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                     मैं अचरज में 
                    गिरता उसके पहले उसने मेरा हाथ थामा और नीचे तलहाटी की ओर दौड़
                    पड़ी। मैंने महसूसा, हमारे पैर ज़मीन पर नहीं पड़ रहे 
                    थे। हम लोग घास पर लगभग तैरते हुए उतर रहे थे। इतनी खुशी का 
                    कारण मेरी समझ में नहीं आया। उसने मेरे हाथ को और खींचा फिर 
                    बोली, ''तुम्हें लगता है, मैं बीमार हूँ?'' मैं चौंक 
                    पड़ा। उसके स्वर में कंपन था लेकिन चेहरा मुस्करा रहा था। 
                    ध्वनि की प्रसन्नता से इस तरह असहमति मुझे अच्छी नहीं लगी। 
                    उसका चेहरा अपने प्रश्न से असंबद्ध लगा।मैंने कहा, ''नहीं!'' और मैंने उसके कंधे पर हाथ रख दिया। जैसे 
                    यह मेरी आश्वस्ति का प्रमाण हो।
 नीचे उतरते हुए मेरा हाथ उसके कंधे पर उछल रहा था। मैंने उसकी 
                    बाँह पकड़ ली। अब उसकी बाँह मेरी हथेली में थरथरा रही थी। मैं 
                    दौड़ते हुए या तैरते हुए रुक गया। फिर बोला, ''फिर क्या वजह है 
                    कि तुम नींद में या सपनों में से डरकर उठ बैठती हो। चीखने लगती 
                    हो। तुम जानती हो न, एक महीने से तुम इस अस्पताल में हो।''
 वह भी थम गई। 
                    मेरी आश्वस्ति उसके कंधे से फिसलकर गिर गई। वह मुझसे अलग होकर 
                    दूर चट्टान पर बैठ गई। मैंने नीचे झुककर उसकी शाल उठाई और उसके 
                    नज़दीक जाकर बैठ गया।
                    मैं उसे कह नहीं पाया कि एक महीने से मैं भी अस्पताल का अघोषित 
                    मरीज़ हो गया हूँ। मैं कैसे उसे कहता कि वह रात को जब अस्पताल 
                    में सोती है तो डर से पूरा परिवार जाग जाता है और फिर जब रात 
                    गए एकाएक वह सपनों से जागकर, डरकर उठ बैठती है तो चीखों से 
                    वार्ड भयभीत हो जाता है। उसका पूरा परिवार अपनी इकलौती संतान 
                    के लिए रोने लगता है। वह नहीं जानती है कि उसके पास डर है तो 
                    उसके परिवार के पास दुख। एक के पास अजाना डर तो दूसरे के पास 
                    पहचाना दुःख। तब डॉक्टर कोठारी ने कहा था कि तुम इस लड़की के 
                    दोस्त हो, काफी करीब हो। तुम इसके सपनों में दाखिल होकर देखो, 
                    क्या वजह है इस डर की। इन चीखों की। यह सोचकर मैं 
                    थोड़ा रोमांचित भी था। इस जगह इस सपने में कहीं मैं एक जासूस 
                    भी हूँ। मैंने उसकी ओर देखा तो वह हमेशा की भाँति मुस्करा रही 
                    थी। बोली, ''तुम जानते हो न, इस समय हम लोग अस्पताल में नहीं, 
                    मेरे सपने में हैं।''मुझे लगा,  उसके कंधे पर पड़ने वाली मेरी हथेली की थाप की 
                    आश्वस्ति से बड़ी उसकी यह मुस्कान है। मैं आश्वस्त हुआ। मैंने 
                    शाल फैलाकर खुद के कंधों पर डाल ली। आसपास नज़रें घुमाई तो फिर 
                    लगा, यह जगह, यह अजीब-सी घुमावदार पहाड़ियाँ और धुँधले से 
                    रास्ते, तिलस्मी धुंध, मेरी कहीं देखी-भाली है।
 ''हम कहाँ चल रहे हैं?'' मैंने उठते हुए पूछा।
 ''दूसरे सपने में। उस जगह, वहाँ उस पेड़ से दूसरा सपना शुरू हो 
                    जाएगा। बेहद सुंदर और कोमल'' कहकर उसने फिर मेरा हाथ पकड़ 
                    लिया। मुझे लगा, मैं उस पर निर्भर होता जा रहा हूँ और मेरी 
                    जासूसी के लिए कोई अच्छी बात नहीं है।
 ''एक बात बताऊँ?'' वह मेरे जवाब की प्रतीक्षा किए बगैर बोली, 
                    ''मैंने आज तक अपने सपनों में, किसी को नहीं आने दिया। मेरे 
                    सिवा यहाँ किसी के लिए भी जगह नहीं है।'' कहकर वह ठिठक गई। 
                    मैंने उसकी आँखों में देखा तो मुझे अच्छा लगा कि वहाँ से बहुत 
                    छोटे आकार में, मैं यहाँ खुद को, बड़े आकार में देख रहा हूँ। 
                    उसकी आँखों में जाकर वापस खुद को देखना मुझे अच्छा लगा। मैं 
                    खुश होकर बोला,
 ''यहाँ तो बहुत जगह है। फिर क्या कारण है?''
 वह मेरी 
                    नादानी पर मुस्काई फिर बोली, ''यहाँ बिल्कुल जगह नहीं थी। आज 
                    तुम आए हो तो खाली की गई है। बहुत-सी चीज़ें, बहुत से पेड़, 
                    सड़कें और पहाड़ियाँ दूसरे सपनों में रखकर आने पड़े।''वह आहिस्ता से मेरे करीब आकर कंधे पर हाथ धरकर बोली, ''यहाँ, 
                    जहाँ तुम खड़े हो, आँवले का पेड़ था। बचपन से सँभाल-सँभाल कर 
                    यहाँ तक लाई हूँ। अभी दूसरी जगह हटाना पड़ा है।''
 उसकी बाँहें 
                    आँवले की टहनियों की भाँति मेरे कंधों पर झूल रही थीं। उसने 
                    धीरे से अपना सिर मेरे कंधे पर धर दिया तो लगा उसने आँवले के 
                    पेड़ का सहारा लिया है। मैंने उसकी पीठ पर हाथ धर दिया। उसकी 
                    देह भी सपने की भाँति कोमल थी।''तुम जानती हो या नहीं कि बचपन या बचपना ख़त्म हो गया है?'' 
                    मैंने बहुत आहिस्ता से कहा कि उसे मेरी हथेली या मेरे कंधे पर 
                    टिका उसका सिर न सुन सके। लेकिन ऐसा न हो सका। वह मुझसे अलग 
                    होकर घास पर लेट गई। घास का हिस्सा दब गया और शेष घास के 
                    तिनकों ने उसकी देह को सहारा देकर रोक दिया।
 ''तुम्हें 
                    भरोसा है?'' इस बार वह बोली तो मैंने देखा उसकी आँखों में मैं 
                    नहीं था। आँवले का पेड़ था।''किस बात का।'' मैं तनिक रुककर बोला। मुझे लगा, अपने प्रश्न 
                    को उतावली से खारिज करके ही मैं यहाँ मंतव्य तक पहुँच सकता 
                    हूँ।
 ''कल तक मैं स्कूल में थी। आज कालिज में हूँ।''
 वह चोटी को उँगली में लपेटते हुए बोली, ''मुझे माँ की बात पर 
                    भरोसा है। उसने कहा कि मैं एक ही दिन में बड़ी हो गई हूँ। 
                    इसीलिए कल मैंने दो चोटी की थी आज एक चोटी गुँथी है। कल मैं 
                    स्कर्ट पहने हुए थी, आज साड़ी पहनकर आई हूँ।''
 ''लेकिन तुम तो कल भी साड़ी पहनकर आई थी।'' मैं धीरे से बोला। 
                    अपनी सतर्कता पर मैं खुश हुआ लेकिन प्रकट नहीं किया।
 वह हँस पड़ी, ''नहीं, साड़ी तो आज ही पहनी है। कल तो स्कूल गई 
                    थी। स्कर्ट पहनकर। गाँव से चाचा आए थे। बता रहे थे कि कल तक 
                    मैं उनकी उँगली पकड़कर चलती थी, आज उनके कंधे के बराबर हूँ।''
 ''यह तो मुहावरा है।'' मैंने आदतन धीमे से विरोध किया।
 ''नहीं यह सत्य है।'' वह गरदन हिलाकर बोली, ''ये देखो, मैंने 
                    आज एक चोटी गुँथी है।'' अपनी चोटी का रिबन पकड़कर चोटी को 
                    झुलाने लगी।
 मैं चुप हो 
                    गया। मुझे लगा, हो सकता है, सपनों में लड़कियाँ इसी तरह की 
                    बातें करती हों।सपने में होने के बावजूद मैंने महसूस कर लिया कि सपने में भूख 
                    नहीं लगती है और न प्यास। यह भी मुमकिन है कि लड़कियों के 
                    सपनों में ही भूख और प्यास के लिए जगह नहीं हो। वर्ना मैं तो 
                    भूख के सपने में पैदा हुआ और रोटी के सपने में बड़ा हो गया।
 अब मुझे 
                    राजनीति और सपनों का संबंध समझ में आया। हर बार ये राजनेता नए 
                    सपने बुनकर हमारे लिए फैला देते हैं मेरे पिता भी इसी तरह का 
                    सपना देखते रहे थे। ज़मीन के एक छोटे से टुकड़े को खेत की 
                    खुशफहमी में जोतते रहे और किसान होने का सपना देखते रहे। एक 
                    दिन बैंक के कर्ज़े की वसूली में ही खेत चला गया। उस कर्ज़े के 
                    लिए, जो खेत के लिए मिला था। शायद बैंक ने भी खेत का सपना देखा 
                    होगा। मैंने पलटकर 
                    उसे देखा। वह दूसरी तरफ़ देख रही थी। मैं पूछना चाहता था कि 
                    उसके अंधे पिता ने कभी कोई सपना देखा या नहीं?उसने मेरी हथेली खोलकर सामने कर ली और फिर उस पर उँगलियाँ 
                    घुमाने लगी गोया सपनों का ब्यौरा लिख रही हो फिर वह मेरी हथेली 
                    पर लिखते हुए बोली, ''बचपन से लेकर अभी कॉलेज तक मैं यह सपना 
                    भी देखती रही कि मेरे पिता मेरा सपना देख रहे हैं, इसलिए हर 
                    बार हर एग्ज़ाम में टॉप किया। यदि बीमार न होती और अभी पिछले 
                    हफ़्ते कॉम्पीटिशन के लिए दिल्ली जाती, तो मेरा सिलेक्शन तय 
                    था।''
 कहकर वह हँस पड़ी। उसकी हँसी परी तलहटी में फैलने लगी। हँसी के 
                    बोझ से घास दुहरी हो गई। कुछ ही देर में पूरा इलाका हँसी से भर 
                    गया। शायद इन सपनों में दुःख के लिए मुमानियत है।
 एकाएक वह उठ खड़ी हुई। उसने अपनी हथेली मेरी हथेली पर रगड़ दी 
                    और अपना सारा कहा मिटा दिया।
 ''चलो।'' 
                    कहकर उसने फिर मेरा हाथ थाम लिया। हथेली का कहा तो मिट गया था 
                    लेकिन उस मिटे हुए की रगड़ मेरी हथेली में चुभने लगी। शायद यह 
                    मेरा भ्रम ही हो, कि चुभन मेरी हथेली में हो रही है। चुभन भीतर 
                    कहीं हो और अहसास हथेली को सौंप दिया हो, यह भी मुमकिन है। इस 
                    तरह जगह बदली जा सकता है? मैंने देखा, तलहटी में अभी भी हँसी 
                    फैली है।इतनी सारी हँसी पर पैर रखकर कैसे चलेंगे? सोचता हुआ आगे बढ़ा 
                    मैं।
 एक बहुत ही छोटी-सी इमारत थी। धुंध में डूबी हुई। और दूर तक 
                    रेल की पटरियाँ हँसी के समान दौड़ी चली गई थीं, जूते पहन रखे 
                    थे, बावजूद इसके मुझे घास के दबने का अहसास हो गया था। मैंने 
                    पूछा, ''हम लोग रेल से चलेंगे?''
 ''तो क्या इतनी दूर, दूसरे सपने तक हम पैदल जाएँगे?'' उसने 
                    प्रतिप्रश्न किया और हँस पड़ी। मैं अपनी नासमझी पर शर्मिंदा 
                    हुआ। मैंने कहा, ''मैं तो यों ही पूछ रहा था।'' कहकर मैं भी 
                    हँस पड़ा। मैं अब समझने लगा था कि इस तरह हँसी बहुत मददगार 
                    होती है।
 स्टेशन पर एक 
                    काला कोट पहने वकीलनुमा बूढ़ा आदमा खड़ा था शायद स्टेशन मास्टर 
                    था। उसने बहुत गर्मजोशी से हमारी अगवानी की। मेरी अपेक्षा 
                    लड़की का बहुत ख़याल रखा जा रहा था। मैंने महसूसा, टिकट लेने 
                    की ज़रूरत नहीं पड़ी। मेरी दुविधा को वह भाँप गई। बोली, ''ये 
                    मेरे अपने हैं। मेरे सपनों की चीज़ें। मेरी सल्तनत। यहाँ किसी 
                    भी तरह के भुगतान की ज़रूरत नहीं।'' |