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रास्ते पर जैसे-जैसे ऊपर मन्दिर के करीब पहुँचते हैं दुकानों की सघनता और पक्की बनी दुकानों की संख्या बढ़ने लगती हैं। ये पक्की दुकानें उन स्थानीय लोगों द्वारा चलाई जाती हैं जो यहाँ साल के बारहों महीने बने रहते हैं।

मुख्य मंदिर स्थल से करीब पचास सीढ़ी नीचे ऐसी ही एक पक्की दुकान पर लाजवंती देवी उर्फ़ लाजी उर्फ़ अम्मा सुबह से भक्तों का इंतज़ार कर रही है। लाजी पचास वर्ष की विधवा महिला है जो करीब बीस साल पहले पास के गाँव से आकर यहीं बस गई थी। उस समय वह जवान ही थी जब उसका पति दो छोटे बच्चों को छोड़ कर उस साल की बाढ़ में बह गया था। अब लाजी के सामने अपने बच्चों का पेट भरने की चुनौती तो थी ही साथ ही अपने सतीत्व की रक्षा भी करनी थी। किसी ने रास्ता सुझाया और वह बच्चों समेत सिद्धेश्वरी माता की शरण में आ गई। तमाम लोगों की तरह माता ने लाजी की भी लाज रखी और भरण पोषण का रास्ता दिखाया। मंदिर के रास्ते में एक टोकरी में फूल बेचने से शुरू करके आज वह अपनी पक्की दुकान की मालकिन बन चुकी है। बड़ा लड़का रामेश्वर पास की फैक्टरी में मजदूरी करता है और छोटा लड़का मनोहर कुछ मन्द बुद्धि होने के कारण उसके साथ दुकान पर बैठता है। रामेश्वर का विवाह हो चुका है और एक छोटा बच्चा भी है। मजदूरी से कमाई में उसका अपना खर्च ही मुश्किल से चल पाता है इसलिए घर के बाकी खर्च अभी भी दुकान से ही आते हैं।

नवरात्रि को आने में अभी भी दो महीने से ऊपर बाकी हैं और आजकल मंदिर में ज़्यादा श्रद्धालु नहीं आ रहे हैं। नवरात्रि के दिनों में तो कोई दुकानदार ग्राहकों को घास भी नहीं डालता लेकिन साल के कम भीड़ वाले महीनों में सब के सब उन पर टूट पड़ते। आस-पास की सभी दुकानों में श्रद्धालु, या दुकानदारों की भाषा में कहें कि ग्राहक, को देखते ही अपनी दुकान पर आकर्षित करने में होड़-सी लग जाती। हर तरफ़ से आवाज़ें आने लगती- ''भाई जी आइए जूते चप्पल यहीं छोड़ दीजिएगा,'' ''माता के दर्शनों के पहले हाथ पैर धो लीजिए,'' ''प्रसाद लीजिए बहन जी, ग्यारह और इक्कीस का भी प्रसाद है,'' ''लौट के जलपान भी इधर ही करिएगा'' इत्यादि।

प्रसाद के लिए शुरू हुई यह दुकानें ज़्यादा से ज़्यादा ग्राहकों को आकर्षित करने के उद्देश्य से आज बहु-धन्धी हो गई हैं। अब यहाँ सिद्धेश्वरी माता की लैमिनेटेड फोटुएँ, उनकी पूजा विधि, मंदिर के इतिहास का साहित्य और भजनों के कैसेट भी मिलते हैं। इनके अतिरिक्त महिलाओं के लिए शृंगार सामग्री जैसे बिन्दी, सिन्दूर, इमीटेशन वाले सस्ते जेवरात भी सामने सजे रहते हैं। बच्चों के लिए दस–बीस रुपये के खिलौने भी रखे हैं। आती भीड़ में छोटे बच्चों को देखकर दुकानदार अपनी दुकान में रखे प्लास्टिक के हवाई जहाज़ का स्विच आन कर देते हैं। लाल नीली लाइटों के साथ हवाई जहाज़ को आवाज़ करते सुना नहीं कि बच्चे वहीं खड़े हो जाते हैं और खिलौने लेने की माँग चालू। हर रोज़ लाजी यह दृश्य दिन में कई बार देखती है। माता-पिता लगभग हर बार वही घिसे-पिटे बहाने सुनाते हैं ''बेटा अभी नहीं, लौटते समय...'', ''अरे यह मज़बूत थोड़े ही हैं...जल्दी टूट जाएँगे'' या फिर ''तुम्हारे पास एक जहाज़ घर पर है न।'' लाजी बाकी दुकानदारों की तरह इन सब दृश्यों के बीच सिर्फ़ अपने लिए ग्राहक तलाशती और जब बच्चों के माता–पिता उन्हें घसीट कर आगे ले जा रहे होते तो उसे सिर्फ़ इस बात का अफ़सोस रहता कि एक ग्राहक हाथ से निकल गया। दूर जाते बच्चों की आवाज़ धीमी होते-होते समाप्त हो जाती ''मम्मी, ... घर वाले जहाज़ में इतनी लाइटें नहीं हैं...।''

सच पूछें तो आस्था की इन दुकानों में सिर्फ़ एक ईमान है – ज़्यादा से ज़्यादा माल की बिक्री। वे यह नहीं देखना चाहते इस प्रयास में वे भक्तों को खिझा रहे हैं। यहाँ तक कि माता के मंदिर के सामने लोहे के जंगले पर अपनी मनोकामना के प्रतीक के तौर पर बाँधे जाने वाले धागे को भी दस रुपये में बेचना इनकी नज़र में गलत नहीं है। यही वजह है कि ज़्यादातर भक्तों में मन्दिर के अन्दर पहुँचते-पहुँचते भक्ति के अलावा सारे भाव जाग जाते है।

अपनी सफ़ेद किनारी वाली धोती पहने बैठी लाजी रह-रह कर सूनी सीढ़ियों पर नज़र डालती और फिर मायूस हो जाती। सुबह से गिनती के दस-बारह लोग ही मंदिर गए हैं और वे सभी प्रसाद लेने के लिए लाजी की दुकान पर नहीं आए। तभी लाजी की निगाह सीढ़ियों से ऊपर आते एक नव-दम्पत्ति पर पड़ी। लाजी फौरन हरकत में आ गई, ''बेटा इधर आकर हाथ-पैर धो लो फिर माता के दरबार में जाना। तुम्हारी जोड़ी सलामत रहेगी, बहू की गोद जल्दी भरेगी।'' युवक ने एक नज़र अपनी नवविवाहिता पत्नी की ओर देखा तो वह शरमाते हुए मुस्करा दी। कुछ सोच कर वे लाजी की दुकान से अगली दुकान पर चले गए। यह लाजी के मन को नहीं भाया, धीमी आवाज़ में बड़बड़ाने लगी, ''अरे बड़ी आई नई नवेली... अरे कोई हमारी दुकान पर भी आ जाओ। इस गरीब का पेट कैसे भरेगा?''

वैसे लाजी सच कह रही है, आने वाले लोगों के लिए भले ही यह माता की निशानी स्वरुप प्रसाद हो, दुकानदारों के लिए तो यह रोजी रोटी का मसला है।

एक बार फिर लाजी ने सीढ़ियों पर नज़र डाली। नए दम्पत्ति से थोड़ा पीछे ही एक बूढ़ा आदमी आता दिखा। वह चलने फिरने में असमर्थ लग रहा था और सहारे के लिए एक नवयुवक साथ था। बड़ी मुश्किल के साथ वह एक-एक सीढ़ी चढ़ रहा है। उसने हाथ में छड़ी पकड़ रखी है लेकिन ऐसा लगता है कि चार सौ सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद वह नवयुवक ही उसका एकमात्र सहारा है। पास आता देख आसपास के सभी दुकानदार अपनी-अपनी शैली में उसे अपनी दुकान पर बुलाने लगे। लाजी ने भी प्रयास किया, ''बाबा, थोड़ा रुक लो, फिर आगे दरबार में चले जाना।''

पता नहीं क्यों बूढ़ा लाजी की दुकान के ठीक सामने आकर रुक गया, शायद वह बहुत थक गया था। एक बार अपने साथ आए नवयुवक की ओर देखा और धीमे स्वर में बोला, ''गुड्डू थोड़ा रुक लेते हैं, अभी और नहीं चला जाता।'' नवयुवक ने हामी भरी और दोनों लाजी की दुकान की ओर बढ़े। लाजी ने यह देखते ही आगे जोड़ा, ''यहाँ से प्रसाद लो, माता तुम्हारी मन्नत ज़रूर पूरी करेंगी।''

काफी प्रयास करते हुए बूढ़े व्यक्ति ने लाजी की छोटी-सी दुकान में प्रवेश किया। नवयुवक ने हाथ से सहारा देकर उसे सामने पड़ी बेंच पर बैठा दिया। बूढ़ा व्यक्ति थका और परेशान लग रहा था। लाजी ने आवाज़ लगाई, ''मनोहर पानी लाकर पिला...।'' फिर बूढे व्यक्ति की ओर देखकर, ''बाबा, कितने का प्रसाद दे दूँ?''

कपड़ों से बूढ़ा व्यक्ति गरीब नहीं लग रहा था। लाजी ने भाँपते हुए सबसे महँगे प्रसाद के लिए कहा, ''इक्यावन वाला दे दूँ?''
नवयुवक ने बूढ़े व्यक्ति की ओर प्रश्नवाचक निगाह से देखा। बूढ़े ने सिर हिलाया। नवयुवक बोला, ''इक्यावन वाला ही दे दो।''
दस मिनट बैठने के बाद नवयुवक ने बूढ़े व्यक्ति से पूछा, ''दादा, अब चल सकते हैं क्या? आज ही वापस शहर भी लौटना है।''
बूढ़े व्यक्ति ने तनिक सोचते हुए सिर हिलाया, लेकिन उठने के प्रयास के बीच उसे कुछ याद आ गया। वह अचानक फफक कर रो पड़ा। लाजी मुड़कर उन्हें देखने लगी। नवयुवक ने बूढ़े व्यक्ति के बगल में बैठ कर उसे सांत्वना देनी चाही, ''दादा, भरोसा रखो, इस मंदिर के बारे में बहुत सुना है। स्वामी जी ने भी कहा था कि माता सबकी मदद करती हैं।''
लाजी ने पूछा, ''इन्हें क्या हुआ है बेटा?''

अपने को काबू में करते हुए जवाब में बूढ़े ने नवयुवक की ओर इशारा करते हुए कहा, ''इसका बाप, ... मेरा बेटा ...अस्पताल में...।'' वह इसके आगे नहीं बोल सका और रो पड़ा। उसके आगे नवयुवक ने ही बताया, ''मेरे पिता अस्पताल में भर्ती हैं, डाक्टरों ने जवाब दे दिया है...।''

लाजी के मन में कई विचार एक साथ कौंध गए पर सबसे अंत में उसे सिर्फ़ यह याद रहा कि सुबह से अब तक बोहनी नहीं हुई है। उसने तनिक हमदर्दी दिखाते हुए कहा, ''यह धागा ले लो- दस रुपये का है। माता के दरबार में मन्नत माँग कर बाँध देना। और यह माता की स्फटिक की मूर्ति है, दो सौ रुपये की, इसे बीमार के सिरहाने रख देना। सब ठीक हो जाएगा।''

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