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सो, लग रहा था कि अबकी हल्ला में सारा लगान बेबाँक हो जायगा उनकी तहसील का। एक काबिल और कामयाब अफसर कहलाने की छोटी सी महत्त्वाकांक्षा थी यह उनकी कि सारा माजरा ही बिगड़ गया। जिस दिन से सरकार ने लगान वसूली में सख्ती अख्तियार करने की ठानी उसी दिन से सूबे के कुलुक वर्ग के पेट में दर्द पैदा हो गया। कुलुक यानी कि वे अमीरजादे किसान, जिन्हे विरासत में हजारों एकड़ खेती मिली, गाँव में हुकूमत चलाने के खानदानी पद मिले और जरूरत पड़ने पर सौ-पचास लट्ठ और बंदूक उठाने वाले पालतू चमचे भी। उन सबने एकराय हो कर तय कर लिया कि सरकार को एक धेला नहीं देंगे हम। और उन्होंने अपनी बंदूक की नाल धर दी उस गरीब किसान के कंधे पर जो अपने दो बैलों के सहारे पूरे परिवार का भरण-पोषण कर रहा था। एक उम्दा मौका हाथ लग गया बैठे ठाले उन सब की रहनुमाई का अमीरज़ादों को।

आसपास दस-पाँच बन्दूकें, नीचे नई नकोर स्कारपियो और बदन पर धवल हंसों सा परिधान धारे वे किसानों को एक स्वर में समझाने लगे कि सरकारी खजाने में एक नया पैसा भी जमा मत करो। देखें क्या करती है सरकार! लगे हाथ यह फतवा भी कि अँग्रेजों से एक कदम आगे ही है यह पार्टी। किसान विरोधी। गाँव विरोधी। गरीब विरोधी।

ज्यों ज्यों नेता बनने को आकुल ऐसे बड़े किसान सक्रिय हुए, सूबे की सरकार के मुखिया इसे प्रतिष्ठा का मुद्दा बताते चले गए। वे प्रायः पत्रकारों से कहते- आखिर कया चाहते हैं ये नकली किसान! क्यों विरोध कर रहे हैं ये बिना बात हमारा। किससे छिपा है कि सरकार का खजाना खाली पड़ा है, न रोड बनाने को पैसा है न बिजली खरीदने को चार कौड़ी। अभी साल भर पहले तक जो पार्टी सरकार पर काबिज थी उसने सारा खजाना लुटा दिया। अपनो को ऐशो-आराम मुहैया कराया और गरीब किसानों को थोथे आष्वासन। प्रदेश में कानून नाम की चीज नही बची थी उनके जमाने में, तब ये किसानों के हमदर्द चुप बैठे तमाशा देख रहे थे।

प्रदेश का मुखिया बोलता था- हम ये सिद्ध करना चाहते हैं कि अभी भी हमारे सूबे में कानून का राज है, गुण्डों का नहीं। कानून सबसे ऊपर होता है। जैसे जैसे बड़े काश्तकार लामबंद हुए, वैसे वैसे सरकार सख्त होती गई। हुक्म था कि पूरी तैयारी करके रखो, जो किसान दी गई मियाद में तौजी जमा नहीं कराऐंगे उनके घर की कुर्की करना है। पहले चल संपत्ति यानी कि बैल जोड़ी, गाय-भैंस, मोटरसाइकिल और गहनेगुरिया तक जो भी मिले जप्त करनाहै, इसके बाद नजर जमाओ अचल संपत्ति पर, खेत-खलिहान और गोंड़ों से लेकर मकान-जायदाद तक कुर्क कर लेना है।

और यह सुना तो जैसे आग लग गई। उनकी तहसील में उगे नए किसानों के उस कुलक संगठन ने कह दिया कि जिस दिन से सरकार लगान वसूली का अभियन चलाना चाहती है उसी दिन से किसान अपना हल्ला अभियान आरंभ कर देंगे।
‘हल्ला’ एकदम नया लफ्ज था सरकारी कारिंदों के लिए। अब तक प्रदर्शन, धरना, हड़ताल और अनशन तो सुना था लेकिन हल्ला क्या है? सब सहम गए थे। तब हिन्दी के बुढ़ियाते प्रोफेसरों और दीमक खाए शब्दकोशों में इस शब्द के अर्थ खोजे जाने लगे, लेकिन जो अर्थ किताब में मिलता उससे मौजूदा हालात का कोई साम्य न देख परेशान हो चले थे सब। नीचे से ऊपर तक सबने सोचा और सरकारी निज़ाम की आमफहम आदत के चलते शुतरमुर्ग की तरह जमीन में गर्दन गाड़कर लेट गए सब।

पटवारी, पटेल और कोटवारों से नई नई खबरें मिल रही थीं। हमेशा की तरह बंदूकधारियों से घिरे और ठाठ से जीप में फर्राटे मारते बड़े काश्तकार इन दिनों पाँव पैदल गाँव गाँव घूम रहे हैं, रिश्तेदारों नातेदारों से सौगन्ध धराई जा रही हैं, ब्याह-सगाई और पूजा-महूरत के काम स्थगित कर दिए सबने। आन्दोलन के वास्ते किसानों को खद्दर के कुर्ता-धोती बाँटे जा रहे हैं। जो किसान मनाने से नहीं मान रहे उन्हें धमकियाँ मिल रहीं है। उस दिन तो होश ही गुम हो गए बजाज साहब के जिस दिन उन्होंने यह सुना कि हर गाँव में दो-दो ट्राली भरके नई लाठियाँ पहुँचाई गई हैं। फिर यह भी कि कुछ खास लोग बाकायदा लाठी चलाने का प्रशिक्षण देते फिर रहे हैं गाँव गाँव। घबरा ही उठे बजाज साहब।

तहसीलदार होने के बावजूद वे अपने आपको आज भी किसान का बेटा मानते हैं। किसानों से बेहद प्यार है उन्हें । जिस गाँव जाते हैं सरकारी योजनाओं की तमाम जानकारियों से वाकिफ कराते हें वे हर आदमी को। उन्हें पता है कि जो किसान उनके पास अपने खेत के मुकदमे के सिलसिले में वकील और तहसील के बाबू के पास रिरिया रहा है उसने यहाँ आते वक्त अपनी माँ या पत्नी के पाँव के आँवले या हाथ के कंगन गिरवी रखे हैं। साथ के सारे अफसर उन्हें सनकी और सिरफिरा कहते हैं और वे किसानों का एक भी पैसा छूने से काँप जाते हैं।

कलेक्टर के बंगले पर सुबह आठ बजे ही जा पहुँचे थे वे और उन्होंने मातहतों से प्राप्त अपनी तहसील के ताजा हालात की जानकारी विस्तार से सुनाई तो कलेक्टर गंभीर हो गए थे। उसी गंभीरता का परिणाम था कि तहसील कार्यालय के चारों ओर पुलिस आ डटी।

बजाज साहब सुबह दस बजे अपने इजलास मे आए तो हैरान रहे गऐ कि डर के मारे उनका एक भी चपरासी और बाबू नही आया था, सिर्फ माल जमादार तोरनसिंह अपने कमरे में पुलिस सिपाही के साथ बैठा अपने रजिस्टरों में इंद्राज कर रहा था। तौजी वसूली अभियान का पहला दिन होने के नाते आज तो सबको आना लाजिमी था। क्षोभ के साथ उन्होंने अलमारी खोली और लगान वसूली के रसीद कट्टे उठाकर अपनी टेबिल पर रखे। पहली रसीद में नया कार्बन फँसाया और एक खुला हुआ पेन उसके ऊपर रख दिया। आते वक्त उन्होंने देखा कि पुलिस ने सुरक्षा के चार घेरे बनाए हैं उनके इजलास के चहुँ ओर-दस मीटर, पचास, सौ और दो सौ मीटर पर। चप्पे चप्पे पर पुलिस के सिपाही तैनात थे। सिर पर हेलमेट, बाएँ हाथ में ढाल नुमा बाँस की जाली और दाएँ हाथ में मजबूत पुलिसया लाठी लिये था हरेक पुलिसमेन।

इंतजाम देख कर क्षण भर को निश्चिंत हुए, मगर भीतर अपने कमरे में अकेले बैठते ही डर ने आ घेरा, सो क्षण क्षण में चौंक उठते थे वे। बार बार सोचते कि खेती के लिए दिये जाने वाले तमाम कर्जों और ढेर सारी सहूलियतों का लाभ उठाने के बाद भी आखिर क्या चाहते हैं ये बड़े किसान जिसके वास्ते छोटे काश्तकारों को भड़का कर गुमराह करना चाहते हैं! सहसा उन्हें याद आया कि पिछले दिनों किसानों के बीच बाँटे गए एक पर्चे में एक मांग तेजी से उठाई गई थी कि किसानों का सारा लगान माफ कर दिया जाय, तो बजाज साहब ने अपने दफतर में बकाया की सूची पर सरसरी नजर फेरी थी और एक मिनट में ही वे जान गए थे कि लाखों रुपए की बकाया इन्हीं बड़े किसानों की है, छोटे तो हद से हद हजार रुपए तक के बकायादार हैं, सो सारा लगान माफ कराना चाहते हैं ये कुलक किसान। एक ही तीर से कितने सारे फायदे दिख रहे हैं इनको।

शोरगुल हुआ तो उनका ध्यान फिर भंग हुआ। अनेक लोगो के कंठ से गूँजते नारे सुने उन्होंने। कौतूहल हुआ तो इजलास के बाहर आए और लम्बे पड़े गलियारे में थोड़ा आगे बढ़कर तहसील कार्यालय के अहाते के मुख्य दरवाजे की ओर देखा। पुलिस की खाकी वर्दी के उस पार ट्रालियों पर ट्रालियाँ आती जा रही थीं और उनमें भकभकाते कुर्ता-धोती धारी तमाम लोग उतर रहे थे, जिनके हाथों में लाठियाँ लहरा रहीं थीं। पुलिस के जवान उनको पीछे हटा रहे थे और वे थे कि भीतर आने को टूटे पड़ रहे थे। तभी दूसरी ओर कोलाहल हुआ तो उस तरफ ध्यान गया, वहाँ भी यही दृश्य था। फिर तो चारों तरफ यही नजारा, ऐसा ही हाल। क्षण भर को हिल गए बजाज साहब भीतर से। लग रहा था कि मौजूद पुलिस बल अक्षम साबित होगा इस जन सैलाब के सामने। और कुछ देर बाद ही एस.डी.ओ.पी. सिंह साहब को वायरलैस से कंट्रोल रूम को स्थिति गंभीर होने की सूचना देते सुना उन्होंने।

सहसा सामने का पुलिस घेरा टूटता सा लगा उन्हें। एस.डी.ओ.पी. साहब उधर ही दौड़े। बजाज साहब ने भी ध्यान दिया उधर। हाँ- कुछ लोग इस तरफ आते दिख तो रहे हैं! उनकी घबराहट बढ़ी।
दिल को किसी तरह काबू में रख उन्होंने अभ्यागतों पर नजर गड़ाई तो पाया कि पुलिस वालों के घेरे में आठ-दस निहत्थे किसान उनके इजलास की ओर बढ़ते चले आ रहे हैं। इस बात से सहसा धीरज बँधा उन्हें कि उनके आगे आगे एस.डी.ओ.पी. सिंह साहब भी थे। वे मुड़े और अपने इजलास में घुस आए फिर अपनी सीट पर जा बैठे। चैन न मिला तो दो मिनट में ही वहाँ से उठे और इजलास के बीचो बीच अपने हाथ पीछे बाँधकर टहलने लगे। आवाज से सुनाई पड़ा कि वह जत्था अब इनके इजलास के गलियारे में था।

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