लाख
कोशिश करने पर भी सारा गाँव उन्हें बचा नहीं पाया। शहर के
डॉक्टर वैद्य सब आए लेकिन उन्हें होश में नहीं ला पाए। सारे
गाँव ने शोक मनाया। बुआ तो ऐसी हो गई थीं, मानो साँप सूँघ गया
हो। एक महीने तक बोली तक नहीं, मौन धारण कर लिया था। घर से
बाहर नहीं निकली थीं। औरतों-आदमियों, बूढ़ों-बच्चों ने समझाया
तब चार-पाँच महीने बाद बुआ अपने मन को बदल पाई थीं और फिर उनके
साहस पूर्ण जीवन का प्रारंभ ऐसा हुआ कि दुर्गा भवानी को भी मात
देने लगी थीं। रम्मो
बुआ की पौड़ी में हमेशा औरतों का अड्डा जमा रहता। किसी मर्द को
अपनी औरत घर में न मिलती तो वह सीधा वहाँ आता एवं रम्मो बुआ की
पौड़ी में बैठा पाता था। चंपा, चमेली, सरस्वती, फूलवती सभी
पौड़ी में बैठकर अपने दुखड़ें रोती और रम्मो बुआ उसको मीठी और
साहस भरी भाषा में ऐसा समझाती कि रोती को हँसा देती, अद्भुत
साहस और पराक्रम का संचार कर देती।
किसके लड़के का मुंडन कब हुआ,
किसका टीका चढ़ना है, किसका गौना होना है, किसके कितने लड़के
हैं, कितनी लड़की है सब रम्मो बुआ को वही खाते-सा ज़ुबानी याद
था। गाँव का मुखिया भी इतनी बातें नहीं बता सकता, जितना रम्मो
बुआ खटाखट बताती चली जाती। उनमें ऐसे-ऐसे गुण थे कि गाँव के
बिगड़े काम बना देती थीं बिना दहेज के सैंकड़ों विवाह उन्होंने
करवाए थे। दसों विधवा लड़कियों के पुनः विवाह करा कर उनकी
नरक-सी ज़िंदगी को स्वर्ग बना दिया था, रम्मो बुआ गाँव की देवी
थीं, दुर्गा देवी...।
उनकी पौड़ी गाँव की जीती
जागती संसद थी जहाँ दुनिया भर के मसले हल होते थे और बहस का
मुद्दा भी बनते थे। रम्मो बुआ ने बड़े साहस के साथ कष्ट झेले
थे, उनका सारा जीवन कष्टों और संघर्षों से भरा हुआ था।
उन्होंने मेहनत मज़दूरी करके और भैंस का दूध बेचकर अपने लड़कों
को पढ़ाया, योग्य बनाया और फौज में नौकर भी हो गए लेकिन रम्मो
बुआ ने कभी किसी के आगे हाथ नहीं पसारे। घर में बेटों को कभी
भी कोई कमी महसूस नहीं होने दी।
इतना ही नहीं अपनी घर गृहस्थी
के साथ गाँव के सारे दुःख को अपना समझा और उन्हें हल करने में
अपनी पौड़ी की पंचायत में खूब कोशिश की, किसी को कभी असहाय और
निराश नहीं होने दिया। जो रोता हुआ रम्मो बुआ के पास आता उसे
हँसता हुआ वापस घर लौटाया। सारे गाँव के लोग उन्हें अपनी सच्ची
माँ और हमदर्द समझते थे। सभी के मन में उनके लिए अपार अपनत्व
और आदरभाव था।
लेकिन फिर भी रम्मो बुआ अपने
घर में अपनी ही कलेजे के टुकड़ों यानी बेटों से दुखी थीं, उनका
अपनापन और आदर नहीं मिल पाया था, बड़े जतन से रम्मो बुआ ने
दोनों बेटों का एक ही घर गाँव से विवाह किया, बहू आईं तो घर
में रौनक हो गई। अब बुआ की पौड़ी और आँगन खूब जगमग रहने लगे,
लेकिन एक साल भी पूरा नहीं गुज़रा कि दोनों बहुएँ बहन-बहन होकर
भी लड़ने लगीं। रोने लगीं और सारा दोष रम्मो बुआ पर मढ़ने लगी।
नतीजा यह हुआ कि लड़के बहुओं
को अपने-अपने साथ ले गए। बेचारी रम्मो बुआ फिर अकेली रह गई। अब
उनके चेहरे पर वह तेज़ नहीं था, वह साहस नहीं था, भीतर ही भीतर
रम्मो बुआ बुरी तरह टूट चुकी थी। अपनों से उन्हें अपनापन न
मिला और परायों ने उन्हें सर आँखों पर रखा। यह कैसा ज़माना आया
है, वह इसी मलाल में रम्मो बुआ धीरे-धीरे भीतर ही भीतर घुलने
लगी थीं।
खाती-पीती थीं, उठती-बैठती
थीं, सबसे बातें भी हँस-हँस कर करती थीं, लेकिन भीतर कोई दर्द
ऐसा बैठ गया था कि उन्हें पल-पल पसीजता रहता था। उन्हें पनपने
ही नहीं देता था। मैं जब पिछले वर्ष दीपावली पर गाँव गया था,
तभी रम्मो बुआ के दर्शन किए थे मुझे विश्वास नहीं था कि यह बुआ
के आखिरी दर्शन हैं। जब बुआ को मालूम हुआ था कि मैं गाँव आया
हूँ तो वह मेरा बिना इंतज़ार किए हुए खुद ही दौड़ी हुई मेरे घर
आ गई थीं और बड़े ही मुरझाए झुर्रीदार चेहरे पर बनावटी मुस्कान
बिखेरते हुए बोली थीं, ''बेटा ठीक हो...! अब के बहुत दिनों बाद
गाँव आए हो। आ जाया करो, तनिक देख लेने से मन भर जाता है। अपने
तो कई-कई साल तक नहीं आते। तनिक तुम्हें देखकर ही आत्मा को
संतोष मिलता है।''
माँ तब भीतर से गिलास में चाय
भर कर बुआ के लिए लाई थीं, और नथुने फुलाकर भर्राई आवाज़ में
बोली थीं, ''अपनी-अपनी पटरानियों को साथ ले गए, ये भी नहीं
सोचा कि इस बेचारी का क्या होगा। बेचारी बीमार हो जाती है तो
कोई पानी तक को पूछने वाला नहीं है।'' तब रम्मो बुआ चाय के
गिलास को हाथ में थामे हुए शून्य में ताकती रह गई थी। तमाम
सवालों के तुरंत जवाब खोजने वाली रम्मो बुआ इस छोटे से सवाल का
उत्तर नहीं दे पा रही थीं।
परायों के लिए सदा तत्पर रहने
वाली रम्मो बुआ दुःख दर्द की हमदर्द रम्मो बुआ की यह हालत
देखकर मैं दंग रह गया था। मैं मन ही मन सोचता था कि कैसी
विडंबना है कि जो परायों में स्वयं को खो देते हैं, वे अपनों
से अपनापन क्यों नहीं पा पाते? बड़का अभी भी बड़बड़ा रहा था,
रम्मो बुआ के गुणगान में पूरी तरह निमग्न था, और मेरी आँखों
में अपनों से दूर परायों के लिए टूटी हारी रम्मो बुआ का चेहरा
साकार हो रहा था। |