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तब से वे उसे रोज खाना देने जाने लगीं। खाना, पानी, चाय, नाश्‍ता, सभी कुछ। अंधेपन, असहायपन और भूख ने उसे एकदम बदल दिया था। हवेली के दरवाजे पर अंधे भिखारी की तरह बैठा रहता बाट जोहते, दीदी खाना ला रही होगी। कई बार काम के सिलसिले में उन्‍हें बाहर जाना होता। लौटतीं तो गाडि़याँ लेट होने की वजह से रात के बारह भी बज जाते। इस समय भी वह घर के दरवाजे पर बाट जोहते मिलता। वे भी अपने साथ जरूर कुछ बँधवा कर लाई होतीं समोसा, कचौरियाँ, पूरियाँ, कुछ भी। चुपचाप उसके हाथ में पकड़ा देतीं। वह हबर-हबर खाने लगता।

एक दिन तड़के चाय देने गईं तो देखा ... मलमूत्र में सना बुखार में तप रहा है वह। उन्‍होंने फौरन भाई-बहनों को फोन करवाया। बड़े भाई का जवाब - मैं इतनी दूर से क्‍या कर सकता हूँ? अपनी जिम्‍मेदारियाँ हैं यहाँ मेरी। तुम पास हो ... सँभालो।

बहनों का जवाब - मरे हरामजादा। कल मरता आज मर जाए। बहुत पापी रहा है। बिल्‍कुल भी लाज नहीं कि इसी का नाम लेकर सगी बहन को घर से निकाला था। सिर्फ एक बड़ी बहन के पति को दया आई। फौरन आकर अस्‍पताल में भर्ती करा गए। अब शुरू हुआ अस्‍पताल का चक्‍कर। दवाई, इंजेक्‍शन, भाई का पथ्‍य, उसके शरीर की सफाई। फिर अपना घर सँभालना, काम-धंधा देखना। थक कर लस्‍त-पस्‍त हो जातीं। डॉक्‍टर जब-तब तलब करते, 'इस मरीज का कोई रिश्तेदार नहीं हे क्‍या?' वे भागी-भागी आतीं, 'जरा घर गई थी पानी उबालने डॉक्‍टर साहब।'

देखिए, इसे बड़े अस्‍पताल ले जाइए भिलाई, रायपुर कहीं भी। हमने कागज तैयार कर दिया है।'

किसके बल पर ले जाए वे बड़े अस्‍पताल, दूसरे शहर? किसी तरह अपनी छोटी सी आमदनी में उसे खिला-पिला रही थी। अब बड़े अस्‍पताल का भारी-भरकम खर्च। फिर वे अकेली। अड़ोसी-पड़ोसी परिचित कहते, 'आपको सीधा जान फँसा दिया है आपके भाई-बहनों ने। आप भी उन्‍हें फँसाइए, टैक्‍सी में इसे डालकर ले जाइए और किसी बहन के दरवाजे पर छोड़ आइए। सब पैसे वालियाँ हैं।'

वे परेशान हो उठतीं, 'इन सलाहों से गत नहीं, दुर्गति बन जाएगी, एक मरणासन्‍न जीव की। जैसी वे सब हैं, पूरी क्रूरता से मेरे ही दरवाजे पर फिर पटक जाएँगी।'

उधर, डॉक्‍टरों ने फरमान सुना दिया, ' .. या तो किसी बड़े अस्‍पताल में ले जाइए या अपने घर। बेड खाली करिए भई।'

परेशान होकर हवेली में घुसकर सारा घर साफ करवाया, पुतवाया। जिन कमरों में ताला डला था, उन्‍हें छोड़ दिया। बाकी सारा घर, फर्नीचर फिनायल डालकर धुलवाया। पुराना गंदा बिस्‍तर फेंककर नया बिस्‍तर लगाया। लोगों की मदद से बीमार विक्षिप्‍त भाई को लाकर सुलाया। लकवा का प्रकोप। करवट ही न बदल सके मरीज। बिस्‍तर में पड़े-पड़े घाव ही घाव हो गये थे। घाव धो-पोंछकर पावडर छिड़क कर धुले कपड़े पहनाती। मलमूत्र की प्रक्रिया पर मरीज का नियंत्रण नहीं रह गया था। कपड़े बार-बार गंदे और गीले हो जाते तो हर बार डिटॉल से शरीर पोंछतीं।

रात के सन्‍नाटे में उस भुतही हवेली में मरणासन्‍न विक्षिप्‍त भाई के पास कुर्सी में बैठे-बैठे उनका हृदय विदीर्ण होता रहता। डॉक्‍टर इस मरीज को देखने आना ही नहीं चाहते। आ भी गये तो ठीक से कुछ बताते नहीं। भाई-बहन उनका फोन तक नहीं उठाते। सचमुच कैसे परिवार में पैदा हुई हैं वे। एक भी सदस्‍य में इंसानियत नहीं। स्‍व. पिता के एक मित्र गये थे, बहनों को समझाने। लौटकर बताया था, ' तुमको मैं अंधेरे में नहीं रखना चाहता बेटा। तुम्‍हारी माँ उन लोगों के पास लगभग कैद है। वे सब मुँह जोड़े बैठीं व्यूहरचना में लिप्त रहती हैं कि लाखों की इस हवेली को कैसे हथियाया जाए? मुझसे साफ बोलीं, 'वह पागल भाई की सेवा के बहाने उस बिल्डिंग में कब्‍जा करने घुसी हे । मगर हम सब भी उसे मजा चखा देंगे। बड़ा भाई भी हमारी तरफ है। कंगालिन तो है, पैसे-पैसे के लिए मरती-खपती। और हम लोग? हम लोग को तो आप देख ही रहे हैं। हमें क्‍या जरूरत है पैसे की? हमें तो यही समझ में नहीं आता कि इतना पैसा कहाँ खर्च करें। हम लोग तो हवेली को किसी सेवा कार्य में लगा देना चाहते हैं। मगर वह भुक्‍खड़ कब्जा करने के लिए चालें चल रही है। हम लोग उसे बर्बाद कर देंगे।'

दंभ में डूबी क्षुद्रमति बहनों की बातों पर ध्‍यान देने की उन्‍हें जरूरत ही महसूस नहीं हो रही थी। उसके सामने अंधा, अनाथ, मरणासन्‍न मरीज था, जो सिर्फ मुँह भर थोड़ा सा खोल सकता था। वे मुँह में पानी डालतीं, पानी पी लेता। पथ्‍य डालतीं तो खा लेता। दवाई देतीं तो घुटक लेता। दोनों आँखों की कोरों से आँसुओं की धार बहती रहती। कभी-कभी बड़बड़ाने लगता, 'तू मेरी इतनी सेवा क्‍यों कर रही है दीदी? देखना, मेरे मरने की देर है, ये सब तुझे निकाल भगाएँगे। मैं जानता हूँ, ये सब तुझसे शुरू से जलते रहे हैं ... तेरी हिम्‍मत तोड़कर तुझे दर-दर की भिखारी बना अपने आगे गिड़गिड़ाते देखना चाहते हैं सब, क्‍योंकि तू शुरू से इन सब से श्रेष्‍ठ थी। मैं इतना पागल नहीं हूँ, सब समझता हूँ .. जाने क्‍यों घरघराती सी आवाज में वह यही सब बड़बड़ाता।'

उस दिन भी वह अपनी टूटी-जर्जर आवाज में रह-रहकर ऐसा ही कुछ बड़बड़ा रहा था कि आवाज बंद हो गई। गर्दन एक तरफ लुढ़क गई। वे पास ही बैठी फलों का रस निकाल रही थीं। सकते में आ गई। उसके मुँह के पास चिल्‍लाने लगीं।

क्‍या हो गया बाबू? तू बोलता क्‍यों नहीं? पानी पिएगा? ले पानी। गला सूख रहा होगा। खोल न मुँह। मुँह क्‍यों नहीं खोलता भैया? खोल न रे .. अरे, कोई देखो ... इसे क्‍या हो गया है ... ?'

उनकी आर्त चीख सुनकर पड़ोसी आ गये। कहने लगे - भैया तो चले गये दीदी।

चला गया! इतनी जल्‍दी चला गया! मुझसे पानी भी नही पिया! इतना पानी माँगता था ...!'

देखते ही देखते सारा मुहल्‍ला इकट्ठा हो गया। मुहल्‍ला क्‍या पूरा शहर। वे तो पूरे शहर की दीदी बन चुकी थीं। नगर के वरिष्‍ठ नागरिक उनके भाई-बहनों को फोन लगाने लगे। कोई आने को तैयार नहीं। किसी का ड्राइवर नहीं आया। किसी की तबीयत बहुत खराब है। बड़े भाई तो बेचारे बहुत दूर हैं ही माँ तो चल-फिर भी नहीं सकतीं। सिर्फ उदारमना बड़े बहनोई आकर अग्नि संस्‍कार कर गए।

हाँ, मगर अंतिम संस्‍कार निपटते ही एक जरूरी काम बड़ी होशियारी से कर लिया उन बहनों ने। बिल्डिंग के फाटक पर बड़ा सा ताला जड़ दिया और माँ की तरफ़ से पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दी - बिल्डिंग मेरी है और इस शहर में रहने वाली मेरी लड़की उस पर कब्‍जा करना चाहती है ...।

बहनों की इन क्षुद्र करतूतों पर उन्‍हें अब सिर्फ तरस आता। उनकी झोपड़ी तो वैसे ही गुलजार रहती थी। अब तो मातम पुरसी करने वालों का ताँता लगा रहता।
बहुत किया दीदी आपने। इसी भाई के कारण घर से निकाला गया। इसी की इतनी सेवा की। भगवान ऐसी बहन सबको दे।' पूरे शहर में चर्चा है, सचमुच देवी हैं देवी। भाई बहन नीचता पर नीचता करते रहे। वो सेवा में लगी रहीं।'               

झर-झर बहते आँसुओं को पोंछते मिलने वालों के बीच दीवार से टिकी बैठी वह सोच रही थीं - तूने तो मुझे देवी बना दिया रे पगले, बचपन में पिता की इतनी सेवा की। ससुराल में सास-ससुर की। यहाँ आई तो माँ की इतनी सवा की। भाई-बहन ओर उनके बाल-बच्‍चों के लिए तो जान देती रही। लेकिन कहीं से न प्रशंसा मिली न कृतज्ञता। उल्‍टे मिला उपहास और तिरस्‍कार। निर्वासन और बहिष्‍कार। लेकिन आज एक तिरस्‍कृत, त्‍याज्‍य और बहिष्‍कृत प्राणी की थोड़ी सी सेवा करके मैं देवी कहला रही हूँ ... महान कहला रही हूँ। यशोधारा में नहा रही हूँ क्‍योंकि वह बहिष्‍कृत प्राणी पागल, अंधा, अपाहिज और अनाथ था। पगले, तू तो एक अभागे नारकीय जीवन से मुक्‍त हुआ ही, मुझे तो मुक्‍त ही नहीं कर गया, सम्‍मानित कर गया। देवी बना गया ...। किसे मिलता है इतना सम्‍मान, इतनी श्रद्धा, बिना धन-दौलत, बिना पद-पोजीशन के।

उनका हृदय शुद्ध कृतज्ञता और ममता से भरा हुआ था। अंधे, पागल के प्रति, शहरवासियों के प्रति और हाँ, परमात्‍मा के प्रति। विलक्षण अनुभूतियों की घड़ी थी यह। विलक्षण पर्व था। मुक्ति पर्व।

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९ अगस्त २०१०

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