पुस्तक को हैंडबैग में डालकर वह
रेलवे स्टेशन के सूक्ष्म निरीक्षण में लग गया। सामान के नाम पर केवल एक हैंडबैग
यात्रा को सहज बना देते हैं। सामान ज़्यादा रहना, चिंता व
मुश्किलों को आमंत्रण देने जैसा है। परंतु विजय के विपरीत,
कई लोग विवश होकर अथवा शौकिया भारी भरकम सामान के साथ चलना
पसंद करते हैं। उनके सामान को देखकर विजय ने अपने आप को काफी
आरामदायक स्थिति में महसूस किया।
चेन्नई सेंट्रल
विजय के लिए कोई नया न था, परंतु समय की उपलब्धता व अकेले रहने की
विवशता, स्टेशन के प्रत्येक पहलू को जाँचने के लिए उसे
निमंत्रण दे
रहे थे। 'एक छोटा-सा भारत है, यह रेलवे स्टेशन। भारत की
बहुत सारी भाषाएँ जैसे हिंदी, तमिल, तेलगु, कन्नड़, उड़िया,
बंगाली, संथाली, मलयालम और अंग्रेज़ी आपके कान के पर्दे को
छूकर निकल जाएँगी।' विजय के मन में विचार आया।
पर वह भाषा कुछ अलग ही थी। एक दयनीयता एवं करुणा भरी आवाज़।
''सर, कल ही इस स्टेशन पर आया था। किसी ने सारा सामान लूट
लिया, अभी हाथ में कुछ भी नहीं बचा।'' विजय पीछे मुड़ा।
''क्या करूँ? कुछ समझ में नहीं आ रहा। मैं अकेला रहता तो किसी
प्रकार से कुछ कर लेता, परंतु बच्चे और पत्नी के साथ किधर
जाऊँ?'' रेलवे स्टेशन पर विजय ने ऐसे व्यक्ति कई बार देखे थे।
उसकी उम्र चालीस के आसपास थी। बाल उलझे, चेहरे पर दयनीयता के
भाव और आँखों में नमी। कपड़े किसी खाते-पीते परिवार के
सदस्य से मेल खाते हुए, परंतु बातचीत का यह ढंग!, विजय
इससे पिघलनेवाला नहीं था।
व्यक्ति ने आगे जोड़ा, ''सर,
कुछ मदद कीजिए। आप मुझे कुछ मत दीजिए, बस बच्चे के लिए कुछ
इंतज़ाम कर दीजिए। सुबह से कुछ नहीं खाया इसने। पूरा दिन रोता
रहा, अब इसकी हालत नहीं देखी जाती।''
विजय ने देखा कि पीछे दीवार के सहारे एक महिला, गोद में बच्चे
को लेकर बैठी थी। बच्चे का चेहरा लाल हो चुका था, जिस पर काजल
की कालिमा फैली थी। वह उम्र में पैंतीस के आस-पास की औरत, विजय
को आतुर निगाहों से देख रही थी। सभ्य ढंग से पहने वस्त्र, जो
लड़के के अश्रु जल और असमंजसता के कारण अव्यवस्थित हो चले थे।
इस प्रकार के दृश्य सार्वजनिक
स्थानों पर नए नहीं, विजय ने भी ऐसे दृश्य कई
बार देखे थे। प्रायः सफल नाटककार, अभिनेता व रंगमंच कर्मी यहीं
से प्रेरणा लेते हैं। सब ठग एक साथ समूह बनाकर आपके सम्मुख
जीवंत अभिनय करेंगे, आप उनके अभिनय से प्रभावित ठोकर ठगे जाएँगे
और कल फिर सभी पात्र मिलेंगे, नए दर्शकों के बीच, नया नाटक
लेकर। न जाने कितनी
बार विजय छला गया, उसके कटु अनुभव उसे कटु वचन बोलने के लिए
बाध्य कर रहे थे। विजय पीछे एक खाली कुर्सी पर बैठ गया।
वह व्यक्ति फिर चुप हो गया
आगे कुछ नहीं
बोला और पत्नी के साथ दीवार को टेक कर बैठ गया। चेहरे पर हताशा व लाचारी
के सारे अकथित संवाद स्पष्ट बोल रहे थे।
महिला की आँख में भी आँसू छलक आए थे।
''यह चेन्नई का प्रतिक्षालय है, हिंदी के संवाद, यहाँ कम होते
है। अवश्य ही कहीं दूर से आया होगा,'' मन ने आवाज़ दी।
''नहीं, इस बहुरुपिये के शब्दों पर मत जाओ। यह सब छलावा है।''
विजय ने मन को समझाया।
तभी मोबाइल की घंटी बज उठी।
''हाय, किधर?...''
''चेन्नई सेंट्रल...अरे यार... बेस कैफे में वेज बर्गर और चाय
ज़रूर लेना, बहुत बेहतरीन है। चेक करो! मस्त लगेगा। और समय
अनुमति दे, तो प्ले कार्नर जाओ। पूल और बिलियर्डस के मज़े ले
सकते हो।'' मित्र का फ़ोन था। विजय ने फिर से मोबाइल को जेब
में डाल लिया।
''यह सब चीज़ें केवल जुबाँ के लिए ही अच्छी है, इससे जठराग्नि
की तृप्ति नहीं होती। परंतु स्वाद के लिए आदमी क्या-क्या नहीं
करता? मेरे को तो बस रेलवे स्टेशन के दूसरे कोने में स्थित
कैफे तक ही जाना है।'' विजय ने मन ही मन सोचा।
दूसरे कोने में चमकती विद्युत
बल्बों की कतार के बीच विजय कैफे की रिक्त कुर्सी पर आसीन हो गया। ऑर्डर
देने के करीब आधे घंटे बाद आधुनिक नारी की छोटे वस्त्रों
के सामान थोड़ा सा भोज्य पदार्थ उसके सम्मुख रख दिया गया। ''इतना
स्वादिष्ट तो नहीं था कि सौ रुपए खर्च किए जाए, परंतु नाम
बिकता है और रेलवे स्टेशन पर ये चीज़ें उपलब्ध हो जाएँ, तो
स्वयं को महँगा कर देती है।'' विजय ने विचार किया और डरते-डरते
चाय का सिप लेना शुरू किया। बड़े होटलों में सब कुछ व्यवस्थित
होता है। चाय के नाम पर गर्म पानी, दूध-चीनी अलग से आपके सामने
रख दी जाएगी। अपने अनुभवों से आपको स्वयं अपने लिए चाय तैयार
करना है। विजय आज तक यह सीख नही पाया। चाय बेकार बनी थी। विजय मुस्कराते हुए पच्चीस रुपए का चाय का सामान
वहीं छोड़कर बाहर आ गया। |