खुद ही अपने
मित्र के नाम से एक किताब का संपादन कर डाला, उसमें दो तीन
मित्रों और परिचितों के नाम से अपनी रचनाधर्मिता पर खुद ही लेख
लिख लिए, और खुद को नवगीतकार-जनगीतकार आदि-आदि साबित कर डाला।
पैसा किसी और मित्र का लगना था। अब वह चल निकले थे। जैसे साँभा
ने कालिया को अपने गुर सिखा दिये थे -तो उसका घोड़ा तेज भागने
लगा था। संगम तट से दिल्ली घाट की दूरी अब खत्म हो गयी थी। अब
श्रीमान 'क' लालकिला फतह करने के इरादे से दिल्ली आगए।
फ्रीलांसर अक्सर वह चतुर सुजान होता है- एकदम घनानंद कवि की
प्रेमिका की तरह- मन लेहु पै देहु छटाक नहीं- कुछ फ्रीलांसर तो
बस लेना ही जानते हैं वायदा पूरा करना उनकी नियति नही होती।
अपने वायदे तोड़ते हुए कभी भी वे झट से कह देते हैं
“-क्षमा करें ,मैं समय नही निकाल नही पा रहा हूँ। –“
और मुक्तिबोध के ब्रह्मराक्षस की तरह अजीबो-गरीब मुद्राएँ
बनाकर पतली गली निकल लेंगे। वे यह कभी नही बतायेंगे कि उन्हे
किसी अन्य काम के और अच्छे दाम मिल रहे हैं-मसलन किसी नेता या
अधिकारी के लिए अवसरवादी भाषण लिखना है, कहीं संचालन ..आदि
करना है।
श्रीमान 'क' जब मुंबई में थे तो वहाँ अपने किसी गाँव देस वाले
को हजारों का चूना लगाकर आए थे। दिल्ली में अब किसी मित्र जैसे
व्यक्ति की तलाश उन्हे थी। अपना वही पुराना सहपाठी श्रीमान 'ख'
उन्हे याद आया जो कोई तीस साल पहले उनके साथ पढता था। नौकरी के
चक्कर में वह तभी दिल्ली आ गया था। उसे फोन किया –
“मित्र, आपकी शुभकामनाएँ सफल हुईं। आखिरकार मुझे श्रीमान 'ग'
ने नौकरी के लिए बुला ही लिया।“
'ख' सचमुच बहुत खुश हुआ कि उसका
एक खास दोस्त दिल्ली आरहा है-सहपाठी और हमवतन। उसे श्रीमान 'क'
की तमाम खूबियों के बारे में अन्दाजा भी नही था। तीस सालों में
न जाने क्या क्या बदल गया था दोनो सहपाठियों में- कहा नही जा
सकता। इस बीच शायद छठे छमाहे होने वाली क्षणिक मुलाकातों को
श्रीमान 'ख' ने दोस्ती समझ लिया था, इसी गलतफहमी के चलते उसने
श्रीमान 'क' के लिए घर के दरवाजे खोल दिये। हालाँकि मुंबई वाली
बहन ने श्रीमान 'क' को घर पर ठहराने से पहले भाई को चेतावनी दी
थी – श्रीमान 'क' का पुराना रिकार्ड जानते हुए भी 'ख' ने जोखिम
उठा लिया था। दोस्ती के नाम पर धोखा खाने के लिए एकदम तैयार।
यहाँ तक कि उसने यह भी नही सोचा कि 'क' उसका व्यक्तिगत सहपाठी
है उसके परिवार का या उसके बच्चों का कोई रिश्तेदार नही है।
पत्नी या बच्चों से राय लिए बिना ही 'ख' ने दोस्त को घर में
जगह दे दी। घर क्या डेढ़ कमरे का छोटा फ्लैट था। खुद जमीन पर
लेटकर दोस्त को चारपायी दी। पत्नी से कहा
“ जब मेरे कपड़े मशीन मे डालना तब मेरे दोस्त के भी कपड़े धो
देना।“
श्रीमान 'ख' की पत्नी सीधी थी -गाँव के संस्कार थे वो चुपचाप
सब करती गयी। श्रीमान 'ख' सुबह का नाश्ता दोस्त के साथ करते और
शाम के खाने पर रोज दोस्त का इंतजार करते। उसके दफ्तर से आजाने
के बाद साथ ही खाना खाते। महीनों तक यह क्रम चलता रहा। 'क'
डायबिटिक थे तो उनके लिये अलग फीकी चाय बनने लगी थी, 'ख' ने
दोस्त की देखा देखी और पत्नी को फीकी –मीठी के झंझट से बचाने
के लिए अब फीकी चाय ही पीनी शुरू कर दी थी। दोनो साथ साथ पार्क
में टहलने जाते। दोनो जवानी के दिनों की तमाम पुरानी बातें,
युनिवर्सिटी की कक्षाएँ, उस समय की रहस्य रोमांच वाली न जाने
कितनी बेहूदा बेसबब बातों की चर्चा करते खुलकर ठठाकर हॅसते। ख-
कई बार पत्नी और बच्चों को तिरस्कृत करके अपने दोस्त की दोस्ती
में डूब जाता। उसे लगता था कि उसके दोस्त में और कुछ हो चाहे न
हो लेकिन कुछ गाँव की गंध तो है, पर वह दोस्त के खिलाफ किसी
बात पर यकीन नही करना चाहता था। यह भी नही कि श्रीमान 'क' को
फ्री की आदत पड़ गयी है और वह परजीवी बन गया है, जोंक या उससे
भी कुछ अलग क्योंकि जोंक तो नमक छिड़कने पर सारा पिया हुआ खून
सामने ही उगल देता है। उसका स्वभाव तो किसी अजीब प्राणी जैसा
था जो सभी प्रकार के नमक को हजम कर सकता था। उसकी हॅसी में
उपहास की दुर्गंध थी। वह महाजन के मुनीम की तरह अति विनम्र
दिखाई देता - “आदौ नम्र: पुन:नम्र: कार्यकाले तु निष्ठुर:” ऐसी
सामंती विनम्रता घातक थी। 'ख' भी कविताएँ लिखता था। कुछ भावुक
था।
'क' शातिर था, उसे न जाने क्या-क्या, कैसे-कैसे, भाव-बेभाव
लिखना ही पड़ता था। कभी कल्यान सिंह तो कभी मुलायम सिंह के
भाषणों के प्रूफ, कभी किसी आफीसर की बीबी के नाम से अखबार में
खाना-खजाना का कॉलम, कभी किसी प्रकाशक के लिए कुंजी टाइप
किताब, एक बार उसने प्रेस भी लगाया और तमाम कवियों के पैसे तथा
पाँडुलिपियों को हजम कर गया। उसके बाद अचानक वह कविताएँ लिखने
लगा। मौका मिला तो शिवसेना के किसी अखबार में कुछ लिखने लगा,
फिर मौका मिला तो किसी दूसरे के नाम से किसी सीरियल के
अड़ंतड़ानी डायलाँग लिखने का अभ्यास हो गया। भाव निरपेक्ष होने
की स्थिति यहाँ तक आगयी कि बिना किसी किताब के ही वह चार बार
एक सरकारी संस्थान से अपनी पुस्तकों पर कृति सम्मान ले चुका
था। उसे बस पैसा चाहिये था, सम्मान नही। अधिकारियों के जूते
चाटकर वह सफल हुआ अधिकारियों और उनकी बीबियों की रद्दी किताबों
पर चटख समीक्षाएँ लिखकर उसने नाम कमाया था। अब स्नेह- संवेदना
का उसके जीवन में कोई अर्थ नही रह गया था। वह फ्रीलांसर था।
जिस संस्थान से उसे पुरस्कार मिले अब वह उसी संस्थान के
पुरस्कारों का निर्णायक भी था। यह सब उसके ऐसे ही गैरसाहित्यिक
प्रयत्नों का फल था। उसने समीकरण हल करना सीख लिया था।
दिल्ली आते ही उसने अपने सहपाठी का आई.डी. लेकर मोबाइल लिया।
सहपाठी का पता ही उसने अपना पता बना लिया। विजिटिंग कार्ड
छपवाया और चल पड़ी उसकी फ्री की दूकान। श्रीमान 'ख' की पत्नी
और बच्चे अब उसकी डाक भी संभालने लगे थे। अक्सर श्रीमती 'क'
लखनऊ से श्रीमान 'क' का हालचाल लेने के लिए आ जातीं कभी कभार
तो वे बच्चों को भी पापा से मिलवाने ले आतीं। अवांछित
व्यक्तियों को बेवक्त का मेहमान जैसा देखकर 'ख' की पत्नी और
बच्चे चिढ़ते कुढ़ते किन्तु पिता की दोस्ती –शर्म और लिहाज में
कुछ कह नहीं पाते। फिर एक दिन श्रीमती 'ख' ने अपने इमोशनल फूल
पति से कहा-
“ ऐसा कब तक चलेगा जी। मै कब तक आपके दोस्त की गुलामी करूँगी।
और क्यों..करूँ..?”
'क' ने एक दिन तो कमाल ही कर दिया- श्रीमती 'ख' से बोले- “इस
धरती पर 'ख' जैसा कोई दूसरा मेरा मित्र नही है। आप मेरे मित्र
की पत्नी हैं।.. देश भर में सैकड़ों पत्रिकाएँ हैं मेरे सबसे
संबंध हैं आप कुछ भी लिखिये मै छपवा दूँगा।
-नही तो 'ख' से कहिये कि वही आपके नाम से लिखे। मै अपनी बीबी
के नाम से लिखता रहा हूँ।“
श्रीमती 'ख' ने उसकी बात सच तो नही मानी पर आजमाने के लिए कुछ
कविताएँ लिखीं। पति से संशोधन भी कराया और 'क' को छपवाने के
लिए दे दिया। वह जान गयी थी कि श्रीमान 'क' नम्बर एक के गपोड़ी
हैं- सो सचमुच उन कविताऒं का कुछ नही हुआ। हाँ उस दिन के बाद
से श्रीमान 'क' ने उसे लिखने का सुझाव देना बंद कर दिया। किसी
दिन फिर उसने श्रीमान 'ख' से कहा- “भाई,तुम्हारी दस किताबें छप
चुकी हैं अब तक कोई पुरस्कार नही मिला। मैं तो निर्णायक समिति
में हूँ। इस बार मौका नही चूकना है।“
“मुझे क्या पुरस्कार मिलेगा। मैने तो कभी पुरस्कार के लिए
पुस्तक ही नही भेजी।...अब तो आप जैसे मित्रों का ही सहारा है।“
“ पुस्तक भेजने से पुरस्कार नही मिलता। बस इस बार आपका ही नाम
होगा चिंता न करो। पुरस्कार लिया जाता है-वह मिलता नही है।. ” |