'क' ने 'ख'
की नाजुक नस दबा दी थी। उसके मन में पुरस्कार पाने की दबी हुई
इच्छा नाली के कीड़े के समान सचमुच कुलबुलाने लगी थी। लिखने
पढ़ने वाले लोगों में यश की लसलसी लिप्सा तो होती ही है-।
हालॉकि 'ख' जान चुका था कि यह झूठ बोल रहा है। फिर भी दोस्त के
झूठ को सच मानकर 'ख' मन ही मन खुश हो लेता। और यह भी कि शायद
कहीं इसकी बात में कुछ सच्चाई हो। 'क' ने 'ख' की एक पाँडुलिपि
भी तैयार करख फिर 'क' ने किसी उचित अवसर की तलाश में वह
पाँडुलिपि दबाकर रखी दी। जब कभी 'ख' इस बारे पूछता तो इधर उधर
के राग अलाप कर 'क' उसे टाल जाता। सहपाठी की भावनाऑ से खेलने
का यह दूसरा मौका था।
कुछ दिन बाद 'ख' ने अपने एक दूसरे फ्लैट में श्रीमान 'क' के
रहने की व्यवस्था कर दी थी। श्रीमान 'क' ने कहा-
“आपका फ्लैट तो बहुत सुन्दर है। बस किराया बताइये?..”
“ आपस में क्या किराया -खाली पड़ा है आपका काम चल जाएगा। मकान
की साफ-सफाई होती रहेगी। “
“फिर भी बिजली –पानी का बिल तो मैं भरता ही रहूँगा।... भोजन की
समस्या रहेगी।“
“यहाँ कई सस्ते ढाबे हैं। ...खाना खाने लायक होता है। ..नही तो
अपना घर है ही। “
“ चलो ठीक है..”
कोई दस दिन बाद श्रीमती 'क' अपने साथ छोटू को ले आयीं। पता चला
कि वह श्रीमान 'क' के किसी सहपाठी का बेटा था। बचपन में छोटू
के पिता की मृत्यु हो गयी थी। वह गाँव में पढ़ रहा था तो उसकी
पढ़ायी छुड़वाकर श्रीमती 'क' छोटू को दिल्ली ले आयीं। बारह
वर्ष का छोटू अकेला श्रीमान 'क' के साथ रहने लगा। अक्सर मालिक
के आफिस चले जाने पर छोटू श्रीमान 'ख' के घर आ जाता और एक एक
चीज बहुत कायदे से देखता। हर एक बात बहुत ध्यान से सुनता ,याद
रखता मुस्कराता और अपने मालिक की सेवा करता। उसका काम था
श्रीमान 'क' के पाँव दबाना, उनके कपड़े धोना, उनके कागजों को
सहेजना ,खाना बनाना तथा साफ सफाई आदि। छोटू कूद-कूद कर सारे
काम करता। दिल्ली में उसे बहुत मजा भी आने लगा था। 'ख' हैरान
था अपने मित्र के इस सामंती आचरण और जनवादी प्रगतिशील व्याकरण
पर। एक दिन श्रीमान 'ख' ने कहा-
‘छोटू का नाम लिखवा दिया जाए? ..कुछ पढ़ लिख जाएगा। यहाँ के
सरकारी स्कूल बहुत अच्छे हैं।“
“अब ये कुछ नही पढेगा... गाँव की पाठशाला से आठवी का
सार्टिफिकेट बनवा देंगे। बारह का हो गया है कुछ और उम्र हो जाए
बस। ..हमारे साथ रहकर बहुत कुछ तो सीख रहा है। “
सचमुच छोटू था बहुत चतुर। श्रीमान 'ख' के घर की एक एक खबर वह
अपने मालिक तक पहुँचाता और उनके संदेश लाता। दोनो सहपाठियों
में दूरियाँ बढने लगी थीं। श्रीमान 'क' के लिए मित्र एक शब्द
था। मित्रता जैसी भावना का कोई अर्थ नही रह गया है, श्रीमती
'ख' को जब यह मालूम हुआ तो उन्होने छोटू को समझाया-
“तुम बच्चे हो ,बड़ों की बातों को इधर से उधर करना ठीक नही
होता। जो कुछ कहना सुनना है वो दोनो दोस्त आपस में बात कर
लेंगें।“
फिर एक दिन छोटू एक चिट्ठी लाया जिसमें लिखा था-
“भाई, मेरी कविता यात्रा पर एक लंबा लेख आप लिख दें। किसी
...ग्रंथावली मे छपना है। ...पीयूष जी माँग रहे हैं।“
ख ने चिट्ठी लेकर छोटू को समझाया कि वह अपने मालिक से कहे कि
वो सीधे बात कर लें। तीन चार दिन बाद फिर छोटू मालिक का वही
फरमान लेकर आगया। अब वह अपनी उम्र से बहुत बड़ा लग रहा था।
एकदम राजा के रेन्चो की तरह। श्रीमान 'ख' ने फिर समझाया-
“कुछ किताबें हों, कुछ छपी हुई कवितायें हों तभी लिखा जा सकता
है ऐसे हवा में लेख नही लिखे जाते।–जा कर कह दो अपने मालिक
से।“
छोटू चला गया। लेकिन 'ख' को समझ में आ गया था कि अब उसका सामना
किसी शातिर आदमी से है जो किसी बीजगणित के व्यूह में उसे ऊलझा
रहा है। 'ख' के घर में रहते हुए श्रीमान 'क' को ग्यारह महीने
हो गए थे। उसने दिल्ली में अन्य किसी से यह कभी नही बताया कि
वह अपने कवि मित्र के घर पर रह रहा है श्रीमान 'ग' से भी नही।
श्रीमती 'ख' और उनके बच्चों का दबाव श्रीमान 'ख' पर बढ गया था
कि ऐसे बेहद स्वार्थी व्यक्ति से जितनी जल्दी हो सके निजात
लें।
और फिर एक दिन कठोर मन से श्रीमान 'ख' ने अपने दोस्त से मकान
खाली करने के लिए कहा तो रहे सहे संबंध जाते रहे। दोस्त को घर
में ठहराते समय श्रीमान 'ख' ने कभी ऐसा नही सोचा था। कुछ दिन
बाद श्रीमान 'क', श्रीमती 'क' और छोटू सब किसी तीसरे के पास
मकान की चाभी फेंक कर भाग गए। बिजली पानी का बिल भी नही
चुकाया। खैर फिर कभी दुबारा श्रीमान 'क' उस मुहल्ले में नजर
नही आए। ऐसे अमानवीय भावशून्य व्यक्ति की पत्नी भी बिल्कुल
गीली लकड़ी के छीलन जैसी थी जिसमे संवेदना की कोई चिनगारी साँस
नही ले सकती थी।
श्रीमती 'ख' को सबसे अधिक राहत मिली थी। उसके मन का तनाव छँट
गया था। परंतु प्रेम और घृणा की यह कथा यहीं रुकी नही वह चल
रही है बदस्तूर कहीं न कहीं किन्ही 'क'-'ख'-'ग' के बीच। फिर भी
संवेदना की गीलीकाठ किसी न किसी तरफ सुलग रही है अविश्वसनीय पर
विश्वास करते हुए हर समय में जीते रहे हैं संवेदनशील लोग।
श्रीमती 'ख'
ने पति को समझाया-“ जीवन बीजगणित का सवाल है- हाँ, सभी
फ्रीलांसर एक जैसे नही होते।“ |