‘‘जी...
आप इतना महान कार्य कर रही हैं।’’ कुछ बुदबुदाने की आवाज़ सी
कान पर पड़ी शायद कुछ गड़बड़ है।
‘‘आंटी मैं तो अभी सिर्फ दस साल की हूँ।’’
‘‘तो आप उर्मि जैन नहीं ?’’
एक मीठी सी हँसी के साथ जवाब आया - ‘‘नहीं, मैं उर्मि राठी
हूँ।’’ मुझे भी हँसी छूट गई।
‘‘अरे आंटी माफ करना। आंटी आप तो ज़रूर मुझसे बड़ी होंगी।
कितनी बड़ी हैं आप ?’’
‘‘मैं तो सत्ताईस बरस की हूँ।’’
‘‘आंटी, आप मेरी दोस्त बनेंगी ?’’ अचानक उनके स्वर की
फुलझडिय़ाँ बुझ गई थीं।
‘‘हाँ, हाँ, क्यों नहीं बनेंगे दोस्त ? लेकिन उर्मि तुम्हें
सहेलियों की क्या कमी ?’’
‘‘आंटी आप नहीं जानती, मैं बहुत अकेली हूँ।’’ उसका उदास स्वर
मुझे झकझोर गया। उर्मि के अकेलेपन ने दोस्ती माँगी और मेरे
अकेलेपन ने तुरंत प्रतिसाद किया - ‘‘अभी मुझे बहुत सारे काम
करने हैं। मैं कल शाम तुम्हें फिर फोन करूँगी ठीक है ?’’
‘‘वादा करो, वादा ! कल शाम ६ बजे।’’
‘‘अच्छा बाय!’’ मैंने फोन काट दिया, फिर मैंने उर्मि जैन का
नम्बर घुमाया। डिब्बे में एक रुपए का सिक्का डालते ही हलो की
आवाज़ आई। उर्मि जैन से! मुलाकात का वक्त तय करके मैं होस्टल
लौट आई।
होस्टल में हर शाम वही वातावरण होता। लड़कियाँ अपने-अपने काम
से लौटतीं और थोड़ी ही देर में सामने के लॉन में थके-हारे,
धुले हुए चेहरों का जमघट जमता। कुछेक आने वाले विज़िटर्स से
उलझ जाती और कुछ लड़कियाँ आते ही अपनी-अपनी थालियाँ लेकर
डायनिंग हॉल की ओर बढ़ जातीं।
शाम का यह वक्त मुझे भारी
पड़ता। अकेलापन तीव्रता से कचोटने लगता। पिताजी के स्वर्गवास
के बाद गाँव के उस बड़े से मकान में हम दोनों माँ-बेटी ही रह
गई थीं। मुझसे छोटा भाई नचिकेत को स्कॉलरशिप मिला था और वह
विदेश चला गया था। मैंने बी.ए. करके पत्रकारिता की दिशा में
कदम रखा। सुबह अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. की क्लासेस और बाद
में पत्रकारिता, यह जीवनक्रम बना था। गाँव में रहकर पढ़ाई और
नौकरी करना संभव नहीं था और माँ को लेकर इस शहरी जीवन की
दौड़-धूप करना मुश्किल। नचिकेत को लौटने में दो साल बाकी थे।
शाम जब रात में ढल जाती, तब मेरे भीतर एक अजीब-सा उजड़ापन भर
जाता। कहाँ वह गाँव का चैतन्यभरा जीवन और कहाँ यह घुटनभरी
ज़िंदगी। माँ की याद बहुत आती। कॉलेज से लौटते ही माँ गरम-गरम
नाश्ता और चाय लेकर आती और हम दोनों सहेलियों की तरह बतियाती
रहतीं। इस वर्किंग विमन्स हॉस्टल में तो हरेक का अपना-अपना
जीवन था। चारदीवारी में खाना-पीना और सोने को बिस्तर तो था,
लेकिन कभी अपनत्व नहीं था। दो साल हो जाने पर भी मुझे मेहमान
की तरह परायापन लगता रहता। किताबें पढ़ना, रूममेट के साथ कहीं
घूमने निकलना, कुछ लिखना यही उदासी टालने के पर्याय थे।
आंटी आप मेरी दोस्त बनेंगी ? एक पराई आवाज़ ने फोन से अजीब-सा
अपनत्व कैसे दे दिया। मुझे उर्मि की आवाज़ से ही स्नेह सा हो
आया। उर्मि की याद आई, टेलीफोन बूथ की तरफ मुड़ने के बाद ख्याल
आया कि फोन के लिए एक रुपए का सिक्का नहीं है।
आसपास लोगों से भी पूछा,
लेकिन चिल्लर नहीं मिल पाई। काफी देर के बाद एक मेडिकल स्टोर्स
से मैंने नम्बर मिलाया - ‘‘हलो मुझे उर्मि बात करनी है।’’
‘‘कौन उर्मि ? यहाँ कोई उर्मि वुर्मि नहीं रहती है। एक मोटी सी
आवाज़ आई और फोन कट गया।’’ नम्बर तो ठीक था, पता नहीं क्या बात
है। दुकानदार को एक रुपया देकर मैं निराश होकर विचारों में खोई
हॉस्टल लौट आई।
यह उर्मि कौन होगी ? उसके माता-पिता कैसे होंगे ? घर में फोन
है, मतलब वह ज़रूर खाते-पीते घर की होगी। दस साल की है, शायद
चौथी कलास में पढ़ती होगी। कैसी होगी, सुन्दर, कुरूप - मैं
सोचती रही, दूसरे दिन सुबह फोन करने का मैंने निश्चय किया।
सुबह फिर वही शाम वाली घटना दोहराई गई। यहाँ कोई उर्मि नहीं
है, कहकर किसी ने फोन पटक दिया। शाम को मैंने फिर कोशिश की,
फोन उर्मि ने उठाया -
‘‘उर्मि, कल शाम को और आज सुबह मैंने तुम्हें फोन किया था, मगर
किसी ने बताया कि नहीं कोई उर्मि नहीं रहती।’’ उर्मि की
उत्साहभरी आवाज़ मद्धिम पड़ गई।
‘‘आंटी यही तो परेशानी है। मुझे किसी से मिलने की या बात करने
की इजाज़त नहीं है। दिनभर इस बंगले में अकेले जीना पड़ता है।’’
‘‘उर्मि कौन से स्कूल में हो, किस क्लास में पढ़ती हो ?’’
‘‘आंटी मुझे किसी भी स्कूल में नहीं भेजा जाता। मम्मी-पापा
कहते हैं हमारी सुंदर सी राजकुमारी को कोई भगाकर ले जाएगा और
पिछले साल मैं बहुत बीमार हुई न तब मुझे स्कूल से निकाल लिया
गया।’’
‘‘क्या ?’’ मेरे आश्चर्य की सीमा नही थी। राजकुमारी को महल में
कैद करके रखने वाले लोगों की कहानी बचपन में सुनी थी, क्या
सचमुच ऐसा... मुझे विश्वास नहीं हुआ।
‘‘उर्मि, फिर दिन भर क्या करती हो ?’’
‘‘मैं तीसरी क्लास पास हूँ न। कुछ किताबें पढ़ती हूँ। बगीचे
में खेलती हूँ। किचन में महरी का हाथ बँटाती हूँ। पापा-मम्मी
का छोटे-मोटे काम कर देती हूँ और उन सब चीजों से ऊब जाती हूँ,
तब बेडरूम के छोटे-मोटे फोम के गद्दे पर खूब उछलती हूँ। हर शाम
६ बजे से ७ बजे क मम्मी-पापा क्लब जाते हैं। आंटी इसीलिए तो
आपसे कहा था ६ बजे फोन ककरने को।’’ एक ही साँस में सब कुछ कह
गई।
मेरी नज़र के सामने सुन्दर परी-सी राजकुमारी घूमने लगी। उदास,
अकेली महल के कोने-कोने में घूमती, मुक्ति का रास्ता ढूँढती। |