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कई बार शुभि के साथ ऐसा भी हुआ है कि अपना समझनेवालों का काम वह हँसते-हँसते कर देती है और बाद में वे ही लोग उसका मज़ाक उड़ाते हैं। शुभि को ऐसे लोगों की मानसिकता और शातिरपने पर बड़ी कोफ़्त होती है। शुभि के लिए यही छोटी-छोटी बातें पहाड़ बनकर सामने खड़ी हो जाती हैं। उसे समझ नहीं आता कि आखिर वह करे तो क्‍या करे? खुद पर खीझती भी है कि वह इतनी सिर्री क्‍यों है? क्‍यों अपने मन की बात किसी को बताती है? दरअसल शुभि अपनी मासूमियत के कारण कभी खुद की वजह से तो कभी दूसरों की वजह से स्वयं को ऐसे मकड़जाल में उलझा लेती है कि उससे बाहर निकलना मुश्‍किल हो जाता है। वह चाहकर भी खुदगर्ज़ व मतलबपरस्‍त नहीं बन पाई है। उसके इस स्‍वभाव का लोग फ़ायदा उठाते हैं, शुभि इससे परिचित है, पर उसे लगता है कि वह अपने उस स्वभाव को क्‍योंकर बदले जो उसे सुकून देता है। बस, फिर सिर झटककर उन अनर्गल बातों को भूलकर अपनी दिनचर्या में रम जाती है।

उसने ज़िन्‍दगीभर सभी स्‍थितियों से समझौता किया है ताकि घर में शान्‍ति बनी रहे। उसे लड़ाई झगड़ों, व्‍यर्थ की बहसों से बहुत डर लगता है। ऊँची आवाज़ से उसके कान की लवें और आँखें गर्म हो जाती हैं और फिर बुखार आते वक्‍त नहीं लगता। इन सबके बावज़ूद उसे ग़लत बातों से समझौता करना कतई स्‍वीकार नहीं है और न ही यह उसकी फितरत में है। वह कोई भी काम मजबूरी में नहीं करती। वह जो भी काम करती है, दिल लगाकर करती है और अपनी पूरी जान लड़ा देती है। शुभि को सकारात्मक सोच के लोगों से दोस्‍ती करने और निभाने में खूब मज़ा आता है। पर उसे ऐसे बहुत कम दोस्‍त मिले हैं जो उसके मन-मस्तिष्क के इस टुकड़े को संतुष्‍ट कर सकें।

शुभि के इस तरह के व्‍यवहार से प्रणव ख़ासे नाराज़ हो जाते हैं। शुभि उनसे निरीह बच्‍चो की तरह पूछती है कि आखिर उसका कुसूर क्‍या है? क्‍या वह चिड़िया की तरह पंख फैलाकर उड़ने की कल्‍पना मात्र से खुश नहीं हो सकती? बीते बचपन को फिर से जीना अपराध है? वह प्रणव की तरह गंभीरता और चुप्‍पी का मुखौटा लगाकर नहीं जी सकती। उसका दम घुटता हे ऐसी चुप्‍पी से।

शुभि को थियेटर में फिल्‍में देखना खूब पसन्‍द है, लेकिन प्रणव इस मामले में ख़ासे कैल्कुलेटिव हैं। उनके अनुसार सी.डी. लाकर फिल्‍में घर में देखी जा सकती हैं। शुभि को लगता है कि थियेटर में फिल्‍म देखने का माहौल होता है, वहाँ चाय नहीं बनानी पड़ती, फोन नहीं उठाना पड़ता। बस प्रणव यही नहीं समझते। अब शुभि ने अकेले फिल्‍में देखना शुरू कर दिया है। वह कब तक अपने शौक मारे! ख़ासा कमाती है शुभि। उसने कभी घर परिवार की ज़िम्‍मेदारियों से मुँह नहीं मोड़ा है। लेकिन उम्र के इस पड़ाव पर शुभि निर्णय कर चुकी है कि अब वह सिर्फ़ अपने लिए जिएगी।

प्रणव शुभि में आए इस परिवर्तन से किंकर्तव्‍यविमूढ़ हैं। उन्‍होंने शुभि का यह रूप कभी नहीं देखा था। वह सच बोलने में कोई संकोच नहीं करती। उसे मज़ा आता है जब सामनेवाला उसकी बेबाक़ बातों से खासा परेशान हो जाता है और वह शुभि के न बोलने में ही सबकी भलाई समझता है। कई बार शुभि को सच बोलने की ख़ासी कीमत भी चुकानी पड़ती है। जो रिश्‍तेदार शुभि की तारीफ़ करते नहीं थकते थे वे उसकी सच बातें सुनकर उससे ख़फा हो गए हैं। शुभि तब बहुत रिसिया जाती है जब कोई उसकी मजबूरी नहीं समझता।

शुभि के सभी रिश्‍तेदार एक बार फिर मुंबई घूमना चाहते हैं। शुभि ने सिर्फ़ इतना भर कहा कि जब भी आएँ, बताकर आएँ ताकि वह छुटिटयों का जुगाड़ कर सके। वे तथाकथित रिश्‍तेदार शुभि की इसी बात का बुरा मान गए और वैष्‍णोदेवी चले गए। यह भी कोई बुरा मानने वाली बात है भला? सबसे मज़ेदार बात यह होती है कि प्रणव भी अपने रिश्‍तेदारों की तरफ़ हो जाते हैं और शुभि को अकेला कर देते हैं। यह मोर्चा शुभि को अकेले सँभालना होता है। प्रणव को पता है कि मुंबई की ज़िन्‍दगी में कितनी भागदौड़ और संघर्ष है। शुभि को भी आराम की ज़रूरत है। उसकी उम्र का भी तकाज़ा है कि उसे अब कोई तक़लीफ़ न दे और अपनी ज़िन्‍दगी जीने दे। शुभि कभी किसी की निजी ज़िन्‍दगी में दखल नहीं देती। न उसे पसन्‍द है कि कोई उसकी ज़िन्‍दगी में दखल दे। उसने बहुत संघर्ष करके अपने लिए ये आराम के क्षण जुटाए हैं जिन पर सिर्फ़ उसका और उसका अधिकार है।

शुभि ने हड़बड़ाकर घड़ी देखी तो चौंक गई कि शाम के छह बज रहे हैं। वह नहाई तक नहीं है, खाने तक की सुध नहीं रही उसे। लेकिन आज दिनभर उसने छोटी-छोटी बातों के उन रेशों को पकड़ने की कोशिश की है तो उसे परेशान करते हैं, बेचैन करते हैं, रातों की नींद उड़ा देते हैं। आज शुभि ने अपने लिए उस आज़ादी को पूरी शिद्दत से महसूस किया हे जिसके लिए हर स्‍त्री तड़पती है। शुभि अंगड़ाई लेकर बदन की सुस्‍ती को दूर करती है और फुर्ती से किचन की तरफ़ चल देती है। आज शुभि ने निर्णय ले लिया है कि प्रणव की तरह उसे भी अपनी तरह से ज़िन्‍दगी जीने का मूलभूत अधिकार है और वह बाक़ायदा इसका इस्‍तेमाल करेगी। अचानक ही उसके मुँह से यह गाना निकल पड़ा,
''पंछी बनूँ, उड़ती फिरूँ मस्‍त गगन में...''

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२० जुलाई २००९

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