फँस
गईं दीदी आप ...'
सामने वाली
पड़ोसिन अपने फाटक पर दोनों कुहनियाँ टिकाए,
हथेलियों
में चेहरा रखे विगलित दृष्टि से उन्हें देखती कह रही थीं।
वे जा रही
थीं सामने सड़क पर,
थकी-हारी
क्लांत। एक हाथ में दवाइयों का पैकेट लिए और साथ ही साड़ी का
पायचा उठाए,
दूसरे हाथ
में गर्म पानी की बोतल और छाता लिए। इधर दो दिन से लगातार
बारिश हो रही थी।
बुरी
तरह फँसा दिया गया इन्हें तो ...'
अगले
दरवाजे पर खड़ी कई एक पड़ोसिनों का झुंड दयार्द्र ही नहीं,
परेशान भी
हो उठा था। उसकी
सेवा करते-करते कहीं ये खुद भी बीमार न पड़ जाएँ। वैसे भी मौसम
खराब है। घर-घर में लोग बीमार पड़ रहे हैं।'
तुम्हीं
लोग ने तो फँसाया है मुझे ...',
उनके शिथिल
क्लांत चेहरे पर एक क्षीण सी मुस्कान उभरी और वे पड़ोसिनों
के सामने स्थित उस विशाल भुतही हवेली में समा गईं।
सच में अगर वे फँसी थी तो इन्हीं पड़ोसिनों के
कारण। वरना जब से वे इस हवेली से निकाली गई थीं, इसका मुँह तक
नहीं देखती थीं, यह उनके स्वर्गीय पिता की हवेली थी। |