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घाट घाट का
पानी पीकर श्रीमान 'क' दिल्ली पधारे। यहाँ किसी साहित्य पीठ के
अधीश्वर ने उन्हे नौकरी के लिए बुलाया था। कुछ वैसे ही जैसे
फिल्म शोले में गब्बर ने साँभा को काम दिया होगा। फिर साँभा ने
कालिया-को। सब तरह योग्य होने पर भी पचास साल की उम्र तक उन्हे
नौकरी नही मिली पर अपनी कुंठित मानसिकता से बाप को गरियाते,
गुरुजनों को धिक्कारते, सगे संबन्धियों को पुलिस से पिटवाते,
भाई की खड़ी फसल में आग लगवाते, परिचितों की कुंडली
बाँचते-दोस्तों को धोखा देते -हुए वे प्रगतिशीलता के इस मकाम
तक पहुँच आए थे।
असल में वो किसी के हो नही पाए अपनी बीबी के भी नही।
जो किसी
लायक नही बन पाता वह आजकल अपने आप को फ्रीलांसर कहने लगता है।
कमरे में कभी नामवर सिंह कभी बाल ठाकरे कभी राजेन्द्र यादव की
तस्वीर लगाकर छुटभैयों पर धाक जमाते-कहते तीनो महान संपादक रहे
हैं। कुछ फ्रीलांसर बड़े महत्त्व के काम कर रहे हैं। सचमुच
फ्रीलांसर होना बहुत कठिन काम है। जैसे जैसे हिन्दी का चरित्र
अन्तर्राष्ट्रीय होता गया हिन्दी में फ्रीलांस करने वाले लोगो
की संख्या बढी है।
श्रीमान 'क' ने भी अपनी छवि बनायी। थोड़ी सी दाढी-थोड़ा पेट
बढाया। कद के छोटे होते हुए भी चौंकाने वाले ऊटपटाँग जुमलों के
सहारे उनकी उछल कूद जारी थी। |