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                     एक बार नींव बनवाई, दूसरी बार 
                    ढाँचा तैयार हुआ। पलस्तर–फ़र्श तो तीसरी बार में जैसे–तैसे बन 
                    गया, लेकिन लकड़ी का काम वह यहाँ आने से पहले तक करवा रहे थे। 
                    उनकी इच्छा थी कि सेवानिवृत्ति से पहले यह काम हो जाना चाहिए, 
                    फिर वह उसमें आराम से रह सकेंगे। 
                    मकान तो बन गया था, पर पता नहीं 
                    सेवानिवृत्त होते ही उन्हें यह धुन सवार हो गई कि वह अपने बेटे 
                    के पास जाएँगे। इसके पीछे भी एक कारण था। उनके पिता जी गाँव 
                    में रहते थे, वहीं प्रारंभिक शिक्षा हुई। बाकी की शिक्षा 
                    उन्होंने रामपुर में पूरी की और फिर वहीं वह एक विद्यालय में 
                    शिक्षक हो गए। पढ़ाना जो शुरू हुआ तो फिर जीवन की गाड़ी अठावन 
                    पर ही आकर रुकी। बीच के स्टेशन कब चले गए उन्हें पता ही नहीं 
                    चला। घर–गृहस्थी का काम सावित्री के कंधों पर था। वह तो बस 
                    वेतन लाकर उसे दे देने का दायित्व पूरा–भर कर देते थे। शेष काम 
                    तो स्वयं सावित्री देखती। बच्चे पढ़ने में होशियार थे, उनकी 
                    चिंता उन्हें नहीं थी। पढ़ाई के साथ–साथ उनका आचरण ही ऐसा था 
                    कि कभी उन्हें किसी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा। स्कूल की 
                    पढ़ाई समाप्त कर वह कॉलिज में चले गए। घर का खर्चा चाहे उन्हें 
                    कम करना पड़ा लेकिन बच्चों की पढ़ाई में उन्होंने कोई कमी नहीं 
                    छोड़ी। लड़कियाँ अभिमन्यु से छोटी थीं पर उन्होंने पहले उनकी 
                    शादियाँ कर दी। अभिमन्यु अच्छी नौकरी पर लग गया। तीन बरस बाद 
                    उसका विवाह भी कर दिया था। उस दिन के बाद वह अपने सारे 
                    उत्तरदायित्वों से मुक्त हो गए। अर्चना, आराधना अपने घर में 
                    सुखी थी। अभिमन्यु को ऑफ़िस की ओर से विदेश जाने का अवसर मिल 
                    गया था। दो वर्ष से वह अपने घर नहीं 
                    आया था। पत्र वह लिखता रहता था हर पंद्रह दिन के बाद वह उसके 
                    पत्र की प्रतीक्षा करने लगते थे। सावित्री कहती, अभी पिछले 
                    महीने ही तो उसका पत्र आया है। उसके पास इतना समय कहाँ होता 
                    होगा, जो आपको पत्र लिखता रहें। किंतु उन्हें विश्वास रहता था 
                    कि पत्र अवश्य आएगा। अभिमन्यु भी उनके इस विश्वास को बनाए रखता 
                    था। समय पर उसके पत्र आते थे। वह गदगद हो उठते। अपनी खुशी वह 
                    अपने मित्रों में बाँटते। देखो, मेरे अभिमन्यु का पत्र आया है। 
                    बड़ा होनहार बेटा है। विदेश में जाकर भी अपना कर्तव्य पूरी तरह 
                    से निभाता है।  उनकी सेवानिवृत्ति में छह मास 
                    शेष रह गए थे। स्कूल में बैठे एक दिन उन्होंने अभिमन्यु के पास 
                    जाने का विचार कर लिया। उसके पास हर सुख–सुविधा है। कोई कमी 
                    नहीं। इस तरह वह उसके पास ही रह सकेंगे। लेकिन इससे भी प्रबल 
                    कारण और था। अठावन की आयु होने पर भी वह अपने इस कस्बेनुमा नगर 
                    से बाहर नहीं गए थे। प्राइवेट स्कूल की नौकरी, उस पर 
                    घर–गृहस्थी, बच्चों का दायित्व निभाते हुए उन्हें कभी यह विचार 
                    ही नहीं आया। या यों भी कहिए कि समय ही नहीं मिला कि वह कहीं 
                    घूम आते। अभी तक उन्होंने चार स्थान ही देखे थे। अपना गाँव, 
                    रामपुर, सीतापुर और कुछ घंटों के लिए दिल्ली, जब वह अभिमन्यु 
                    को छोड़ने आए थे। स्कूल में वह सामाजिक विज्ञान पढ़ाते थे। 
                    पहले स्कूल आठवीं कक्षा तक था, तब कभी–कभार एकाध विषय और भी 
                    पढ़ा दिया करते थे। लेकिन जब से हाई स्कूल हुआ वह सामाजिक 
                    विज्ञान के अध्यापक हो गए। आर्यों के आगमन से देश के 
                    स्वतंत्रता–संग्राम तक का इतिहास पढ़ाते–पढ़ाते वह कब स्वयं भी 
                    एक इतिहास बन गए, पता ही नहीं चला। इतिहास पढ़ाते हुए वह 
                    राजाओं की राजधानियों और कई नगरों के नाम लेते। उनके 
                    ऐश्वर्य–समृद्धि का वर्णन करते–करते वह कई बार खो–खो जाते। 
                    उन्होंने अपने इस छोटे–से शहर को छोड़कर और कुछ अच्छी तरह देखा 
                    नहीं था। उनके मन में उन्हें देखने की लालसा जाग उठती। उस समय 
                    तो वह विह्वल हो उठते जब वह भूगोल पढ़ाते हुए ऊँचे–ऊँचे 
                    पहाड़ों, झरनों, समुद्र और नदियों के नाम लेते, मानचित्र पर 
                    उन्हें दिखाते हुए कल्पना में ही वह गाड़ी पर बैठते। हवाई 
                    जहाज़ की यात्रा करते। ऊँचे–ऊँचे पहाड़ों के शिखरों को देखते। 
                    समुद्र की लहरों को छूते और नदी के शीतल जल में नहाते। कई बार 
                    उन्होंने सोचा भी कि एक दो जगह घूम आएँ लेकिन समय और अर्थ 
                    दोनों की समस्या उनके आड़े आती रही। पारिवारिक बंधनों से थोड़े 
                    मुक्त हुए तो सामाजिक बंधनों में बँध गए। पहले तो स्कूल में 
                    पढ़ाने के बाद जो समय मिलता था, थोड़ी बहुत ट्यूशन कर लेते थे। 
                    हाथ खुला रहता था, किफ़ायत तो करनी ही पड़ती थी, लेकिन ऊपर से 
                    थोड़े–बहुत ख़र्चे निकल जाते थे। कुछ जमा भी हो जाता था। जमा 
                    करने की न सोचते तो बच्चों की पढ़ाई और उनके विवाह कैसे कर 
                    पाते। सावित्री का पूरा सहयोग उनके साथ रहा। आदर्श गृहिणी की 
                    तरह सारे उत्तरदायित्वों को पूरा करने में वह उनके साथ रही। 
                    कभी किसी बात के लिए इनकार नहीं, तकरार नहीं। उनकी हर बात को 
                    सिर माथे पर लेती रही। दुख के दिन आए फिर भी उनके साथ झेलती 
                    रही। अर्चना, आराधना का विवाह हो 
                    गया। अभिमन्यु अपनी नौकरी पर चला गया तो उन्हें ट्यूशन करने की 
                    आवश्यकता नहीं रही। समय बहुत मिल जाता था। पुस्तकालय से 
                    पुस्तकें लाकर पढ़ते रहते। सुबह स्कूल जाने से पहले एक घंटा 
                    पढ़ते, रात खाना खाने के बाद घूमने जाते फिर आकर पढ़ते। लेकिन 
                    सारा दिन पढ़ा भी नहीं जाता। शाम को बाहर निकल जाते। उनके कई 
                    हम उम्र रिटायर हो चुके थे, कई होने वाले थे। बस, उन सबकी एक 
                    टोली बन गई। किसी–न–किसी के घर में इकट्ठा हो जाते। 
                    स्कूल–ऑफ़िस की बातें शुरू होती राजनीति पर आ जाती। देश की 
                    समस्याओं का वर्णन करते–करते अपने शहर की समस्याओं पर आ जाते। 
                    लोगों की कठिनाइयों की चर्चा करते। धीरे–धीरे ये समस्याएँ केवल 
                    चर्चा का विषय ही नहीं रह गई। अपितु उनका समाधान भी निकाला 
                    जाने लगा। ऐसा करते–करते वह कब प्रधान बन बैठे, पता ही नहीं 
                    चला। फिर तो किसी का नगरपालिका में काम हो, बिजली के दफ्तर 
                    में, किसी स्कूल में या अस्पताल में, हर जगह वह लोगों की 
                    सहायता करने लगे। कोई भी काम हो, वह साथ जाते, अफ़सरों से 
                    मिलते और उनका काम हो जाता। अब वह शहर के एक महत्वपूर्ण 
                    व्यक्ति बन गए थे। उनका अपना एक अलग व्यक्तित्व, अलग पहचान थी, 
                    अस्तित्व था। लोगों में सम्मान की दृष्टि से देखे जाते थे। 
                    दूसरों का सम्मान करना एक शिष्ट आचरण है और दूसरों से सम्मान 
                    पाना एक नशा है। यह नशा उन्हें भी हो गया था। बस, दिन–रात समाज 
                    सेवा में जुटे रहते। पढ़ना थोड़ा कम हो गया था लेकिन घूमना, 
                    ऐतिहासिक स्थान देखना, पहाड़ों की ठंडी हवा और नदियाँ, समुद्र 
                    उनके लिए अब भी स्वप्न थे। जब भी खाली होते वह कल्पना में खो 
                    जाते। उनका जी चाहता वह फिर से बच्चे बन जाएँ और अपने पिता की 
                    उँगली पकड़कर उनके साथ चलें। उन्हें यह सब दिखाने के लिए ज़िद 
                    करें। सावित्री ने उन्हें कई बार 
                    सलाह दी थी कि छुट्टियाँ होने पर वह कहीं घूमने जाएँ, लेकिन 
                    कभी लोगों के काम होने के कारण नहीं जा पाए और कभी अकेले जाने 
                    में ही जी घबराने को हो जाता। इस आयु में वह कहाँ भटकते 
                    फिरेंगे। कभी कहीं गए ही नहीं। रहना, खाना, पीना सब कैसे हो 
                    पाएगा? बस यही सब सोच मन मसोसकर रह जाते। फिर उन्होंने इस बारे 
                    में सोचना ही छोड़ दिया था। अपनी दिनचर्या से ही संतुष्ट हो 
                    जाते। अब अपने कर्मक्षेत्र में उन्होंने सावित्री को भी साथ ले 
                    लिया था। सारा दिन अकेली बैठी ऊबने लगती थी। सब कुछ ठीक तरह से चल रहा था, 
                    फिर पता नहीं उन्हें क्या हुआ? अंतर में दबी भावनाओं में फिर 
                    उबाल आने लगा। उन्हें अकेले जाने में डर लगता था, लेकिन इस बार 
                    उन्होंने कुछ और ही सोच लिया था। अभिमन्यु के पत्र के उत्तर 
                    में उन्होंने अपनी इच्छा प्रकट की कि वह उसके पास आना चाहते 
                    हैं लेकिन जब सावित्री को मालूम हुआ तो वह साथ जाने के लिए 
                    सहमत नहीं हुई। सदा साथ निभाने वाली सावित्री ने जो एक बार 
                    इनकार किया तो उसे मनाने में वह असमर्थ ही सिद्ध हुए।
                    अभिमन्यु ने आदर्श पुत्र का कर्तव्य निभाकर, उन्हें आने के लिए 
                    क्या–क्या करना है, पत्र में लिख दिया। टिकट का प्रबंध कर 
                    दिया। इधर वह सेवानिवृत्त हुए और उधर उनके जाने की सारी 
                    औपचारिकताएँ पूरी हो गईं। परिचितों को उनके जाने की सूचना मिल 
                    गई थी। सभी मिलने आते रहे। उनके यहाँ आने के बारे में सबकी 
                    अपनी–अपनी राय थी। किसी ने जाने की प्रशंसा की तो किसी ने कह 
                    दिया, अपने घर जैसी कहीं बात नहीं शर्मा जी, अब तो रिटायर हो 
                    गए हैं यहीं मौज–मस्ती करते।
                    लेकिन उनका कार्यक्रम तो बन चुका था, पीछे हटने वाली कोई बात 
                    नहीं थी। वैसे भी सबकी प्रतिक्रिया जानने लग जाएँ, उनके बारे 
                    में सोचें तो कोई काम ही न हो। अंतत: अर्चना, आराधना के परिवार 
                    के अतिरिक्त उनके दो साथी भी उन्हें दिल्ली तक छोड़ने आए थे। |