|
बड़का
गाँव से आया है, बता रहा था कि रम्मो बुआ गुज़र गईं। सारे गाँव
ने रंज किया, तीन दिन तक गाँव के चूल्हे नहीं जले, बच्चे चने
चबा-जबा कर पेट भर रहे थे। फिर रम्मो बुआ का कारज हुआ। इतना
पैसा इकट्ठा हुआ कि किसी सामान का घाटा नहीं पड़ा।
बड़का गाँव की लच्छेदार भाषा में
रम्मो बुआ की कीर्ति बखान करता रहा और मेरे भीतर बुआ की बीती
स्मृतियाँ ताज़ी होती रहीं।
रम्मो बुआ की अपनी कहानी रही
थी, उन्होंने अपने जीवन को संघर्षों के बीच बड़े साहस से जिया
था और हार नहीं मानी थी। मेरा बचपन रम्मो बुआ की मीठी लोरियों
और दुलार भरी थपकियों का बहुत दिनों तक गवाह रहा था। मुझे
धुँधला-सा याद है, जब हरी फूफा बंबई में धंधा करते थे और बुआ
अकेली गाँव में रहती थी। जब हरी फूफा होली-दिवाली आते थे तो
रम्मो बुआ के घर रंगीनी छा जाती थी, रोज़ मिठाई और पकवान का
ढेर लगा रहता था। फिर एक दिन ऐसा भी देखने को मिला कि हरी फूफा
बेहोशी की हालत में खाट पर रख कर लाए गए और तीन दिन बाद उनके
प्राण निकल गए। |