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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से भालचंद्र जोशी की कहानी— 'कहीं भी अँधेरा'


मैंने बहुत सावधानी से चारों ओर देखा लेकिन मेरे सिवा वहाँ कोई नहीं था। मुझे तसल्ली हुई, जिसका कि कोई कारण नहीं था। चारों ओर घने और बड़े-बडे पेड़, मुझे अजीब-सा लगा। मैंने हाथ बढ़ाकर एक पेड़ को धीरे से सरकाया तो सहसा पीछे से एक दूसरा ही दृश्य सामने आ गया।

दूर-दूर तक पहाडियाँ और उन पर कहीं घास तो कहीं चट्टानें उगी थीं। मुझे उस बात का आभास नहीं हुआ कि यहाँ कहीं कोई है। सहसा एक चट्टान के पीछे से वह बाहर निकली और मेरी ओर बढ़ने लगी। मैं घास के एक छोटे से टुकड़े के सहारे लेट गया। वह अचानक दिखाई देना बंद हो गई। मैं खड़ा हुआ तो वह फिर नज़र आई। अब वह मेरे नज़दीक थी। मुस्करा भी रही थी। उसकी मुस्कान में किंचित कौतुहल था या मेरे हाथ होने का पुलक, मैं ठीक से यह समझ पाता, उसके पहले ही उसने मुस्कान समेट ली। मुझे थोड़ा अचरज हुआ कल अस्पताल में उसका चेहरा बहुत डरा हुआ और हल्का लग रहा था।

मुझे लगा, यदि आज उसका चेहरा मेरे हाथों में होगा तो थोड़ा भारी होगा। मेरे मन में उसका कल का चेहरा स्थिर था इसलिए यह सामान्य और मुस्कान से लदा चेहरा देखकर मुझे सहज अचरज हुआ। वह मेरे पीछे देख रही थी। मैं जानता था मेरे पीछे पेड़ों का झुरमुट हैं। मैंने पलटकर देखा, दूर-दूर तक पहाड़ियाँ थी।

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