बूढ़े और
नवयुवक ने एक साथ लाजी की ओर कातर निगाहों से देखा। उन्हें ऐसा
लगा कि माता सिद्धेश्वरी देवी से सीधे सम्पर्क कराने वाली लाजी
ही है। उन्होंने लाजी के कहे अनुसार ही सारा सामान ले लिया और
मंदिर की ओर चल दिए। भीड़ न होने के कारण दर्शन जल्दी ही हो गए।
वापसी में बूढ़े ने ही पैसे दिए। लाजी ने देखा कि उस समय भी
बूढ़े व्यक्ति के हाथ काँप रहे थे। उसने एक बार फिर लाजी से
पूछा, ''मेरा बेटा, बच तो जाएगा न?''
''हाँ...''
कहते हुए लाजी ने पैसे ले लिए, फिर उन्हें गुल्लक में छुआया और
माता का धन्यवाद किया। मन ही मन बोली, ''देर से ही सही माँ,
लेकिन बड़ा ग्राहक दिलाया तुमने।'' उसके बाद दिन में और भी कई
लोग लाजी की दुकान में आए और उसका उस दिन का व्यापार अच्छा
रहा। पता नहीं क्यों बार-बार उस बूढ़े और नवयुवक का चेहरा उसकी
आँखों के सामने आ रहा था।
दिन डूबते-डूबते उसके दिमाग में एक संशय घर कर गया कि पता नहीं
उसने बूढ़े को झूठी दिलासा दे कर ठीक किया या नहीं। अपने आप से
बतियाते हुए सवाल-जवाब चलने लगे।
''शादी-ब्याह की बात होती तो ठीक था, यह तो किसी की जिन्दगी का
सवाल था।''
''उम्मीद ही तो दी है, कोई नुकसान तो नहीं किया।''
''कुछ पैसे नहीं कमाएँगे तो घर कैसे चलाएँगे।''
''अब लोग यहाँ पहले से ही आस्था लेकर आते हैं। मैं कोई नई बात
तो नहीं कह रही थी।''
''कहीं बूढे ने सच में मान लिया हो कि उसका बेटा बच जाएगा
तो।''
''अब जब डाक्टर ने ही जवाब दे दिया है तो कोई क्या कर सकता
है?''
''मेरी बिक्री तो हो गई लेकिन माँ पर लोगों की आस्था का क्या
होगा? वह तो माता के पास यही सोच के आया था कि वे मदद करेंगी।
बस मैंने माता की जगह उसे भरोसा दिला दिया कि सब ठीक हो
जाएगा।''
''और वैसा नहीं हुआ तो?''
''बूढ़ा जाते समय थोड़ा आश्वस्त लग रहा था। लेकिन क्या उसका लड़का
नहीं बचेगा?''
''अब हम लोग तो दिन भर सबसे ऐसे ही कहते रहते हैं। सब सच थोड़े
ही हो जाता है।''
पूरी रात
लाजी ने करवटों में काटी। बीस सालों में पहली बार उसे लगा कि
किसी की तकलीफ़ पर उसने व्यापार कर लिया था। माता के नाम का
गलत इस्तेमाल किया था। मन को लाख समझाने के बाद भी वह इस
अपराधबोध से मुक्त नहीं हो पा रही थी। बूढ़े का चेहरा उसका पीछा
नहीं छोड़ रहा था। मानो कह रहा हो कि तुमने पाप किया है।
सुबह जब वह दुकान पर पहुँची तो रामेश्वर फैक्टरी के लिए निकलने
ही वाला था। लाजी ने रामेश्वर से कहा, ''बेटा दस मिनट दुकान पर
बैठ। मैं अभी आई...।''
रामेश्वर ने
पीछे से आवाज़ लगाई, ''अम्मा, कहाँ जा रही है? मुझे देर हो रही
है।''
बिना जवाब दिए लाजी तेज़ी से सीढ़ियों पर चढ़ती हुई माता के
दरबार में पहुँच गई। दरवाज़े के पास पहुँच कर ठिठक कर रुक गई।
पता नहीं क्यों उसे माता के सामने जाने से डर लग रहा था। जैसे
किसी की चोरी पकड़ गई हो वैसे ही सहमे-सहमे माता की मूर्ति के
सामने वह जाकर आँखें मूँद कर खड़ी हो गई। कुछ क्षणों बाद उसने
ज्यों ही आँखें खोल कर माता की ओर देखा तो एकदम से काँप गई।
माता आज चंडी रुप में लग रही थीं, उनकी आँखें क्रोध में मानो
दहक रही हों।
लाजी को ऐसा
लगा कि उसके पैरों में शक्ति समाप्त हो गई है। वह घुटनों के बल
गिरते हुए माता के सामने लेट गई। आँसू अबाध रुप से उसकी आँखों
से झरने लगे। हाथ जोड़कर वह ज़ोर-ज़ोर से कहने लगी, ''माँ मुझे
माफ़ कर दो। मैंने पाप किया है। तुम्हारी आड़ में मैंने व्यापार
किया और झूठ बोला। ...मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था, तेरे सामने
मेरी क्या बिसात।''
मंदिर का
पुजारी लाजी को पहचानता था और वह भी खड़ा मूक दर्शक की भाँति
देख रहा था। शायद लाजी और माँ के बीच में पड़ने की उसकी भी
हिम्मत नहीं पड़ी। लाजी अभी भी रोते-रोते कह रही थी, ''माँ अभी
मैं क्या करूँ? तू मुझे जो चाहे सज़ा दे देना लेकिन वह बूढ़ा
बड़ी आस ले कर गया है। उसके बेटे को ठीक कर देना ...उसे जीवन
दान दे दे माँ।''
लगभग दस मिनट
तक पुजारी यह दृश्य देखता रहा। इतनी करुणा से माता के सामने
उसने किसी को अपना अपराध स्वीकार करते नहीं देखा था। उसके बाद
लाजी चुपचाप उठी और अपने आँचल से आँखें पोछते हुए चली गई और
जाकर गुमसुम-सी अपनी दुकान पर बैठ गई। पूरे दिन उसका जी खट्टा
रहा लेकिन दिन खत्म होते-होते यह टीस कम होने लगी। फिर एक-एक
करके दिन बीतने लगे और लाजी कुछ सामान्य होने लगी।
लगभग बीस दिन
बाद, दुकान पर लाजी के लिए एक और
सामान्य दिन था। एकाएक उसकी दृष्टि सीढ़ियों पर से आते उसी बूढ़े
और नवयुवक पर पड़ी। उसकी दुकान के सामने पहुँच कर वे एक बार फिर
रुक गए। लाजी नज़रें चुराना चाहती थी लेकिन तभी उसने देखा कि
उन दोनों की आँखों में हल्की-सी मुस्कान थी। पास आकर बूढ़े ने
बताया, ''माता ने मेरी बात सुन ली। माता के आशीर्वाद और
तुम्हारे यहाँ के प्रसाद ने मेरे बेटे की जान बचा दी।''
लाजी एकदम से हकबका गई, ''क्या ...अच्छा ...अब वो ठीक है?''
इस बार
नवयुवक ने बताया, ''हाँ, अभी तो पापा अस्पताल से घर भी आ गए
हैं। यहाँ से जाने के एक दिन बाद ही उनकी तबियत सुधरने लगी। एक
हफ्ते बाद तो डाक्टर भी इस चमत्कार को मानने लगे। दो हफ्ते में
वह घर आ गए। कमज़ोरी अभी है लेकिन डाक्टर का कहना है कि खतरे
वाली कोई बात नहीं।''
आसमान की ओर
हाथ उठा कर बूढ़े व्यक्ति ने कहा, ''माता तेरा बड़ा सहारा, बड़ा
उपकार किया। वही प्रसाद एक बार और दे दो, माता का धन्यवाद कर
दूँ। तुम्हारा भी शुक्रिया।'' फिर कुछ रुक कर, ''अगली बार बेटे
को भी लाऊँगा।''
लाजी ने
हड़बड़ाते हुए प्रसाद दिया। बूढ़ा और नवयुवक आगे बढ़ गए। अपनी धोती
के सिरे से लाजी ने अपनी आँखे पोछीं तो उसे अहसास हुआ कि वे
सजल हो चुकी थीं। ज़रा सहमते ही उसने अपने सामने वाले दुकानदार
को आवाज़ लगाई, ''राधे, ज़रा मेरी दुकान देखना... मैं अभी
आई।'' लाजी में अचानक न जाने कहाँ से इतनी स्फूर्ति आ गई। भीड़
को चीरते हुए लाजी एक बार फिर माता के दरबार में पहुँच गई और
उनके चरणों पर गिर गई। आज आँखों में कृतज्ञता के आँसू थे। थोड़ी
देर बाद उसने सिर उठाया तो देखा कि सामने सौम्यरुपा
सिद्धेश्वरी माता विराजमान थीं। लाजी ने देखा इस बार माँ के
नेत्रों में ज्वाला नहीं थी।
''जय माता
दी'', ''जय माता दी'' की करतल ध्वनि के साथ श्रद्धालु मंदिर
में लगातार आते जा रहे थे।
२८ सितंबर
२००९ |