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पाँच मिनट का समय पाँच घंटे सा लगा उन्हें। सिंह साहब उस जत्थे के साथ उनके कमरे मे प्रवेश कर रहे थे और पुलिस के जवान बाहर ही खड़े रह गए थे।
ये लोग चाहते हैं कि पाँच मिनट आपसे बातचीत करें और प्रतीक स्वरूप कुछ लगान जमा करा दें!’’ निर्पेक्ष स्वर में सिंह साहब ने उन्हें सूचना दी।
‘‘बोलिए’’ बजाज साहब उन किसानों से मुखातिब हुए। ताज्जुब कि ज्यादातर चेहरों को पहली बार देख रहे थे अपनी तहसील में। उनमें से किसान तो एक भी नहीं दिख रहा था।
‘‘तहसीलदार साहब, हम लोग आपके या सरकार के दुश्मन नहीं हैं। हमने तो सदा से आपकी मदद की है।’’ अखैपुर का सरपंच बालकिसन उन सबका नेतृत्व करता दिख रहा था। उन्हें ताज्जुब था कि जिस आदमी के खिलाफ पंचायत के सरकारी धन के दुरुपयोग और गबन तक की पुलिस रपट दर्ज है वह आज किसानों की नुमाइंदगी करने आया है।

‘‘तो कौन दुश्मन है आपका’’ बजाज साहब ने जिज्ञासा प्रकट की।
‘‘ये पटवारी, गिरदावर और नायब तहसीलदारों की पूरी जमात!’
‘‘ये मौका उनकी शिकायत का नही है बालकिसन जी!फिर भी आप लिखकर दे दें हम दोषी लोगों को सजा दिलाऐंगे। आज तो आप लगान जमा कराने की बात करें।’’ आवाज में कुछ ज्यादा ही नर्मी लाते हुए बजाज साहब मुस्कराए।
‘‘लगान की ऐसी-तैसी रे बजाज के बच्चे। हरामजादे तैने बिगाड़े सब लोगों को..’’ सहसा चीख उठा था बालकिसन, तो वे चौंके।

और जब तक कोई कुछ समझता या करता तब तक बालकिसन ने बजाज साहब के हाथ पकड़ लिए थे और उसके दूसरे साथी ने अपने कुर्ते की जेब से एक टूयूब सी निकालकर अपने हाथों में मल ली थी और फिर वे ही हाथ बजाज साहब के चेहरे पर फेरने लगा था। एक अजीब सी बदबू महसूस करते बजाज साहब ने देखा कि उनके चेहरे पर फिर रही हथेलियों में गहरा काला रंग लगा है। अचानक उन्हें लगा कि उनके बदन का सारा खून सूख गया है, बदन की सारी ताकत खत्म हो गई है और वे शिथिल होकर गिरने ही वाले हैं कि किसी ने उन्हें संभाला , तब तक पुलिस के जवान भी इजलास में दाखिल होकर अपना मोर्चा संभाल चुके थे। बालकिसन और उसके साथियों को जमीन पर गिरा के लातें और लाठी बरसाना शुरू कर दिया था पुलिस सिपाहियों ने। पता नहीं किसने उनका माथा धोया, किसने पोंछा और कौन उन्हें उनकी डायस पर बिठा गया। वे तो संज्ञाशून्य हो गए थे।

जाने कितनी ही देर तक वे ऐसे ही बेठे रहे अपनी सीट पर फिर तब थोड़ा जागे जब कि एस.डी.ओ.पी. साहब ने आकर उनका कंधा थपथपाया था, ‘‘माइंड मत करो पार्टनर, अपने देश के प्रजातंत्र में ऐसी घटनाएँ तो होती ही रहती हैं। उस बालकिसन और उसके साथियों की ऐसी जबर्दस्त पिटाई हुई है कि साले ताजिन्दगी याद रखेंगे।’’

बाहर बार-बार विजय-निनाद करते लोगों के स्वर यहाँ तक पहुँच रहे थे, जिनके बीच बोझिल और डूबती सी आवाज में बजाज साहब ने कहना चाहा, ‘‘लेकिन सर मेरा जुर्म’’
‘‘जाने दो यार! इन उचक्कों की हरकत के पीछे क्या जुर्म हो सकता है भला? चलो घर चलते हैं, मेरे जवान निपट लेंगे उन सबसे ।’’ उन्हें बरबस उठा ही लिया सिंह साहब ने और जवानों के घेरे में ही एक ओर से निकाल कर जीप में बैठाया और क्वार्टर तक छोड़ने गए।

क्वार्टर पर भी भारी सुरक्षा थी उनके लिए। पत्नी डरी हुई थीं और बच्चे सहमे हुए। सहसा कोरें भीग गईं बजाज साहब कीं। वे चुपचाप अपने कमरे मे घुसे और भीतर से किवाड़ बंद कर लिए।

कमरे के बीचोंबीच खड़े होकर उन्हें लगा कि सबकुछ खत्म हो चुका है उनका। अब बचा क्या है जिन्दगी में? कल उनके मातहत इस कस्बे के लोग, खबरनवीस, वकील और दूसरे बाशिंदे जानेंगे उनके साथ घटे अपमानजनक स्थिति के बारे में तो क्या हैसियत रह जाएगी उन सबकी नजरों में उनकी? रिश्तेदार सुनेंगे तो क्या कहेंगे? पत्नी और बच्चे भी क्या सोचेंगे इस बाबत! कैसे जियेंगे ऐेसी बोझल जिंदगी? उनकी नजरों ने रस्सी का कोई टुकड़ा ढूँढना चाहा जिसे गले में डाल कर पंखे से लटक जाएँ वे। फिर विचार आया कि तार का कोई टुकड़ा खोज लें जिसे बिजली के सॉकिट में लगा कर अपने माथे से चिपका लें और एक ही झटके में मुक्ति पा जाएँ । या फिर कोई ब्लेड मिल जाय जिससे माथे और हाथ पाँव की नस काट कर सारा खून बहा दें।

सहसा वे चेते, बाहर उनकी पत्नी लगातार दरवाजा खोलने का आग्रह कर रही थी। बहुत कम समय था उनके पास, देर हो जाने पर संभवतः पुलिस को बुलवा कर दरवाजा तुड़वा दिया जाए। वे फिर सक्रिय हुए। ताज्जुब कि न रस्सी मिली न तार और न ही कोई ब्लेड। गहरी साँस ली उन्होंने, एक आह जैसी साँस। फिर एक और साँस, एक और। और इन तीन साँसों में ही मस्तिष्क हल्का सा होता लगा उन्हें तो चौंके वे। उन्होंने कई साँसें ली पूरी पूरी।

पत्नी को भीतर से ही सोने को कह दिया था उन्होंने और नंगी जमीन पर ज्यों के त्यों लेट गए थे। पता नहीं कब तक दुःस्वप्न से चलते रहे थे और कब नींद आई थी। जागे तो अवसाद कुछ कम था। बाहर सुबह हो रही थी। वे किवाड़ खोलकर बाहर आए और उदास मुस्कान के साथ दोनों बेटों के सिर पर हाथ फेरा संभवतः वे दोनो सोए नहीं थे सारी रात। हो सकता है, पिता के कमरे में किवाड़ की संध से आँखें लगाए बेठे रहे हों अपनी माँ के साथ।

बैठक में अखबारों का पुलिन्दा था। हरेक के मुखपृष्ठ पर उन्हीं की खबर थी। अवसाद-बोध फिर जागने लगा। लेकिन हर अखबार पढ़ा उन्होंने। उन्हें विस्मय था कि घटना स्थल पर किसी भी अखबार का नुमाइंदा न होने के बावजूद सारी घटना केसे ज्यों की त्यों छप गई।
बुझे मन से दिनचर्या आरंभ करने के पहले अपने फोन का रिसीवर उठा कर रख दिया उन्होंने फिर मोबाइल का स्विच आफ किया।

तब चार बजे होंगे। बाहर सूरज ढल रहा था कि उनके बैठक कक्ष में डिप्टीकलेक्टर मिश्राजी ने तीन-चार दीगर विभागों के अफसरों के साथ प्रवेश किया। वे अनमने हो उठे। नजर जमीन पर चिपक गई।
‘‘आपके अभिनंदन का जलसा है बजाज साहब। इसी के लिए आपको दावत देने आए हैं हम सब।’’ मिश्राजी ने अप्रत्याशित बात कही।
‘‘कैसा अभिनंदन’’ उनका गला सूख रहा था।
आफीसर ऐसोसिएशन एक खास जलसा कर रही है आज, जिसमें आप जैसे जांबाज अफसर को सम्मानित करने का निर्णय लिया गया है। जान लगा कर ही तो आपने अपनी डयूटी निभाई। बहुत बहादुर व्यक्ति हैं आप। आपने अपने पद और गरिमा का पूरा ख्याल रखा।’’ एक दूसरा अफसर कह रहा था। याद आया वह संभवतः मछली विभाग का जिलाधिकारी था।
‘‘उन्होंने तो मेरी बेइज्ज्ती’’
‘’ऐतराजी माफ हो बजाज साहब! इसे बेइज्जती कौन कहेगा? हमारी फौज का कोई अफसर दुश्मनों के हाथ पड़ जाए और दुश्मन उसके साथ बुरा सुलूक करें तो उसे आप बेइज्जती कहेंगे! आप कम नहीं हैं उन जांबाज सिपाहियों से। आपको सलाम है हम सबका’’ रोजगार अफसर खान दृढ़ता पूर्वक उनकी हौसला अफजाई कर रहा था।
‘’हाँ- बजाज,’’ मिश्रा साहब ने खान का समर्थन किया, ‘हम सब उन उचक्के नेताओं और अपराधी राजनीतिज्ञों की घोर निंदा करते हैं।’’
‘’आपको आना पड़ेगा बजाज साहब!’’ कहते हुए वे सब उठ गए।

अनिच्छा के बावजूद जलसे में जाना पड़ा बजाज साहब को और यह देखकर तो ताज्जुब में पड़ गऐ कि वहाँ भी भारी संख्या में पुलिस बल तैनात था। बिना किसी तामझाम और माइक स्पीकर वाले इस कार्यक्रम में सिर्फ दर्जन भर प्रोफेसर, चार-पाँच वकील और पच्चीस तीस की संख्या में दीगर विभागों के अफसर हाजिर थे। वहाँ मौजूद ज्यादातर लोग बोले और सबने बजाज साहब की तुलना सरहद पर डटे फौजी अफसर से की। सबके भाषण का आशय यही था कि वे सब ऐसे कृत्यों की निंदा करते हैं।

आखिर में कलेक्टर ने अपने हाथों से शॉल ओढ़ाकर उनका अभिनंदन किया। लेकिन ताज्जुब कि अगले दिन के अखबार में कहीं भी अफसरों के उस जलसे का जिक्र नहीं। उल्टे ‘हल्ला’ आंदोलन में निहत्थे किसानों पर लाठी चलवाने वाले तहसीलदार बजाज और एस. डी.ओ.पी. सिंह की बर्खास्तगी की मांग को लेकर कलेक्टर के यहाँ ’हल्ला’ करने की बालकिसन की धमकी जरूर छपी थी हर अखबार में।

अपने देश के मीडिया के इस व्यवहार पर फिर ताज्जुब हुआ उन्हें। जल्द से जल्द यह जिला छोड़ देने के कल रात लिए गए अपने निर्णय पर पत्नी से एक बार फिर सहमत हुए वे।

बाहर गगनभेदी नारे थे, ‘बजाज साहबऽ जिंदाबाद!’
‘जिंदाबाद जिंदाबाद!’
सहज ही यक़ीन नहीं कानों पर खिड़की से झाँका तो पाया कि जिले के तमाम विभागों के चतुर्थश्रेणी कर्मचारियों का एक बड़ा सा हुजूम हाजिर है उनके क्वार्टर के सामने।
‘‘साहबऽ!. बजाज-साहबऽ!’ तहसील का माल जमादार तोरनसिंह उन्हें पूरे आदर से पुकार रहा था।
क्वार्टर पर तैनात पुलिस का दारोगा उस समूह को नियंत्रित कर रहा था जबकि वे लोग बजाज साहब से मिलने की गुजारिश कर रहे थे।
वे बाहर आ गए और उदास मुसकान के साथ बोले, ‘‘क्यों तोरन! क्या बात है? इन सब लोगों को क्यों इकट्ठा कर रखा है तुमने?’’
‘‘साहब, उन गुण्डों ने आपकी नहीं, हम सब कर्मचारियों की बेइज्जती की है हम लोग आपके साथ हुए सलूक का बदला लेने जा रहे हैं।’’ तोरन तैश में था।

बजाज साहब चुप खड़े ताक रहे थे। तोरन कहता जा रहा था, ‘‘उनकी करनी का मजा चखा देंगे हम-उन्हें। आप खुद का बनाया कोई कायदा नहीं पाल रहे थे, सरकार के हुकुम का पालन कर रहे थे! हमने चूड़ियाँ नहीं पहनी हैं साहब। उस दिन उनका हल्ला था आज हमारा हल्ला है।’’
वह आगे बढ़ा और उनके पाँव छूकर लोट गया।

वे लोग अपने आकाशभेदी नारों के साथ वापस जा रहे थे और हक्के-बक्के खड़े बजाज साहब आंखों में आंसू भरे उन सबकी तनी पीठ और उछलते हाथ देख रहे थे, जिनको रोज रोज बाबू और अफसरों से हजार झिड़कियाँ और लाखों ताने मिलते हैं। दृश्य उनकी आँखों में देर तक उतराता रहा।

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३ मई २०१०

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