‘‘जब
मम्मी-पापा नहीं होते, तभी फोन करना नहीं तो मुझे मार
पड़ेगी।’’
‘‘देखो उर्मि, यूँ झूठ बोलना ठीक नहीं, तुम बता देना कि एक
मेरी दोस्त आंटी है... और वो मुझे सिर्फ फोन से प्यार करती
है।’’
‘‘आंटी आप मुझसे प्यार करती हैं ?’’
‘‘हाँ उर्मि, तुम्हारी आवाज़ से मुझे प्यार हो गया है। मैं भी
बहुत अकेली हूँ। मुझे भी तुम जैसी दोस्त चाहिए।’’ मैंने उर्मि
से दोस्ती करने का फैसला कर लिया था।
‘‘मैं आपको अच्छी लगती हूँ।’’
‘‘हाँ ’’
‘‘आप रोज शाम मुझ से प्यार भरी बातें करेंगी ? हर रोज़ ?’’
‘‘उर्मि वादा करो, उदास नहीं रहोगी, मुझ से मुस्कराते हुए बात
करोगी।’’ मैंने कहा - मानो मैं उसकी उदासी और मुस्कराहट दे
सकती थी।
‘‘मैं कभी उदास नहीं रहूँगी। अब आप फोन करेंगी न।’’ फिर कुछ
रुककर उर्मि बोली - ‘‘आंटी आप कितनी अच्छी हैं। बिल्कुल ईश्वर
जैसी अच्छी हैं।’’ उर्मि का भोलापन मुझे छू गया।
‘‘आप ईश्वर पर विश्वास रखती हैं ?’’
‘‘हाँ, बहुत। तभी तो आप जैसी आंटी से ईश्वर ने कहा मेरी दोस्त
बन जाओ, है न ?’’ मेरी आँखें भर आईं। अकेलेपन की यह पीड़ा मैं
जानती थी। एक पीडि़त ही जान सकता है, उसे बाँट सकता है।
फिर मैं उर्मि को रोज़ फोन करती रही। मैंने उसका जो चित्र
बनाया था, उसमें उसने रंग भर दिए थे। मेरे विचारों की दुनिया
में उर्मि को धीरे-धीरे आकार मिल रहा था। उसकी आवाज़ का हर
छोटा-बड़ा फर्क मुझे बहुत कुछ कहने लगा था।
फोन का यह सिलसिला करीब आठ महीने तक चला। इन दिनों उर्मि की
सारी बातें मुझे मालूम हो चुकी थीं। उर्मि के पास बहुत बड़ा
कमरा था, उसमें ढेर सारे खिलौने थे। उसके घर में चार कारें
थीं। ढेर सारे नौकर थे। कपड़ों से आलमारियाँ भरी थीं। रोज खाने
में सूप से मिठाई तक सब मौजूद था। उसके पास अगर कुछ नहीं था,
तो वो सिर्फ प्यार। उसे कोई प्यार नहीं करता था।
‘‘आंटी, कल मेरा बर्थ-डे है।’’
‘‘ओह हो, यह तो बड़ी खुशी की बात है। पार्टी नहीं दोगी ?’’
‘‘मम्मी-पापा पार्टी-वार्टी देना, घर पर बच्चों को बुलाना
पसन्द नहीं करते।’’
कैसे माँ-बाप हैं यह। इतनी सी बच्ची को कैद क्यों कर रखा है,
‘‘सुनो, मैं तुम्हारे घर आऊँगी और तुम्हारी मम्मी से बात
करूँगी और पूछूँगी, तुमसे ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं वे
लोग।’’ वह रोने लगी।
‘‘उर्मि मत रो उर्मि... सुनो,’’ मैं कुछ कह ही रही थी, तभी
उर्मि ने फोन काट डाला।
मैं बहुत बेचैन थी। रात भर सोचकर मैंने उर्मि के बर्थ-डे पर
उसके लिए तोहफा ले जाने का इरादा किया, पता तो मालूम नहीं था,
लेकिन उसकी बातचीत से अंदाजा लगाया था कि मोती नगर के बगीचे के
आसपास कहीं वह रहती है उर्मि के लिए मिठाई, लाल गुलाबों का
गुलदस्ता और चाँदी की पाजेब मैंने खरीदी।
दूसरे दिन घंटा भर घूमकर मैंने राठी का बंगला ढूँढ निकाला।
सामने हरी दूब पर कुर्सियाँ रखी थीं। सुन्दर बगीचे में गुलाबों
से घिरी हुई एक औरत बैठी थी। चौकीदार मुझे उसके पास ले गया। वह
मुस्कराई।
‘‘मैं, स्नेहा गुप्ता, पत्रकार हूँ।’’
‘‘आइए अन्दर चलते हैं।’’
हम लोग एक बड़े से हॉल में पहुँचे। वहाँ की हर चीज़ उनकी
साम्पत्तिक स्थिति को प्रमाणित कर रही थी। वहाँ चमक-दमक में
मेरी जान घबराने लगी।
‘‘मैं उर्मि राठी से मिलने आई हूँ।’’ उस औरत के मुस्कराते हुए
चेहरे पर गुस्सा उभर आया, उसकी भवें तन गईं।
‘‘यहाँ कोई उर्मि-वुर्मि नहीं रहती।’’
‘‘लेकिन, मैं उससे रोज़ फोन पर बात करती हूँ, मुझे उससे और कोई
काम नहीं है, उसके जन्म दिन पर भेंट लाई हूँ, सो देकर चली
जाऊँगी।’’
‘‘मैंने कहा न, यहाँ कोई उर्मि-वुर्मि नहीं रहती। आपको कुछ
गलतफहमी हो रही है। अब आप जा सकती हैं।’’ और वह औरत तपाक से
अन्दर चली गई।
शायद कुछ गलतफहमी हुई थी, मोतीनगर में और भी तो राठी हो सकते
हैं। सिर्फ उर्मि के किए गए वर्णन के आधार पर मुझे यूँ नहीं
करना चाहिए था। लाल गुलाब के फूल और तोहफे का पैकेट सीने से
लगाकर मैं उदास होकर बंगले के बाहर आई।
‘‘आंटी।’’
मैं चौंकी, एक दुबली-पतली साँवली, लडक़ी, पुराने से कपड़े पहने
हुए सामने खड़ी थी।
‘‘आप स्नेहा आंटी हैं।“
‘‘हाँ, मैं आपकी उर्मि हूँ आंटी।’’
मेरे हाथों से सारा सामान गिर पड़ा। आँसू पोंछते हुए उर्मि
मुझसे लिपट गई।
‘‘आंटी नाराज़ न होना,’’ उसकी भीगी-सी नज़र वहाँ बिखरे सामान
पर पड़ी, उसके तोहफे के इर्द-गिर्द वह सिक्के भी थे, जो मैंने
उसको फोन करने के लिए जमा किए थे।
‘‘आंटी, मुझे प्यार करना... करोगी न ?’’
‘‘हाँ उर्मि, लेकिन यह सब क्या है ? मेरी तो समझ में कुछ नहीं
आ रहा।’’
‘‘आंटी मैं... मेरे मम्मी-पापा के यहाँ कोई बच्चा नहीं था,
इसलिए मुझ अनाथालय से लाया गया था, लेकिन अब...
अब मुझे एक बहन है न, इसलिए...’’ |