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उसके स्वर में गर्व था। मुझे अफ़सोस हुआ। मेरे पास ऐसे समृद्ध सपने नहीं हैं।
स्टेशन मास्टर ने कहीं खबर कर दी थी। सिर्फ़ हम दोनों के लिए रेलगाड़ी लाई जा रही थी। उसने मेरा हाथ छोड़ दिया और अपनी दोनों हथेलियाँ रगड़ने लगी। उसके हाथों से मेरा स्पर्श झरने लगा। मेरे हाथ में उसके स्पर्श का गीलापन था फिर हल्की-सी बारिश शुरू हो गई।

इतने लंबे सपने में यह पहली बरसात थी। बरसात की बूँदें ज़मीन पर गिरते ही धँसकर नीचे कहीं चली जाती थीं। मैंने देखा, उसने चेहरा ऊपर उठा लिया था और बूँदें उसके चेहरे पर भी गिरकर भीतर कहीं धँस रही थीं। गिरने के बाद नज़र नहीं आती थीं। बहुत इत्मीनान के साथ उसका चेहरा बरसात पी रहा था।

उसका चेहरा बहुत मुलायम लग रहा था। उसके चेहरे पर एक ऐसी तरलता थी कि मैं यदि हाथ रख देता तो चेहरा डबडबा आता। उसका चेहरा हाथों में लेने का विचार भी मुझे स्थगित करना पड़ा। सपनों में बरसात, प्रेम के लिए मुनासिब नहीं है। इतने आकर्षण के बावजूद मैं उसे चूम नहीं पाऊँगा। मैंने कभी किसी तालाब को नहीं चूमा। बारिश बदस्तूर जारी थी और उसकी देह झरना हो रही थी। उसके दो गोरे पाँव पानी की धाराओं से धुल रहे थे गोया प्रकृति अभिषेक कर रही थी। हल्की-सी भी चलने वाली हवा का लाभ उठाकर, घास के तिनके ज़रूर उसके पैरों से लिपट जाते थे।

एक बात और अजीब-सी थी लेकिन अब मैंने अचरज करना छोड़ दिया। गिरते पानी की धाराएँ कहीं नहीं जा रही थीं, इतनी बेतरतीब ज़मीन और धाराओं का इस तरह लुप्त हो जाना अजीब-सा था। मैं तो न सोचता था, लड़कियाँ बहुत ही रंगीन सपने देखती हैं। बहुत ही आकर्षक। मैंने सोचा, यही लड़की इस तरह के सपने देखती है या आजकल की लड़कियों के सपने बदल गए हैं?

मैंने उसकी ओर देखा, अब वह बेंच पर बैठी थी और गरदन झुकाकर नीचे कुछ देख रही थी। बालों ने उसका चेहरा ढँक रखा था। उसके कोमल और सुंदर चेहरे के बगैर इस तरह उसका धड़ मुझे आकर्षक नहीं लगा। मुझे लगा, किसी हॉरर फ़िल्म की भाँति वह अभी बालों से बाहर अपना चेहरा निकालेगी और बढ़े हुए दाँत, विकृत और विकराल चेहरे को मेरे हाथों में धर देगी। सपनों में इस तरह की घटनाएँ मुमकिन हैं। कुछ बातें सपनों में एकाएक इसी तरह घटित होती हैं।

मैं मुँह फेरकर दूसरी ओर बैठ गया। बारिश बंद हो गई थी। अब मुझे हल्की-सी ठंड लग रही थी। मुझे गीले कपड़ों को बदलने की चिंता होने लगी। सपने में होने के बावजूद मैं अपनी तासीर से अनभिज्ञ नहीं था। कपड़े नहीं बदले तो बुखार चढ़ जाएगा।

एक गीले स्पर्श से मेरी तंद्रा भंग हुई। वह मेरे नज़दीक आकर खड़ी हो गई थी। उसने हाथ बढ़ाकर मेरा चेहरा कटोरे की भाँति थाम लिया। मैंने मुस्कराकर उसकी ओर देखा, उसका स्निग्ध चेहरा मुस्कराने की चिर-परिचित हरकत कर रहा था। उसकी मुस्कान में पुरानापन नहीं था। जाने कैसे, वह हर बार नई मुस्कान ले आती है।

वह बहुत गीले स्वर में बोली, ''अभी कुछ देर में धूप की बारिश होगी। कपड़े सूख जाएँगे। सपनों में भी चिंता करोगे तो कैसे काम चलेगा? तुम मेरे सपनों की तासीर मत बिगाड़ो।'' कहकर उसने मेरे गाल थपथपाए तो बारिश की बूँदों के अलावा चिंता भी बह निकली। वह अपनी सफलता पर हँसने लगी। एकाएक उसने ऐसी बात कहीं जहाँ उसकी हँसी पिछड़ रही थी।

डरकर उठ बैठी हूँ। तुम लोग एक हँसी और चीख में फ़र्क क्यों नहीं कर पाते हो?'' कहते हुए उसका चेहरा मुस्कराने की विवशता और तनाव में रक्ताभ हो गया।
मैं उठा और उसके दोनों कंधों पर हाथ धरकर पीछे देखने लगा। दूर... जहाँ से धूप की बारिश तेज़ी से, रेलगाड़ी की भाँति दौड़ती आ रही थी। धूप की आहट के बावजूद गीलापन आतंकित नहीं था।

वह किसी कोमल टहनी की भाँति मेरी देह से टिक गई तो उसका चेहरा मेरे सीने में धँस गया। उसकी साँसें मेरी देह में यात्रा करने लगी। पता नहीं क्यों हर सपने में दाखिल होते ही वह अगले सपनों में जाने को उतावली हो जाती है। यात्राओं के लिए उसके भीतर उत्सुकता नहीं बेचैनी है और यात्राओं की खातिर इस तरह बेचैन व्यक्ति मैंने कभी देखे नहीं हैं। मैंने महसूस किया, हमारे कपड़े सूख गए हैं। धूप की बारिश से घास में, धूप की उजली धाराएँ बह रही थीं। कुछ देर पहले जल की धाराओं के न बह पाने का मेरा मलाल जाता रहा। उसने अपना सिर मेरे सीने से हटाया तो मैंने धीरे से उसके कंधों पर हात धर दिए।

फिर मैंने थोड़ा झुकाकर अपना सिर उसके कंधे पर टिका दिया और नज़रें उसकी पीठ से फिसलकर नीचे की धार में गिर पड़ी। अगली नज़र उसे उठाकर लाए तब तक वह बहकर दूर निकल गई। इस तरह बहकर मेरी नज़रें जाने किन सपनों में चली जाएँगी। वहाँ फिर कोई जल की बारिश उसे गीला कर देगी और वे डबडबबा आएँगी या किसी घास में अटककर तिनकों की नोक पर रुक जाएँगी। इसी तरह चलते हुए मुमकिन है कि मुझे ही किसी सपने में किसी घास के नीचे या धूप की धारा के ऊपर तैरती अपनी नज़रें फिर मिल जाएँ। मैं उठाकर फिर से अपनी आँखों में धर लूँगा। लेकिन इस बीच जितना कुछ वे देख चुकी हैं वह मेरी आँखों में बस जाएगा।

मैं मुस्करा दिया। उसके कंधे पर सिर को टिकाए गिरती धूप को सुनता रहा। घास का एक भरा-पूरा परिवार कान खड़े किए धूप का संगीत सुन रहा था। धूप का बोझ या संगीत की खुशी, जाने क्या था कि सारी घास दुहरी हो रही थी। लहर रही थी। अभी कल ही यहाँ का दृश्य बदल जाएगा। फिर यहीं-कहीं पेड़-पौधे और सब कुछ लौट आएगा। अभी जहाँ हम खड़े हैं? कल कोई पेज़ रहेगा। यह ज़मीन, यही घास हमारी चुप्पी के किस्से सुनाएगी। कल यही धूप पेड़ पर गिरेगी, पत्तियों पर गिरेगी।
मैंने एक लंबी साँस ली तब मुझे ख़याल आया कि सपने में मैंने पहली बार साँस ली है। मैंने उसके कंधे से अपना सिर उठाया तो उसने वापस अपना सिर मेरे सीने पर धर दिया, जो धीरे-धीरे फिर से मेरे भीतर धँसने लगा। फिर वह बहुत आहिस्ता से बोली, ''तुम जानते हो, अंधे लोग भी सपना देखते हैं?''

उसकी आवाज़ बहुत धीमी थी। उसका सिर मेरे सीने में धँसा था। जहाँ से उसकी आवाज़ के टुकड़े भीतर कहीं गिर थे और मैं धीरे-धीरे उन्हें उठाकर सुन रहा था। टुकड़े फिर गिरे।

''अंधे लोगों के सपनों में नहीं घुसना चाहिए। सब कुछ अजीब। कुल कुटुंब के ढेर सारे लोग। एक काँपता हुआ अंधा बूढ़ा उस कुल-कुटुंब की भीड़ के आगे दीपक जलाने की नाकाम कोशिश करता हुआ अपराधी-सा खड़ा है कुलदीपक की चाह में आदमी दूसरी रोशनी को अनदेखा कर देता है। हज़ारों साल से यही हो रहा है। परिवार को, कुल को रोशनी तो चाहिए लेकिन कुलदीपक से।'' सहसा उसकी आवाज़ किसी गाढ़े अंधेरे में डूबने लगी लेकिन मुझे सुनाई दे रही थी। कुछ क्षण वह चुप रही फिर सहसा ज़ोर से हँसी।

हँसी के इस विस्फोट से मैं टुकड़े-टुकड़े होकर ज़मीन पर बिखर गया। मैंने देखा। वही काला कोट पहने स्टेशन मास्टर मेरे टुकड़े बिनकर मुझे जोड़ रहा है। उसने मेरा सिर धड़ पर रखा तो मैंने अपना एक हाथ बढ़ाकर उससे अपना दूसरा हाथ ले लिया और कंधे से जोड़कर उसकी ओर देखा तो वह हँस रहा था। सपनों में हँसने के आग्रह के कारण यह मुझे उसकी नौकरी की अनिवार्यता भी लगी। मैंने उसे डाँटकर चुप करने का अपना इरादा बदल दिया। उसने बताया रेलगाड़ी आ चुकी है। आप तो अकेले खड़े थे। अब मुझे अचरज हुआ। मैंने उसे बताया कि मैं अकेला नहीं मेरे साथ वह भी थी। वह मुझे देखकर फिर हँसने लगा। मैं आसपास देखने लगा। कोई नहीं था। उसे तो मेरे साथ होना चाहिए था या मेरे भीतर। कहाँ है वह?

मैंने स्टेशन मास्टर को एक ओर हटाया ओर आगे दौड़ पड़ा। घबराकर स्टेशन मास्टर मेरे पीछे दौड़ा। वह मेरे पीछे दौड़ा। वह मेरे पीछे दौड़त हुआ चिल्ला रहा था, ''ये सपने आपके लिए अजनबी हैं। आप गुम हो जाएँगे। दूसरे अजनबी सपनों में अकेले निकल गए तो खोजना मुश्किल हो जाएगा। आप अकेले लौट भी नहीं पाएँगे...''

वह चिल्लाता हुआ पीछे कहीं ठिठक गया। शायद उसकी हद वहीं तक थी। मैं भाग रहा था औऱ सोच रहा था कि वह इस तरह मुझे छोड़कर कहाँ चली गई? बहुत दूर तक भागता आया और फिर थककर मैं रुक गया। अब मैंने आसपास देखा तो सब कुछ बदला हुआ था। ऊबड़-खाबड़ रेतीली ज़मीन और घुमावदार पहाड़ियाँ। सूनी और खाली गोद वाली नदियाँ। हवा न पानी। फिर भी लग रहा था कि छोटी-छोटी पहाड़ियाँ चल रही हैं। सरक रही हैं। उन पर जमी रेत फिसल रही है और धुँधले-से रास्ते ठिठके खड़े हैं। उस शाम अस्पताल में जब उसे सोनोग्राफी के लिए ले गए थे तो मैं भी साथ था। ठीक यही सब कुछ मैंने स्क्रीन पर देखा था। हालाँकि मैं समझ नहीं पाया था कि देह के भीतर यह कैसा तिलस्म है? क्या देह पर फिरता हुआ ट्रांसड्यूसर सपनों का तिलस्म तोड़ने की कोशिश करता है? तो फिर डॉ. कोठारी ने क्या मुझे इसीलिए भेजा?

उसकी देह में दौड़ती-भागती प्रकृति याद है मुझे। इसी तरह स्क्रीन पर पहाड़ियाँ सरक रही थीं और रेत फिसल रही थी। अब मैं समझ गया कि मैं आगे कितने ही सपनों में भागता चला जाऊँ तब भी यह दृश्य बना रहेगा। यदि ऐसा न हो तो एक सपना दूसरे सपने को धकेल कर आगे आ जाएगा।

मैंने भागती हुई पहाड़ी पर हाथ धरकर अपनी हाँफती हुई देह को सँभाला। अब मैं भूल गया था मैं किसी को खोजता हुआ भाग रहा था। कोई था जो गुम हो गया था। मैं मुस्करा दिया कि स्टेशन मास्टर सोच रहा था कि मैं भटक जाऊँगा। मुझे मुस्कान का जादू भी समझ में आया। मैंने देखा कि मेरे धरे हुए हाथ के नीचे रेत के टीले सरकते जा रहे थे। पहाड़ियाँ आगे बढ़ रही थीं। मेरी मुस्कान चौड़ी हो गई। फिर मैंने ज़ोर का ठहाका लगाया मेरी हँसी पहाड़ियों में फैल गई और अनेक रेत के टीले हँसी से भरभरा गए लेकिन हँसी थी कि फैलती जा रही थी।
''जल्दी डॉक्टर को बुलाओ।''
दूर कहीं हज़ारों सपनों के पार नर्स की आवाज़ आती है।

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९ नवंबर २००९

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