सत्यम
अवाक सा उसे जाता देखता रहा। चाकू निकालकर लड़की की गर्दन पर
टिकाने का उसे ख़याल भी नहीं आया। लड़की के आत्मविश्वास और
व्यक्तित्व ने उसे बौना बना दिया था। उसे इतना तो समझ आ गया कि
वरुण के बार-बार यहाँ आने की वजह ये लड़की है। दोनों के बीच
ज़रूर कोई चक्कर होगा तभी वह सब कुछ जानती है। वह भी कितना
बेवकूफ़ है। वह अपने मन की सारी बातें वरुण को बता देता था और
वरुण अपनी सारी बातें उससे छिपाता था। कितना धोखा करता रहा वह
उसके साथ। वह फिर वरुण के प्रति घृणा से भर उठा।
थोड़ी देर बाद वह फिर आ गई। इस
बार वह उसे बिल्कुल मासूम लगी। आत्मविश्वास और दृढ़ता का उसके
चेहरे पर नामोनिशान तक नहीं था।
''कुछ खाएँगे क्या?'' उसने पूछा।
''आपका...नाम क्या है?'' सत्यम ने उसके सवाल पर अपना सवाल
दागा।
''मैंने खाने के बारे में पूछा था।'' साँवले चेहरे पर काली
गहरी आँखें फैल-सी गईं। लड़की की ये अदा उसे बहुत प्यारी लगी।
''मैंने नाम के बारे में पूछा था।'' उसने भी अपनी आँखें फैलाने
का प्रयास किया जिसमें सफल नहीं हो पाया।
लड़की हँस दी। दिल्ली के चोर ने हँसने का मतलब फँसने से लगाया।
उसे मालूम ही नहीं हुआ कि उसका कुछ कीमती सामान चोरी हो चुका
है-उसका दिल।
''मैं बूटी हूँ, बूटी बनर्जी।'' लड़की ने मुस्कान के साथ अपना
नाम बताया।
''बूटी!'' उसने मन में दोहराया। मेरे लिए तो संजीवनी बूटी है।
''कुछ बोले क्या?'' बूटी ने पूछा।
सत्यम हड़बड़ा गया और इनकार
में गर्दन हिलाने लगा। संजीवनी बूटी असर कर चुकी थी, वह भूल
गया वह यहाँ क्यों आया था?
वह फिर हँसने लगी।
कुरबान!
''आमी किछु खावर आनी।'' वह हँसती हुई मुड़ गई।
वह उसे ओझल होने तक देखता रहा। उसने फैसला कर लिया और मन ही मन
कहा, बरसात बंद होने के बावजूद भी मैं आज रात यहीं रुकूँगा।
बूढ़े की ऐसी की तैसी। साले वरुण ने सामान बढिया फाँसा हुआ है।
कोई बात नहीं, उम्मीद पर दुनिया कायम है। अगर मैं लड़की को
लपेटे में ले लेता हूँ तो ये भी बहुत बड़ी चोट होगी उस पर।
इसी जोड़ जमा में वह बूटी की
प्रतीक्षा करता रहा। उसे लगा वह सचमुच उससे दिल लगा बैठा था।
उसके पास अधिक से अधिक एक रात का समय था, जो किया जा सकता था,
उसी समय में करना था।
अन्तत: प्रतीक्षा की अवधि समाप्त हुई। वह चाय और मूड़ी और
मुस्कराहट के साथ लौटी।
''इसकी क्या ज़रूरत थी।'' सत्यम ने खामाखाह औपचारिक होने की
कोशिश की।
''कुछ चीज़ों को ज़रूरत नहीं कहा जाता।'' उसने ट्रे उसके सामने
तख्त पर रखते हुए कहा।
वह चुप रहा। फिर खान-पान शुरू हो गया।
''क्या वरुण ने आपको मेरे बारे में बताया था?'' कुछ क्षणोपरांत
बूटी ने पूछा।
''आपके बारे में? नहीं। कभी नहीं बताया।
''वह मक्कार आदमी है। बिश्शासघातो।'' वह अचानक
रोषपूर्ण स्वर में बोली।
वह चौंक गया। उसे उससे ऐसी उम्मीद जो नहीं थी। तो क्या उसने
इसे भी धोखा दिया है?
''हम सारे काम सोच-समझ कर नहीं करते, और जब सोचने-समझने का समय
आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है, तुम्हारी पहुँच से
सारी चीज़ें बाहर हो जाती हैं।'' वह उसे नहीं देख रही थी, वह
कहीं नहीं देख रही थी, वह अपनी स्मृति में कहीं उलझी हुई थी।
वह कुछ समझा, कुछ नहीं समझा।
''मैं नहीं जानती, आप उसे कितना जानते हो लेकिन वह मेरा जीवन
खोराब करके चला गया है...'' उसके चेहरे पर अपार वेदना थी।
मुस्कराहट बहुत पहले खो गई थी,''...ओर कोपाल भालो, शोब ओर
पोक्खे होलो और आमार कोपाल खराब, शोब गेलो।''
वेदना आँसू बनकर उभर आई। वह उसकी इस हरकत से घबरा गया। लड़की
का शुरू का आत्मविश्वास और दृढ़ता खोखले साबित हुए।
''आप प्लीज...रोओ नहीं।'' वह सिर्फ़ यही कह सका।
''रोऊँ नहीं तो क्या करूँ? मैंने उससे प्रेम किया और उसने मेरे
साथ छल किया। एक वर्ष होने को है, उसने अपना मुँह तक नहीं
दिखाया, और तो और वह मुझसे दस हज़ार रुपये भी ले गया है। माँ
बाबा को तो कुछ भी पता नहीं है। अगर उन्हें ये सब मालूम हो जाए
तो...। मेरे माँ बाप बहुत गरीब हैं। कुछ भी नहीं है उनके पास,
केवल ज़माने के आघातों के सिवा। अगर उन्हें मालूम हो जाए कि
वरुण उनकी बेटी को झूठे सपने दिखाकर खराब करके चला गया है तो
यह उनके लिए अन्तिम आघात होगा।'' वह फिर रोने लगी।
सत्यम उठा और तख्त के उस
किनारे पर बैठ गया जिसके करीब स्टूल पर बूटी बैठी थी। उसने
इधर-उधर देखा, कहीं कोई नहीं था, न बूढ़ा न बुढ़िया। उसने बूटी
के कंधे पर हाथ रखा और चुप कराने के भाव से पीठ सहलाने लगा।
बूटी ने आँसू पौछते हुए उसे अजीब-सी नज़रों से देखा तो उसने
अपना हाथ खींच लिया।
''एक बात पूछूँ?''
उसने आँसू पौंछते हुए सत्यम को देखा।
''आपको कैसे पता वरुण दिल्ली में नहीं है?''
''पिछले महीने उसका फोन आया था, किसी नए और अजनबी नम्बर से।
उसी ने बताया था कि वह इन्दौर में है और फिलहाल वहीं रहेगा।
मगर जो मुझे बताना था वह मैं उसे नहीं बता पाई।''
''क्या?'' सत्यम ने पूछा।
बूटी ने उत्तर नहीं दिया। उसने अपनी चाय नहीं पी थी। वह उठ
खड़ी हुई।
''मैं अपनी चाय गरम करके लाती हूँ।'' वह धीरे से बोली और चाय
उठाकर चली गई।
वह उसकी अजीब सी नजरों के
बारे में सोच रहा था। पता नहीं, उसे बुरा लगा या नहीं। लेकिन
उसने इस बात की चिन्ता की। उसके स्पर्श को अपने हाथ पर महसूस
करता हुआ वह फिर प्रतीक्षा करने लगा।
बारिश पहले की अपेक्षा कुछ हल्की हो गई थी। बारिश का पानी
गलियारे के फ़र्श तक आ गया था। उसने समय देखा। पाँच बजने वाले
थे। उसे विश्वास था कि एक रात तो वो यहाँ निकाल ही लेगा
क्यों कि उसकी प्राथमिकता बदल गई थी। फिलहाल उसका टार्गेट बूटी
थी, वरुण नहीं। उसे फिर अपने चाकू का ध्यान आया। साली, सीधे से
मान जाएगी तो ठीक वर्ना गर्दन पर टिकाऊँगा और...। चाकू टटोलते
हुए उसने सोचा। वैसे चाकू की नौबत न ही आए तो अच्छा है। उसे
याद आया, उसने और वरुण ने कई बार एक ही लड़की के साथ रात
गुज़ारी है। इसलिए अगर वह बूटी के साथ कुछ करता है तो इसमें
कोई बुराई नहीं है क्यों कि वरुण का माल उसका माल। वैसे वरुण
बड़ा ही कमीना है। लड़की पर तो हाथ मारा ही मारा, उसके दस
हज़ार रुपये और ले उड़ा।
काफी देर बाद बूढ़ा आया, बूटी
नहीं। बूढ़े ने उससे यहीं रुक जाने का आग्रह किया और कहा कि घर
में जो रूखा-सूखा है, वही वह खिला देगा। अन्धा क्या चाहे, वह
तो खुद यहीं रुकना चाहता था। अब बूटी उसकी पहुँच से दूर नहीं
है।
बूढ़े के जाने के बाद वह फिर तख्त पर लेट गया। बाहर बारिश थी,
गलियारे में बारिश का पानी और दीवार पर छिपकलियाँ। और इन सबके
बीच एक चेहरा, साँवला और तीखे नयन-नक्श वाला चेहरा। वह मेरे
लिए खाना बना रही होगी। क्या वह मेरे बारे में भी सोच रही
होगी? अनायास ही वह रोमान्चित हो उठा, मौसम की तरह।
आखिरकार, जब वह आई तो खाना ही
लेकर आई। इस बीच टायलेट वगैरह हो आया था और हाथ मुँह धोकर
तरोताज़ा हो गया था। बूढ़े ने उसके सोने का इन्तज़ाम तख्त की
दीवार के पीछे बने एक कमरे में किया था। बूढ़े ने बताया था कि
उसका बेटा अपनी ससुराल गया हुआ है जो दो-तीन दिन में आएगा और
साथ वाला कमरा उसके बेटे का है। सबसे छोटे बेटे की दुर्घटना से
मौत होने के कारण बूटी की माँ का मानसिक सन्तुलन बिगड़ गया है
इसलिए वह अपने कमरे में ही रहती है। सामने तीन कमरे बने थे
जिनमें से एक में वरुण मंडल रहता था। एक तीव्र-सी इच्छा उसके
भीतर से उठी कि वह वरुण का कमरा देखकर आए। वह ऐसा कर भी देता
मगर बरामदे में भरे पानी के कारण उसने अपनी इच्छा को मर जाने
दिया।
ऐसे बरसते मौसम की शाम में
शराब पीने की एक तीव्र-सी इच्छा उसके भीतर से उठी मगर इस इच्छा
को भी उसने मर जाने दिया।
बूटी ने खाना उसके सामने रख दिया। एक तीव्र-सी इच्छा उसके भीतर
से उठी कि वह खाने को एक तरफ़ करके बूटी को यहीं दबोच ले मगर
अपनी इस इच्छा को मरने नहीं दिया बल्कि कुछ समय के लिए स्थगित
कर दिया।
''आज मैं पहली बार बंगला खाना खाऊँगा।'' उसने साफ-साफ झूठ
बोला। वरुण ने उसे कई बार खाना बनाकर खिलाया है। वह सचमुच बहुत
अच्छा खाना बनाता है।
''वरुण तो बहुत अच्छा खाना बनाता है'' बूटी ने ऐन वही बात कही
जो उसके भीतर घूम रही थी, ''क्या आपको कभी नहीं खिलाया?'' बूटी
ने आँखे फैलाते हुए कहा। बार-बार आँखे फैलाना शायद उसकी आदत
थी।
''नहीं। कभी नहीं खिलाया।'' उसने उसकी फैली आँखों में झाँका।
''मित्थे कोथा।'' बूटी ने भी उसकी आँखों में झाँका, ''बड़ी
खूबसूरती से झूठ बोलते हो?''
वह हड़बड़ाया पर जल्दी से सँभल गया।
''और भी बहुत से काम हैं जो मैं बड़ी खूबसूरती से करता हूँ।''
सँभलने के साथ ही उसने कहा।
''खाना आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।'' बूटी ने खाने की ओर इशारा
किया।
''क्या-क्या बना दिया?'' उसने सामने रखे दाल चावल को देखते हुए
कहा।
''माछेर झोल, मांसो, आलू भाजा।'' उसने कुछ बांग्ला पकवानों के
नाम बताए, ''ये सब नहीं है सिर्फ़ दाल भात है।''
उसने रिक्त भाव से खाने को
देखा। खाने की इच्छा नहीं थी। उसने एक बार बरामदे में जलते
बल्ब को देखा जिसका क्षीण प्रकाश वहाँ फैला हुआ था। जलते बल्ब
के ईद गिर्द बरसात के दिनों में आने वाले ढेरों कीट पतंगे उड़
रहे थे। कोई बड़ी बात नहीं थी कुछ उसके खाने में भी गिर जाएँ।
मच्छरों से तो उसका परिचय शाम होते ही होने लगा था। यहाँ कुछ
भी सही नहीं था सिर्फ़ सामने खड़ी लड़की को छोड़कर। उसने बूटी
को देखा। वह वापस जाने के लिए मुड़ रही थी।
खाना खाने के बाद वह
प्रतीक्षा करने लगा। बूटी का व्यवहार उसे समझ नहीं आ रहा था।
पता नहीं, काम बन भी पाएगा या नहीं। और अभी तो उसे वरुण का
इन्दौर का मोबाइल नम्बर भी लेना है। शायद उससे कुछ बात बन जाए।
नहीं तो उसे फोन करके धमका तो सकता ही है।
वह झूठे बर्तन लेने आई।
''मुझे वरुण का इन्दौर वाला नम्बर दे देना।'' जब वह बर्तन
उठाने लगी तो सत्यम बोला।
''अभी चाहिए?'' उसने फिर आंखे फैलाई, ''अभी तो सारी रात बाकी
है, बात भी बाकी है।'' उसने शायराना अन्दाज़ में कहा।
उसने आश्चर्यमिश्रित निगाहों से उसे देखा। वह मुस्करा रही थी।
इसका क्या अर्थ लगाए?
''थोड़ी देर में आती हूँ।'' उसने कहा और बर्तन लेकर गलियारे के
पार वाले मकान के दूसरे हिस्से में चली गई।
थोड़ी देर उसकी बहुत देर बाद
हुई। वह बिस्तर पर करवट बदल रहा था। कमरे का पंखा, जब यह मकान
बना होगा तभी लगा होगा, मर-मर कर हवा दे रहा था। बल्ब का पीला
क्षीण प्रकाश रोशनी देने के स्थान पर चुभ रहा था। कमरे में भी
दो छिपकलियाँ विचर रही थीं। बूटी की कल्पना में वह बुरी तरह
बेचैन हो रहा था। और बाहर अभी भी बारिश हो रही थी। जैसे ही
उसके आने की आहट उसे सुनाई दी थी, उसने समय देखा था। रात के दस
से अधिक बज चुके थे।
उसके बाद सुबह के दस कैसे
बजे, उसे नहीं पता चला। बहुत शानदार और यादगार रात से उसका
सामना हुआ था। जैसा उसने सोचा था, चाहा था, कल्पना की थी, सब
कुछ वैसा ही हुआ था। वह जीत चुका था। वरुण को ज़बरदस्त चोट दे
चुका था। सुबह आसमान खुला हुआ था। बरामदे का पानी बह चुका था।
चलते समय बूटी ने उसे एक पत्र दिया था, जो उसे उसने वरुण को
देना है अगर वह उसे मिलता है और उसे उसका वादा याद दिलाया था।
तब उसे याद आया कि रात बूटी ने उसके बारे में सब कुछ जान लिया
था, यहाँ आने का उद्देश्य भी। उसने उससे वादा लिया था कि अगर
वरुण से वह बदला लेता है तो उसे जरूर सूचना देगा, पत्र देने की
भी।
वह सोच रहा था, क्या ज़रूरत
पड़ी है उसे सूचना देने की। और पता नहीं वरुण कब मिले? तब तक
क्या वह उसकी चिट्ठी ढोता फिरेगा। बाहर निकलते ही फाड़कर फैंक
देगा।
''भूलना नहीं।'' बूटी ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा।
''क्या मैं भूल सकता हूँ?''
उसकी डबडबाई आँखों को देखता हुआ वह वहाँ से विदा हुआ। वरुण और
उसका मोबाइल नम्बर वह रात ही बूटी से ले चुका था। नम्बर ही
क्या वह तो उसका सब कुछ ले चुका था।
दिल्ली की ट्रेन में बैठते समय उसने दो-तीन बार वरुण का मोबाइल
नम्बर मिलाया था, जिसमें पहुँच से बाहर का मैसेज आ रहा था। फिर
उसे बूटी के दिए हुए पत्र का ध्यान आया। उसने जेब से पत्र
निकाला। पत्र बंगला भाषा में
था। क्या लिखा होगा इसमें बूटी ने वरुण के लिए? क्या मेरे बारे
में भी लिखा होगा? क्या रात के बारे में भी लिखा होगा? उसकी यह
जानने की तीव्र इच्छा हुई कि इस पत्र में क्या लिखा है? उसने
बगल में बैठे यात्री को देखा जो बंगाली ही था और वह उनसे
हिन्दी और बांग्ला दोनों भाषाओं में बात कर रहा था जो उसे
छोड़ने आए थे।
''क्या आप यह चिट्ठी मुझे पढ़कर सुना सकते हैं, मुझे बंगाली
नहीं आती।'' उसने सहयात्री से कहा।
सहयात्री ने उससे पत्र लिया और पढ़ने लगा। बीच में उसने उसे
अजीब सी नजरों से देखा। फिर अन्त में उससे पूछा, ''आप वरुण हैं
या सत्यम?''
''सत्यम।'' उसने उलझनपूर्ण स्वर में उत्तर दिया।
तो सुनिए सत्यम जी, इसमें क्या लिखा है।'' उसने हिन्दी में
बताना शुरू किया।
वरुण, अब तुम प्रिय नहीं रहे।
मैं नहीं जानती कि जो बात इस पत्र में लिखी है तुम्हें उसके
बारे में मालूम है या नहीं। अगर मालूम है तो तुम अपने अंजाम से
परिचित होगे ही और अगर तुम्हें नहीं मालूम तो जब तुम्हें यह
पत्र मिलेगा तो मालूम हो जाएगा। मैं सिर्फ़ इतना कहना चाहती
हूँ, जैसे स्त्री को स्त्री होने की सजा मिल जाती है वैसे
पुरुष को भी तो पुरुष होने की सजा मिलनी चाहिए। हर पुरुष
स्त्री से सिर्फ़ एक ही चीज़ चाहता है और हासिल हो जाने पर
दुत्कारता है। मेरे साथ तो बहुत ही बुरा हुआ। तुम्हें मैंने
अपना सब कुछ मानकर अपना सब कुछ सौंप दिया था और बदले में जो
पाया, वो किसी दुश्मन को भी न मिले। मैंने कुछ तो बदला ले ही
लिया। मैंने तुम्हारे दोस्त सत्यम को वो तोहफा दे दिया जो
तुमसे मुझे मिला, क्षण-क्षण करीब आती मौत का तोहफा। सबसे भयंकर
बीमारी। क्या कहते है उसे, एड्स की बीमारी। तीन महीने पहले
किसी वजह से मेरे रक्त की जाँच हुई थी तो उससे मालूम हुआ। तो
जो मुझे तुमसे मिला वह मैं उन सभी पुरुषों को बाटूँगी जो
मेरी ओर आकर्षित होंगे।
बूटी।
सत्यम के मुँह से बोल नहीं
फूटा। सहयात्री ने पत्र उसकी गोद में रख दिया क्यों कि वह तो
जड़ हो गया था लेकिन ट्रेन दिल्ली की ओर भागी जा रही थी। |