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                     जीवन 
                    में पहली बार वह अपनी आशाओं, इच्छाओं की पोटली बाँधे हवाई 
                    जहाज़ में सवार हुए। पूरी यात्रा में वह बच्चों की तरह चहकते 
                    रहे। वह सब कुछ अपने अंदर समेट लेना चाहते थे। व्योम में 
                    उड़ते, तैरते बादलों को पास से देखते रहे थे, लेकिन नदियाँ, 
                    पहाड़ उनकी पहुँच से अभी भी दूर थे। चौबीस घंटे की यात्रा के 
                    पश्चात वह न्यूयार्क पहुँचे। अभिमन्यु उन्हें लेने पहुँचा हुआ 
                    था। कार में बैठे उन्होंने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई। नभ छूती 
                    ऊँची अट्टलकाएँ, सड़क पर भागती कारें, रोशनियों में नहाया पूरा 
                    शहर। यह सारा दृश्य उन्हें चकाचौंध कर देने वाला था। 
                    घर पहुँचे तो स्मिता और बच्चे 
                    उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। बच्चे दादा–दादा कहते भागकर उनके 
                    गले लग गए। वह भावविह्वल हो उठे। अभिमन्यु उनके पास बहुत कम रह 
                    पाया था। पहले पढ़ाई के कारण बाहर रहना पड़ा, फिर नौकरी के 
                    लिए। अब तो वैसे भी दो वर्ष से मिल नहीं पाया था। तान्या, 
                    वन्या बस जानती–भर हैं दादा–दादी को। साथ रहने का तो उन्हें 
                    अवसर ही नहीं मिल पाया कभी। रात देर तक वह अभिमन्यु, 
                    स्मिता और बच्चों के साथ बैठे बातें करते रहे। अपने बचपन से 
                    लेकर अब तक की कितनी ही घटनाओं, स्मृतियों को साझीदार बना दिया 
                    उन्होंने। अभिमन्यु के बचपन की शरारतों की बात तान्या, वन्या 
                    बड़े मज़े से सुनती रहीं। उन्हें सुबह जल्द ही उठ जाने की आदत 
                    थी। रात समय पर सो जाते थे। पहले दिन वह उठे तो अभी सब सो रहे 
                    थे। रात उन्होंने पूरा सामान नहीं खोला था। सोचा, खोलकर अलमारी 
                    में लगा दें। प्रतिदिन अटैची खोलना अच्छा नहीं लगेगा। बच्चों 
                    के लिए कुछ सामान लाए थे, वह भी निकाल लिया। कितना समय 
                    उन्होंने इसी में लगा दिया। समाचार पत्र आ गया था। वह 
                    पढ़ने बैठ गए। तभी अभिमन्यु जाग गया। उसके बाद स्मिता और बच्चे 
                    भी उठ गए। अभिमन्यु ने उनसे समाचार–पत्र दो मिनट के लिए 
                    देखा–भर और फिर तैयार होकर चला गया। बहू, बच्चे भी तैयार होने 
                    लगे। सभी ने थोड़ा बहुत नाश्ता लिया। उस समय उनका मन कुछ खाने 
                    को नहीं था। स्मिता ने टेबल पर ही रख दिया। जाते हुए कह गई, 
                    ''पिता जी, नाश्ता रखा है, जब जी चाहे ले लें। मैं बच्चों को 
                    स्कूल बस स्टॉप पर छोड़ती हुए अपनी बस ले लूँगी।'' एक–एक करके सब चले गए। वह घर 
                    में अकेले थे। क्या करें अब। अभिमन्यु की कुछ पुस्तकें रखी थी। 
                    वही निकल लीं। थोड़ी देर पढ़ते रहे। फिर नाश्ता ले लिया। 
                    टी.वी. चलाकर देखने लगे, लेकिन उन्हें अंग्रेज़ी के कार्यक्रम 
                    पसंद नहीं आए। फिर से समाचार–पत्र उठाकर पढ़ने लगे। सारे पृष्ठ 
                    पढ़ लिए उन्होंने। वही अपने देश जैसे ही समाचार, राजनीति के 
                    झगड़े, चोरी, डकैती, लूटमार, बलात्कार, दुर्घटनाएँ कहीं कोई 
                    अंतर नहीं। दोपहर के लिए खाना फ्रिज में 
                    रखा था। जैसा गर्म कर सके, करके खा लिया। उन्हें सावित्री की 
                    बहुत याद आई। जब भी उनके खाने का समय होता था, गर्म खाना बनाकर 
                    खिलाती थी, पता नहीं उनके बिना वह ठीक तरह से खाना बनाकर खाएगी 
                    भी कि नहीं। शायद आराधना उसके पास हो। चार बजे स्मिता बच्चों 
                    को लेकर वापस आ गई। आते ही उसने उनके कपड़े बदले, नाश्ता किया 
                    और फिर काम में लग गई। नौकर तो है नहीं, सभी काम स्वयं करती 
                    है। थोड़ी देर तान्या, वन्या उनके पास बैठीं, फिर खेलने चली 
                    गई। वापस आई तो पढ़ने बैठ गई। अभिमन्यु के आने पर थोड़ी 
                    चहल–पहल हुई घर में, लेकिन टी.वी. के चलते ही सब एक दूसरे से 
                    कट से गए। किसी तरह की कोई बातचीत नहीं। रात सोने में फिर 
                    विलंब हो गया। शनिवार, अभिमन्यु, वन्या, 
                    तान्या का अवकाश था। स्मिता काम पर चली गई। उस दिन अभिमन्यु 
                    सुबह से ही घर के काम निबटाने में लग गया। वैक्यूम क्लीनर से 
                    घर साफ़ किया। वाशिंग मशीन में कपड़े धोए। बिखरी चीज़ों को 
                    समेटा, घर को सँवारा। स्मिता के आने पर शाम को सब बाज़ार गए। 
                    वह तो डिपार्टमेंटल स्टोर और लोगों की भीड़ देखकर चकरा गए। 
                    खाना उस दिन सबने बाहर ही खाया। सप्ताह भर का खाने–पीने का तथा 
                    अन्य सामान लेकर वे घर आए।दो दिन तो बीत गए लेकिन उसके बाद फिर क्रम मकड़ी की तरह अपने 
                    जाल में ही उलझते रहते। समय बिताने के लिए साथी नहीं था। सभी 
                    अपने–अपने काम पर चले जाते हैं। उनका समवयस्क कोई आस–पास नहीं। 
                    सावित्री साथ आती तो कितना अच्छा रहता। जीवन की इस सांध्य बेला 
                    में उसका साथ अनिवार्यता बन गया है। उनके साथ बात करनेवाला कोई 
                    नहीं। सारा दिन ऊबते रहते। अभिमन्यु और बच्चों के साथ भी अब 
                    वैसी बातचीत नहीं हो पाती। सब अपने–अपने काम में व्यस्त रहते 
                    हैं। थोड़ी–बहुत बात हो भी जाए तो उनका मन नहीं भर पाता।
 स्वयं को व्यस्त रखने के लिए 
                    वह सुबह तान्या, वन्या को बस स्टॉप तक छोड़ने चले जाते हैं। 
                    शाम को वापस ले आते हैं। बिखरी वस्तुएँ सँभाल देते हैं। दूध की 
                    बोतलें ले आते हैं। इससे थोड़ा चलना भी हो जाता है और काम भी 
                    हो जाता है। सर्दी अधिक होने के कारण उनके हाथ–पाँव में अकड़न 
                    रहने लगी है। सिकाई के लिए वह स्वयं पानी गर्म कर लेते हैं। 
                    स्मिता को वह किसी तरह का कोई कष्ट नहीं देना चाहते, जबकि वह 
                    उनकी प्रत्येक सुविधा का ध्यान रखने का प्रयत्न करती है। लेकिन 
                    वह स्वयं को असंतुलित पाते हैं। उनका मन दूर अपने देश, अपने 
                    छोटे–से घर और उसमें रहती सावित्री की ओर ही रहता है। उन्हें 
                    यहाँ आए दो मास हो गए थे। इस बीच वह घर के आस–पास कई जगह अकेले 
                    चले जाते हैं। दूर जाने से उन्हें डर लगा रहता, कहीं रास्ता ही 
                    भूल न जाएँ और घर पहुँचना कठिन हो जाए। अपने इस छोटे से शहर से 
                    तो वह एक–एक गली से परिचित हैं। इस सप्ताहांत अभिमन्यु को एक 
                    पार्टी में जाना था। वह उन्हें भी साथ ले गया। उनके लिए उसने 
                    नया सूट बनवाया। उनके कपड़े शायद उसके सामाजिक स्तर के अनुसार 
                    नहीं थे। वह पहली बार घूमने निकले थे। पार्टी क्लब में थी। जब 
                    वे पहुँचे, बहुत से लोग आ चुके थे। अभिमन्यु ने उन्हें सबसे 
                    मिलाया, ''मीट माई फादर''। तान्या वन्या ने भी अपनी समवयस्कों 
                    से उन्हें परिचित कराया, ''यह हमारे दादा जी हैं यानि ग्रैंड 
                    फादर।''उन्होंने सबके अभिवादन का उत्तर दिया। अभिमन्यु और बच्चे सभी 
                    अपने–अपने मित्रों में व्यस्त हो गए। बच्चे चहक रहे थे। उनके 
                    लिए यह एक विशेष अवसर था, जिसका वह पूरा उपयोग करना चाहते थे। 
                    वह एक जगह जाकर बैठ गए। सभी अपने–अपने परिचितों के बीच मग्न 
                    थे। वह अकेले पड़ गए उनके भीतर कुछ कचोटने लगा था, तार–तार हो 
                    बिखरने लगा था। अभिमन्यु ने तो सम्मान से उनका परिचय करवाया था 
                    लेकिन वह उन सबके बीच केवल अभिमन्यु, स्मिता के पिता हैं। 
                    तान्या, वन्या के दादाजी हैं। बस, उन्हें उनके नाम रामप्रकाश 
                    शर्मा से कोई नही जानता। यह नाम तो वह अपने शहर, अपने घर छोड़ 
                    आए हैं, जहाँ उनका अपना अस्तित्व था, अपनी पहचान थी, उनका 
                    परिचय किसी का आश्रित नहीं था। चाहे वह उनका अपना ही बेटा 
                    क्यों न हो, लोग तो यहाँ अभिमन्यु को जानते हैं और वह अभिमन्यु 
                    के पिता हैं, बस।
 अभिमन्यु, स्मिता एक–दो बार 
                    उनके पास आए, खाने–पीने के लिए पूछते रहे, कोई असुविधा हो रही 
                    हो तो बताएँ। वह उन्हें मुस्काकर उत्तर देते रहे लेकिन जो कुछ 
                    उन्हें अंदर साल रहा था, व्यथित कर रहा था, उसे वह व्यक्त नहीं 
                    होने देना चाहते थे। असहज होकर भी सहज दिखाने का प्रयत्न कर 
                    रहे थे। अपने शहर में वह विवाहोत्सवों में सम्मिलित हुए थे 
                    लेकिन यह पार्टी उन सबसे भिन्न थी। विदेश में रहते हुए 
                    अभिमन्यु भी शायद ऐसी पार्टियों का अभ्यस्त हो गया है। रात देर 
                    तक पार्टी चलती रही। लगभग दो बजे सब घर वापस आए। वे सब तो सो 
                    गए लेकिन उन्हें नींद नही आ रही थी। उनकी आँखों के सामने अपना 
                    शहर, घर, सावित्री, परिचित लोग आते रहे जो बरसों से उनके साथी 
                    थे। अपने देश की हवाओं, मिट्टी की सोंधी सुगंध के लिए वह 
                    व्याकुल हो उठे। कमरे में नितांत निपट अकेले पड़े, वह दीवार पर 
                    छत पर, कई-कई चित्र देखने लगे। उन्हें नदियाँ, पहाड़, झरने 
                    दिखाई देने लगे, जिन्हें वह अब तक नहीं देख पाए थे। इतनी सर्दी 
                    में भी उन्हें पसीना आने को हो रहा था। उन्होंने उठकर पानी 
                    पिया। कुछ ठीक अनुभव किया। कैसे वह इस मृगतृष्णा में फँस 
                    गए। उन्हें स्वयं पर क्रोध आने लगा। सावित्री की बात मान ली 
                    होती तो अच्छा रहता। वह बहू–बेटे के मोह में नहीं पड़ी। हमेशा 
                    उनकी बात मानने पर भी वह यहाँ आने के लिए सहमत नहीं हुई। पहले 
                    तो उन्हें अच्छा नहीं लगा था लेकिन अब सोचते हैं ठीक ही किया 
                    उसने। लेकिन हो सकता है उसके साथ आने से उनका मन लगा रहता। पर 
                    फिर वह सोचते हैं यहाँ आकर वह भी उनकी तरह अभिमन्यु की माँ और 
                    तान्या, वन्या की दादी ही तो रहती। यही सब सोचते पता नहीं कब 
                    उन्हें नींद आ गई। जब आँख खुली तो सवेरा हो चुका था। सभी 
                    अपने–अपने कमरों में सो रहे थे। अवकाश होने के कारण किसी को भी 
                    काम पर नहीं जाना। सब देर से उठेंगे, फिर काम में जुट जाएँगे। 
                    शाम घर का सामान खरीदने चले जाएँगे, जबकि उनका मन करता है, सब 
                    उनसे बातें करें, उनके साथ दूर–दूर तक घूमने जाएँ। वह उनके साथ तो नहीं जा पाए, 
                    अकेले ही घूमने निकल आए। बाहर धुंध छा रही थी। वह एक बार बाहर 
                    निकल आए थे, इसलिए आगे बढ़ते गए। उन्हें पता ही नहीं चला कि वह 
                    कितनी दूर और किस रास्ते पर चले जाए हैं। सड़क के किनारे खड़े 
                    हो वह सोचते रहे। अपने जीवन का कितना लेखा–जोखा कर लिया था यह 
                    तो तब पता चला जब लोगों का आना–जाना शुरू हो गया था। वह सड़क 
                    के किनारे सावधानी से चलते जा रहे थे, उनके मन ने इस बीच एक 
                    निर्णय ले लिया था। वह आज ही अभिमन्यु से वापस जाने के लिए 
                    कहेंगे। वहाँ जाकर वह सावित्री को साथ लेकर और नहीं तो 
                    हरिद्वार चले जाएँगे। गंगा के शीतल जल में स्नान के विचार से 
                    ही उनके शरीर में सिहरन–सी होने लगी। घर की ओर बढ़ते कदम और 
                    तेज़ हो गए, पर सिंहरन रुकी नहीं। उनका पूरा शरीर काँपने लगा। 
                    वह अपने आपको सँभाल नहीं पाए और सड़क के किनारे गिर पड़े। 
                    उन्हें अपना साँस रुकता–सा लगता। आँखों के आगे अँधेरा छा गया, 
                    जो धीरे–धीरे गहरा होता जा रहा था।  |