैंने फिर कभी उससे मिलने की कोशिश नहीं की। मियाँ, इन औरतों को समझना बड़ा मुश्किल है। हमारी घरवाली को ही ले लीजिए–लखनऊ छोड़े सालों हो गए, असलम और जे़बा का कहीं अता पता नहीं है, पर ये हैं कि अपनी पाँचवीं बेटी की शादी के लिए रुपए जमा किए जाती हैं....

शाहजहाँपुर आने वाला था। तेज गड़गड़ाहट के साथ ट्रेन गर्रा नदी के पुल पर से गुजर रही थी और मैं सोच रहा था कि यदि ये पुल न होते तो यात्राएँ करना कितना दुष्कर हो जाता।

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१६ अगस्त २०१०

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