|
यह अलार्म भी अजीब है, कभी बजना
नहीं भूलता। शुभि घड़ी देखती है। अभी पाँच ही बजे हैं। कुछ
सोचकर उठती है, फ्रिज में से ठंडी रुई निकालती है, आँखों पर
रखकर फिर लेट जाती है। कुछ समय बाद अलार्म फिर घर्रा उठता है।
अब कोई चारा नहीं। उठना ही पड़ेगा।
आज शुभि अपने शरीर में भारीपन
महसूस कर रही है। पूरा बदन अलसा रहा है। कोई भी काम करने का मन
नहीं कर रहा है। लेकिन बलि का बकरा कब तक खैर मनाएगा। हर रात
यह सोचकर सोती हे कि तड़के पाँच बजे सैर पर जाएगी, आकर नींबू
की चाय पिएगी, बेटे का नाश्ता और टिफिन बनाएगी। साढ़े छह बजे
बेटे को स्कूल रवाना करके कंप्यूटर पर अपने पत्र वगैरह
देखेगी। समाचार पत्र में भविष्य पढे़गी कि आज का दिन कैसे
बीतेगा और हिसाब से मूड बनाकर दफ़्तर की तैयारी करेगी। बाकी तो
सारे काम हो जाते हैं। बस, रह जाती है पाँच बजे की सैर और
नींबू की चाय।
दरअसल आजकल शुभि का रूटीन
कामों में दिल नहीं लगता। उसे ज़िन्दगी में कुछ हटकर काम करने
की इच्छा होती है, पर वह क्या करना चाहती है, इसी उलझन में
उलझी रहती है। बेशक वह नौकरीपेशा है, पर दफ़्तर में भी तो घिसा
पिटा काम। |