और फिर वक्त की कमी, बेटे की
पढ़ाई। उसे अक्सर दफ़्तर में दिनभर से छूटे बेटे की याद आती
है कि वह उसकी राह तक रहा होगा और यही याद, बेटे का मोह उसे
शाम साढ़े पाँच बजे घर की तरफ़ दौड़ा देता है। घर आकर बेटे का
हालचाल पूछती है और बेटा निश्चिंत होकर खेलने चला जाता है।
शुभि दिनभर की भागदौड़ को दस
मिनट लेटकर दूर करने की कोशिश करती है। आँखें बन्द ही करती है
कि दरवाज़े की घंटी बज उठती है। दरवाज़ा खोलते ही छोटे-छोटे
बच्चे 'पानी, पानी' की रट लगाते हुए घर में घुस आते हैं। शुभि
को छोटे बच्चे बहुत अच्छे लगते हैं। उसके थके चेहरे पर एक
मुसकान आती है और बच्चों को ताँबे के बर्तन से पानी पिलाती है
और साथ में हाजमोला की गोली देती है जिस पर बच्चों की नज़र
टिकी होती है। बच्चे खिलखिलाते हुए चले जाते हैं। अभी वह फिर
लेटने को हुई ही है कि घंटी फिर घनघनाने लगती है। दरवाजे़ को
खोलते ही धोबी दिखता है और पूछता है, ''भाभी, कपड़े हैं?''
प्रेस के लिए कपड़े होते हुए भी वह मना कर देती है। धोबी
मुस्कराता हुआ चला जाता है। उसे पता है कि भाभी का मूड नहीं
है। कल एक गठरी पकड़ा देंगी और कै़फियत देंगी कि कल मूड नहीं
था कपड़े गिनने का।
आज रविवार है। शुभि ने तय
किया है कि आज कुछ काम नहीं करेगी। आराम और सिर्फ़ आराम करेगी।
आज खुद का विश्लेषण भी करेगी कि आखिर वह ज़िन्दगी में और
ज़िन्दगी से क्या चाहती है? गौर करती है कि शादीशुदा
ज़िन्दगी रफ़्ता-रफ़्ता चल ही रही है। उसके पति प्रणव एक
प्रतिष्ठित संस्थान में ऊँचे पद पर कार्यरत हैं, लेखक हैं।
उनकी अपनी व्यस्तताएँ हैं। उनके जीवन की प्राथमिकताएँ अलग
हैं। शुभि शादी के बाद लगातार घर परिवार की ज़िम्मेदारियों को
निभाने व रिश्तेदारों को निभाने में व्यस्त रही।
शादी के बाद के शुरुआती दिनों
में रिश्तेदार मुंबई घूमने आते रहे और वह नौकरी करते हुए,
छोटे बच्चों को सँभालते हुए उन लोगों को चकरघिन्नी की तरह
मुंबई दर्शन कराती रही। धीरे-धीरे प्रणव के लेखक दोस्त घर में
आने लगे। उनके सम्मान में घर में गोष्ठियाँ होतीं। शुभि को यह
परिवर्तन रास आने लगा। उसे यह सुकून होता कि ये रिश्तेदार
नहीं हैं। ये दोस्त हैं, इनके प्रति कोई दायित्व नहीं है।
यदि मूड हुआ तो घर में कुछ बना लेगी अन्यथा बाज़ार से मँगवा
लिया जाएगा।
इन साहित्यिक गोष्ठियों में
शुभि का मन ऐसा रमा कि उसे अपने लिए अलग से मित्रों की ज़रूरत
ही महसूस नहीं हुई। प्रणव के सारे मित्र उसके अपने हैं, ऐसा वह
समझती थी। प्रणव भी संतुष्ट थे कि शुभि कभी किसी मित्र का
अनादर नहीं करती, बढ़िया मेज़बानी करती है। प्रणव इस बात से
आश्वस्त थे कि उनके घर में दोस्तों का कभी अनादर नहीं होगा।
मज़ाक में एक मित्र ने कह भी दिया था कि जिस घर में आगत का
सम्मान घर की महिला नहीं करती, वहाँ कोई नहीं जाता। यह सुनकर
शुभि को स्वयं पर गर्व महसूस हुआ और यह आश्वस्ति भी हुई कि
प्रणव की कभी किसी दोस्त से खटकेगी तो वह 'निमित्त' नहीं
होगी। सच कहा जाए तो शुभि को औरतों की टुच्ची बातों में शुरू
से ही कोई रुचि नहीं रही है। उनकी बातों का दायरा साड़ी,
गहनों, अफेयरों, खाने की रेसिपी से आगे बढ़ ही नहीं पाया है
चाहे वे स्वतंत्र मानसिकता का कितना भी दावा क्यों न करती
हों।
आज शुभि पूरे आराम के मूड में
है। छुटटी के दिन उसे बिस्तर पर लेटकर कमरे की छत और घूमते
पंखे को देखना बहुत अच्छा लगता है। तब वह अपनी दुनिया में
होती है, उस दुनिया में उसे किसी का प्रवेश स्वीकार्य नहीं
है, यहाँ तक कि पति प्रणव का भी। प्रणव चकित होते हैं कि शुभि
की ऐसी कौन-सी दुनिया है जहाँ उनका भी प्रवेश वर्जि़त है। अब
शुभि प्रणव को कैसे समझाए कि वह अपनी ज़िन्दगी में अपने लिए
पूरा स्पेस चाहती है। उस स्पेस में उसे किसी की
दख़ल-अन्दाज़ी पसन्द नहीं है। शुभि के अन्दर एक कमी है कि वह
बिना सोचे समझे निष्पाप मन से प्रणव के दोस्तों से हँस बोल
लेती है और कभी-कभी किसी दोस्त के लिए सीमा से बाहर जाकर कुछ
काम भी कर देती है तो प्रणव बड़ा अजीब-सा महसूस करते हें।
शुभि को इसमें कुछ भी अजीब नहीं लगता। वह शुरू से ही मुंबई
जैसे शहर में रह रही है और ऊपर से नौकरीपेशा है सो उसकी सोच
बहुत ही खुली हुई है।
मायके में बड़ी होने की वजह
से उसे ज़िम्मेदारी लेने और निभाने की आदत है। उसे किसी की
मदद करना अच्छा लगता है और आत्मसंतुष्टि भी देता है। उसे कई
बार आश्चर्य होता है कि इसी स्वभाव के कारण प्रणव
उसकी तरफ़ आकर्षित हुए थे और अब इसी स्वभाव से चिढ़
क्यों? क्या पुरुष पति बनते ही इतना आत्मकेन्द्रित हो जाता
है कि पत्नी सिर्फ़ उसके लिए ही सब कुछ करे? इसी बात पर प्रणव
से खासी बहस हो जाती है। शुभि बड़े प्यार से प्रणव को समझाती
है कि उसे मायके से बेशक दहेज नहीं मिला है पर एक चीज़ ज़रूर
विरासत में मिली है कि घर आए का कभी अनादर मत करो। जिस काम में
सुख मिलता है वह ज़रूर करो। ज़िन्दगी में हर किसी को खुश रखने
के लिए खुद को दुखी मत करो। अब शुभि इस रास्ते पर चलने की
अभ्यस्त हो गई है और इसके बिना उसे क़रार नहीं।
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