ब्याह को
पाँच साल हो गए पर जसोदा अकेली की अकेली रही। कभी-कभी मन करता
इस अपाहिज ज़िंदगी से मर जाना अच्छा हैं। दिन होता तो किसी न
किसी बहाने लोग दस्तक देते रहते हैं। क्या चौधरी क्या कुंलार
क्या ब्राह्मण क्या कहार... सभी को लगता जसोदा को उसकी ज़रूरत
है। परंतु उसने आज तक किसी की तरफ़ आँख उठाकर नहीं देखा। ये
बात लखिया की समझ से परे हैं। जसोदा टेढ़ी-मेढ़ी सोच रही
थी, तभी कुत्ता भौंका जसोदा भाग कर दरवाजे पर गई, सरकंडों का
बना जाया (दरवाज़ा) उघाड़ कर देखने लगी थोड़ी ही दूर एक
लड़खड़ती मानव-आकृति गति में बढ़ी जा रही थी। ज़ोर से कुत्ते
को ठोकर मारी। मारकर वो कहने लगा, ''मादरचोद रस्ते में आता है
तेरी तो... साला रांड की तरह पंचात करता है...चल हट।''
गिरते-गिरते रह गया, जसोदा ने आवाज़ पहचान ली थी देवसी रबारी
था वो। सर्दी हो या गर्मी, देवसी दारू खींचने से बाज़ नहीं आता।
दिल से सच्चा आदमी है परंतु शराब ने साख पर पलीता मार दिया है।
कोई उसकी बात पर विश्वास नहीं करता। गाँवभर में तो देवसी
दारूड़िये के नाम से जाना जाता है।
जसोदा ने
सोचा था शायद लखिया आया होगा पर लखिये का कहीं पता न था। देवसी
की बात याद आई, मन में एक शब्द खटका रांड। जसोदा ने आज तक देवसी
को किसी औरत को गाली देते हुए नहीं सुना जब भी तो किसी को
पुकारता था तो कहता था, ''अरे सुनना था?'' आज रांड शब्द किसके
लिए पंचात शब्द याद आते ही जसोदा को रती याद आ गई। रती ही है
जो गाँव भर की औरतों को जमा कर रही हैं वो थोड़ी-सी पढ़ी लिखी
है जब से रामदीन मेघवाल उसे गाँव में लाया है। गाँव में एक नया
दौर शुरू हुआ है। बच्चों को पढ़ाने लिखाने पर ज़ोर देते हुए
कहती हैं, ''बच्चों का भविष्य सुधरेगा तो देश का भला होगा,
जाति और घर उससे उन्नत होंगे।'' उसी ने पहली बार लड़कियों को
स्कूल में भिजवाया और हेड मास्टर से झगड़ा करके ग़रीब बच्चों
की फीस माफ़ करवाई। ये बातें गाँव के चौधरियों को रास नहीं
आतीं। कोई औरत गाँव में पंचायत करे ये उनको पसंद नहीं आ रहा
था। अधुरे में पुरे गाँव की पंचायत में सरपंच की महिला आरक्षण
सीट आ गई थी तब से रती चौधरियों के लिए एक चुनौती थी। चौधरी
पंचायत को अपने आप रखना चाहते थे। रती उसे आज़ाद करवाना चाहती
थी।
जसोदा को
देसाई की बात समझ में नहीं आ रही थी पर रह-रह कर मन में एक
खटका उड़ता था। भौरों की मनहूस चीखे उसे और शंकित कर रही थी।
उसे लगने लगा था जैसे आज की रात कोई मनहूस बात होगी ज़रूर।
जसोदा जांया
बंद करके झोपड़ी में जाने को हुई ही थी कि किसी ने पुकारा,
''जसोदा जांचा खोल!'' आवाज़ लखिया की थी। लखिया को देखकर जसोदा
के प्राणों में प्राण आए तो तेज़ी से लपककर दरवाज़े की तरफ़
बढ़ी और दरवाज़ा खोल दिया। लखिये ने आव देखा न ताव सीधा झोपड़ी
के अंदर चला गया। जसोदा को लखिया की इस बात पर आश्चर्य हुआ।
ऐसा व्यवहार उसने पहले कभी किया न था। झोपड़ी में आकर देखा
लखिया बेसुध-सा पड़ा था। उसका शरीर पसीने से लथपथ हो रहा था।
जसोदा ने पानी का लोटा लखिया को देते हुए प्रश्न किया, ''कहाँ
था इतनी देर?'' लखिए ने आग्नेय दृष्टि से उसकी तरफ़ देखा और
दहाड़कर बोला, ''जहन्नुम में...'' जसोदा को लखिये की बात कुछ
अच्छी न लगी। ''ये भी कोई बात हुई एक तो आधी रात तक घर आने की
सुध नहीं है और ऊपर से तेवर दिखा रहा है।'' पर क्रोध को पीते
हुए बोली, ''क्या बात है? तबीयत ठीक नहीं हैं?'' ''रोटी परोस
दूँ?'' लखिया कुछ शांत हुआ धीरे से खटिया पर करवट बदलते हुए
बोला, ''नहीं भूख नहीं है अब सो जा।'' जसोदा ने देखा लखिया की
बंडी (बनियन) कुछ फट गई थी। जैसे किसी ने नाखुनों से फाड़ दी
हो।'' जसोदा का मन हुआ पूछे ये क्या हुआ पर ये सोचकर चुप हो गई
कि फिर वो चीखेगा और बेमतलब बखे़ड़ा खड़ा हो जाएगा।
झोपड़ी में
खामोशी छा गई लखिया बार-बार करवटें बदल रहा था। जसोदा आँख
उघाड़े सोने की कोशिश कर रही थी परंतु नींद है कि आने का नाम
नहीं ले रही थी। एक ही बात मन को खाए जा रही थी। लखिया की फटी
हुई बनियान किसी अनिष्ट की ओर ध्यान दिलवाती हैं। मन ही मन
चौधरियों को गाली देती हैं। सब दुष्ट इस सीधे-साधे आदमी से
न जाने क्या करवा दे। हे भगवान मेरे लखिया की रक्षा करना।
पैरों में पड़ी चादर धीरे से लखिया के ऊपर ओढ़ा दी।
घनी अंधियारी
रात का सन्नाटा चीर कर एक उल्लू चीखा, जसोदा का कलेजा दहल गया।
उठकर घडे से पानी भने को हुई ही थी कि बाहर से आवाज़ आई,
''लखिया, ए लखिया।'' आवाज़ नारायण की थी, रति का पति, पर
इतनी रात गए क्यों आया होगा। जसोदा को लगा जैसे अनिष्ट ने
दरवाज़े पर दस्तक दी हो,
''कौन है?'' जसोदा ने प्रश्न किया,
''मैं
नारायण, भाभी, लखिया है?''
''वो सो गया है। इत्ती रात गए कैसे
आना हुआ भइया?'' दालान में आते हुए जसोदा ने पूछा कड़ाके की
सर्दी में से शरीर में कपकपी छूट रही थी।
''भाभी। रती अब तक लौट कर नहीं आई है। कह कर गई थी शाम तक लौट
आऊँगी, इतनी देर कभी नहीं करती।''
''कहाँ गई थी?''
''ढाणियों में।''
''रुक गई होगी शायद।''
''नहीं ऐसा नहीं हो सकता।''
''मुझे दो दिन से बुखार है, ऐसे में उसे रुकना समझ में नहीं आ
रहा। लखिया को जगाओ हम कहीं ढूँढ़ आते हैं, देखो मोर कितने चीख
रहे हैं। मुझे तो डर लगता है।''
''डरने की क्या बात है, रति जैसी लुगाई तो पूरे गाँव में नहीं
है। मर्दों की भी मर्द है वो।''
''वो तो ठीक है पर जब से सरपंच मैं खड़े होने की बात चली है
चौधरी को फूटी आँख नहीं सुहाती। परसों चौधरियों के छोरों ने
गाली गलौज की थी। तुम लखिया को जगा भी दो।
जसोदा झोपड़ी में गई तो क्या देखती हैं, लखिया खटिया पर बैठा
बीड़ी फूक रहा है- जाते ही रति से पूछा, ''कौन है?''
''नारायण।''
''इतनी रात गए क्यों आया है?''
''रति कहीं चली गई है। ढूँढ़ने के लिए...''
''तो मैं क्या करूँ? मैंने क्या रति को ढूँढ़ने का ठेका ले रखा
है? जा जाकर कह दे मेरी तबीयत ठीक नहीं, खुद ही ढूँढ ले।''
लखिया की नारायण के प्रति ये
बेरुखाई कुछ पसंद नहीं आई। उसने तन कर कहा,
''जब तुम बीमार पड़े थे तो दस दिन तक दवाखाने में भी पड़ा रहा
था। आज जब उसको ज़रूरत है तो कहता है कि मैं नहीं जा सकता।
शर्म आती के नहीं?''
''लखिया का चेहरा सख़्त हो गया। आग्नेय दृष्टि से जसोदा को
देखकर बोला, ''इतनी चिंता है तो तू चली जा रति को ढूँढ़ने, वो
रांड घर-घर पंचात करती घूम रही थी किसी घर में पड़ी होगी।''
''जसोदा लखिया का मतलब समझ गई
थी। आज उससे कुछ न कहा गया जिसके साथ दस साल गुज़ारे हैं तो
ऐसा होगा उसने कभी सोचा भी नहीं था। मन में हुआ लखिया का मुँह
नोच दे। पर घर की इज़्ज़त और नारायण का ध्यान आते ही चुप हो
गई। बाहर जा नारायण को विदा किया। रति को जसोदा अपना आदर्श
मानती थी उसे लगता था रति साधारण स्त्री नहीं देवी है देवी।
उसके शब्दों में चमत्कारिक शक्ति थी। वो नारियों को घर के
अंधेरे से मुक्त करवाना चाहती थी। यही तो लड़ाई थी उसकी पर ये
क्या जाने उसे इनके लिए तो स्त्री का जननांग ही सब कुछ है।
जैसे उसका सारा अस्तित्व इसी में सिमट कर रह गया है। आज लखिया
उसे अपने से बहुत दूर लग रहा था। |