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गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली थी। मुझे यह देखकर हैरानी हुई कि प्रभात भाई मैगज़ीन के पन्नों से निकलकर उस लड़की में खो गए थे। जिस तरह वे लगातार लड़की को देखे जा रहे थे, वो सभ्यता के दायरे में नहीं आता था।

‘‘प्रभात भाई!’’ मुझे टोकना पड़ा।
‘‘अ..हाँ।’’ वो अचकचाकर सीधे हो गए।
‘‘आप भी छोकरियों में रमने लगे?’’ मैंने दबी आवाज में कहा।
‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं,ज़हीर मियाँ,’’ वे खिड़की के बाहर देखते हुए धीरे से बोले, ‘‘इस लड़की को देखकर अपनी पाँचवीं बेटी याद आ गई।’’
‘‘पाँचवीं बेटी!’’ मुझे हैरत हुई। इन तीन सालों में मैं उन्हें बहुत करीब से जान गया था। उनकी चार ही बेटियाँ हैं और चारों की शादी उन्होंने कर दी है। तो फिर? क्या वो किसी दूसरी औरत से...?
‘‘इस पाँचवीं बेटी के बारे में आपने कभी कुछ नहीं बताया?’’
‘‘कभी कोई संदर्भ ही नहीं आया,’’ वे बोले, ‘‘लेकिन इस बुरे मौसम में अक्सर मेरा ध्यान उसकी ओर चला जाता है।’’
‘‘कहाँ है आपकी यह पाँचवीं बेटी?’’
‘‘पता नहीं अब वह कहाँ होगी?’’ प्रभात बोले, ‘‘बरसों पहले जे़बा लखनऊ में थी।’’
‘‘जे़बा?!...यह क्या गड़बड़झाला है? साफ–साफ बताइए न, भाई।’’

ट्रेन पिताम्बरपुर पहुँच गई थी। उस मुस्लिम परिवार को वहीं उतरना था। प्रभात उस लड़की को स्नेहभरी नजरों से तब तक देखते रहे जब तक वह ट्रेन से उतरकर नजरों से ओझल नहीं हो गई।

मैं उनकी ‘पाँचवीं बेटी’ के बारे में जानने को कितना उतावला था, इसे वे अच्छी तरह समझ रहे थे। गाड़ी के स्टेशन से छूटते ही उन्होंने कहना शुरू किया.....

उन दिनों मेरी पोस्टिंग लखनऊ में थी। मैं तीन बेटियों का पिता था और इसी वजह से घर–बाहर वालों की नजर में बहुत बेचारा था। इस बेचारगी के दंश से मुक्ति पाने के लिए पत्नी ने चौथी बार गर्भधारण किया था। इस बार हमें बेटे की उम्मीद थी, बेटी हुई तो हम सभी को बहुत रंज हुआ। पत्नी को तो बहुत ही ज्यादा। मैंने पत्नी को तसल्ली दी, ‘‘रंज ना करो, रंजना आई है।’’ इस तरह हमारी चौथी बेटी का नाम रंजना पड़ गया। मुझे दो महीने से तनख्वाह नहीं मिली थी। दूसरे नियमित खर्चों के साथ–साथ पत्नी की डिलीवरी के खर्च की वजह से जेब बिलकुल खाली हो गई थी। इस आर्थिक संकट से उबरने के लिए मैंने पत्नी की सोने की चूड़ी को बेचने का निर्णय लिया था।

उस दिन मैं चौक के सराफ़ा से चूड़ी बेचकर लौट रहा था। रिक्शे के पैसे बचाने के लिए मैं चौक से पैदल ही घर आ रहा था। खलील जिब्रान ने लिखा है–सड़कों के बारे में जानना है तो कछुओं से पूछिए, खरगोश इस बारे में आपको अधिक कुछ नहीं बता पाएँगे। आर्थिक संकट के चलते कछुआ बनना मेरी नियति थी जबकि मेरे अगल–बगल सब खरगोश ही
खरगोश थे। यही वजह थी कि पाण्डेगंज से गुजरते हुए मेरे अलावा किसी ओर की नजर उस लड़की पर नहीं पड़ी थी।

वह दो–ढाई साल की रही होगी, शरीर पर मैली–कुचैली फ़्राक,उलझे बाल, रोते–रोते सूज गई आंखें, खुश्क फटी–फटी त्वचा, कुछ–कुछ बंजारों जैसा हुलिया। वह घर वालों से बिछुड़ गई लगती थी। व्यस्त सड़क पर तेजी से दौड़ते वाहनों के बीच उसका इस तरह भटकना खतरे से खाली नहीं था। मैं उसे सड़क के किनारे ले गया। मेरे हाथ लगाते ही वह जोर–जोर से रोने लगी थी। नजदीक की दुकान से मैंने उसे टॉफी और बिस्कुट लेकर दिए। टॉफी पाते ही वह चुप हो गई। थोड़ी–थोड़ी देर बाद कुछ याद आते ही वह सिसक पड़ती थी। मैंने उससे उसका नाम–पता जानने की कोशिश की, पर वह कुछ नहीं बोलती थी। मैंने आसपास पूछताछ की पर इसके बारे में कोई कुछ नहीं बता पाया। उस क्षेत्र में रहने वाला कोई भी व्यक्ति उसका जिम्मा लेने को तैयार नहीं था।
अंतत: मैंने वहाँ से गुजर रहे एक रिक्शेवाले को रोका और लड़की को लेकर थाना नाका हिण्डोला की ओर चल दिया।

गेट पर खड़े संतरी ने एक कमरे की ओर इशारा किया। वहाँ एक बड़ी सी मेज के गिर्द तीन पुलिस वाले बैठे थे। मेज पर बहुत–सी फाइलें, सिगरेट के पैकेट और दूसरी चीजें पड़ी थीं। थोड़ा हटकर डेस्क पर एक दीवान जी लिखा–पढ़ी कर रहे थे। बच्ची को रिक्शेवाले ने उठा रखा था। उस समय टॉफी चूसते हुए वह बिलकुल चुप थी।
‘‘सर! यह लड़की पाण्डेयगंज में खड़ी रो रही थी।’’ मैंने वहाँ बैठे दारोगा से कहा।
‘‘तुम वहाँ क्या कर रहे थे?’’
‘‘जी, चौक से लौट रहा था।’’
‘चौक क्या करने गए थे?’’
‘‘घरेलू काम था, सर!’’
‘‘तो इसे यहाँ क्यों उठा लाए?’’
‘‘खो गई लगती है, सर।’’
‘‘वही तो! फिर इसे यहाँ लाने की बेवकूफी क्यों की? इसके घर वाले तो वहीं ढूँढेंगे न जहाँ गुम हुई थी, समाज सेवा के जोश में होश भी खो बैठते हो तुम लोग।’’
‘‘सर, वहाँ ये किसी गाड़ी की चपेट में आ जाती,...’’
‘‘बाबूजी,’’ रिक्शेवाला उस पूछताछ से घबराकर बोला, ‘‘मुझे मेरे पैसे दे दो, मैं जाऊँ । बोहनी भी नहीं हुई अभी तलक!’’
‘‘अबे...क्या खुसुरफुसुर लगा रखी है?’’ एकाएक मुंशी हमें घूरते हुए चिल्लाया।
‘‘कहाँ रहते हो?’’ दरोगा ने पूछा।
‘‘जी, आर्य नगर में।’’
‘‘ठीक है,’’ दरोगा ने मुझसे कहा, ‘‘तुम बच्ची को अपने घर ले जाओ। जैसे ही इसके घर वाले आएँगे, हम तुम्हें खबर कर देंगे,’’ फिर जोर से बोला, ‘‘मुंशी जी, इनका नाम पता नोट कर लो और जाने दो।’’

सुनकर मेरे होश उड़ गए।
‘‘सर, मेरे घर के हालात ऐसे नहीं हैं कि मैं इसे रख सकूं।’’ मैंने विनती की।
‘‘तो थाने में कौन सी आया बैठी हैं।’’
‘‘अबे ओये..क्या नाम है तेरा,’’ पीछे बैठा मुंशी दहाड़ा, ‘‘चल इधर, नाम पता लिखा और फूट! फोकट में साहब को तंग कर रखा है।’’
‘‘साहब, अगर इसे लेने कोई नहीं आया तब क्या होगा?’’ मैंने दारोगा से पूछा।
‘‘तब?’’ जवाब में मुंशी खिलखिलाया, ‘‘तुम पाल लेना, यह तो बहुत पुण्य का काम होगा, मेरे भाई।’’
‘‘इंस्पेक्टर साहब,’’ मैं दरोगा के आगे गिड़गिड़ाने लगा था, ‘‘मेरी पहले ही चार बेटियाँ हैं। चौथी बेटी परसों ही जन्मी है। घरवाली अभी बिस्तर पर ही है। कौन सँभालेगा इस नन्हीं जान को। मैं सच कह रहा हूँ। मैं सरकारी महकमे में काम करता हूँ। यह रहा मेरा पहचान–पत्र।’’
सुनकर दरोगा पिंघल गया।
‘‘यह तुम्हारे साथ कौन है?’’ उसने पूछा।
‘‘जी, रिक्शेवाला है।’’
‘‘साहब,’’ मुंशी रिक्शेवाले को घूरता हुआ बोला, ‘‘मुझे तो यह बच्चे उठाने वाले गिरोह का आदमी लगता है।’’
‘‘बाबूजी, आप बच्ची को सँभालो, मुझे जाना है।’’ रिक्शेवाला डर गया और पैसे लिए बिना जाने को हुआ, ‘‘बेमतलब आपके चक्कर में टैम खराब हो गया।’’
‘‘अबे, भागता किधर है, हँय?’’ मुंशी अपनी जगह पर खड़ा होकर चिल्लाया, ‘‘क्या नाम है तेरा?’’
‘‘जी, असलम।’’ वह पसीने–पसीने हो गया था, ‘‘साब, मैं तो सवारी लेकर आया था।’’
‘‘यह सच कह रहा है,’’ मैंने रिक्शेवाले का बचाव किया, ‘‘मैं दो रुपए में इसे यहाँ लेकर आया हूँ। सर! ऐसे बच्चों को बालगृह में भी तो रखा जाता है?’’
‘‘चोप्प बे सत्यवादी! साहब को सिखाता है?’’ मुंशी मुझपर चिल्लाया, फिर दरोगा से बोला, ‘‘साहब मुझे तो ये दोनों मिले हुए लगते हैं।’’
‘‘तुम्हारे घर में कौन–कौन है?’’ दरोगा ने मुंशी को शांत कर असलम से पूछा।
‘‘हुजूर, घरवाली है और एक बेटा है–पांच साल का।’’
‘‘असलम, घबराओ नहीं,’’ दरोगा ने बहुत प्यार से कहा, ‘‘फिलहाल इस बच्ची को लेकर तुम घर जाओ। हम तुम्हारा नाम
पता नोट कर लेते हैं। बेफिक्र होकर जाओ, जल्दी ही हम इसे तुम्हारे यहाँ से मँगवा लेंगे।’’

मुझे असलम पर दया आ रही थी। उस बेचारे को इस स्थिति में डालने के लिए मैं ही जिम्मेवार था। मुंशी के अंदाज से लग रहा था कि अब हमने जरा भी चूँ–चपड़ की तो वो हमें किसी भी केस में अंदर कर देगा।

नाम पता लिखाकर बाहर आते ही असलम मुझ पर बिफरा, ‘‘मुझ गरीब को फँसाकर क्या मिल गया आपको। जब आप जैसे पैसे वाले इस बच्ची को नहीं रख सकते तो भला हमारी क्या औकात है। हमें तो कई बार मजदूरी न मिलने पर भूखे ही सोना पड़ता है।’’

‘‘भाई!’’ मैं शर्मिंदा था, ‘‘मैंने तुम्हारे लिए कोशिश की थी, पर वह मुंशी बहुत काइयाँ था। कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था।’’

‘‘बाबूजी,’’ असलम बोला, ‘‘मैं अब इस बच्ची को लेकर घर कैसे जाऊँ! मेरी घर वाली बहुत ज़ालिम है। वो इसे नहीं रखने देगी। अपने बेटे के हिस्से का एक निवाला भी वो इसे नहीं देने देगी। हो सकता है वो मुझे घर में घुसने ही न दे।’’

मैंने एक गुमशुदा बच्ची को पुलिस थाने में पहुंचाने के दायित्व का निर्वाह किया था, पर हालात ऐसे हो गए थे कि मैं असलम के सामने खुद को गुनहगार महसूस कर रहा था। असलम की गोद में बच्ची बिलकुल चुप थी। उसकी आंखों में नींद उतरने लगी थी। उसने बिस्कुट के पैकेट को मजबूती से पकड़ रखा था। उसको देखते ही दिल को कुछ होने लगता था।

पतलून की जेब में मेरा हाथ चूड़ी बेचकर जुटाए गए रुपयों को टटोल रहा था। अंतत: मैंने दिल को कड़ा किया और पचास रुपए असलम को दे दिए। उसे आशा बंधाई कि जल्दी ही बच्ची के घर वाले लेने आ जाएँगे और वह इस जिम्मेवारी से मुक्त हो जाएगा। साथ ही उसे यह वचन दिया कि अगर बच्ची के घर वाले नहीं आते हैं ,तो जब तक लड़की उसके पास रहेगी, उसके पालन–पोषण में सहयोग के रूप में पचास रुपए प्रति माह देता रहेगा। मैंने उसे अपना घर दिखा दिया था और वह बच्ची को लेकर अपने घर चला गया था।

ट्रेन टिसुआ स्टेशन पर रुकी तो डिब्बे में हिजड़े चढ़ आए। तालियाँ पीटते हुए वे यात्रियों से वसूली करने लगे। डिब्बे में हो रहे शोर–शराबे की वजह से बात करना मुश्किल हो गया।

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