उस
दोपहर आम के बगीचे में बुआ अपनी सखियों की फ़रमाईश पूरी कर
रहीं थीं, ''ओ बसंती पवन पागल न जा रे न जाऽ... रोको कोई...।''
उन्हें बुलाने आया मैं फज़ली आम के एक पेड़ के पीछे चुपचाप,
मंत्र-मुग्ध-सा खड़ा रहा। गीत समाप्त कर वह अपनी सभी सहेलियों
को आदेशात्मक स्वर में समझा रहीं थीं, ''आज से हर कोई मुझे
माधुरी कहेगा...नो बिटिया-फिटिया...अंडरस्टैंड?'' बुआ का फौजी
अंदाज़ अर्से बाद वापस लौट आया था। मुझसे यह सूचना पाकर कि
चाचा को देखने ''अगुआ' लोग आए हुए हैं, बुआ चली तो थीं
तनकर...यह घोषणा करती हुईं कि स्सालों की चाय में नमक मिला
देनी है आज...। मगर घर के करीब पहुँचते ही अचानक भींगी बिल्ली
बनकर, पिछवाड़े से घुसीं भीतर और फौरन चौके में व्यस्त हो गईं।
चाय की ट्रे देकर जब मैं लौटा, बाबा भी मेरे पीछे-पीछे चौके
में। एक तस्वीर बुआ की तरफ़ बढ़ाते हुए उन्होंने अपनी राय भी
चस्पा कर दी, ''लड़की क्या है, समझो चाँद का टुकड़ा है। आते ही
उजाला कर देगी पूरे घर में।'' बुआ ने केवल एक उचटती दृष्टि
फेरी थी उस तस्वीर पर और हौले से मुँह बिचका दिया था।
बाबा ने आगे बढ़कर इस रिश्ते को
फौरन लपक लिया था। दरअसल वह नकद राशि की मुटाई और सामानों की
फेहरिस्त की लंबाई से इतने बौरा से गए थे कि सभी रिश्तेदारों
के आगे एक ही जुमला अलाप रहे थे, ''बिन माँगे मोती मिले, माँगे
मिले न भीख।'' जैसा कि ऐसे माहौल में होना तय था, वही हुआ।
घमासान किस्म के घरेलू झगड़े। माँ-बाबूजी भी शहर लौट चले मुँह
फुलाकर। जबरन मुझे भी संग लेकर। बाबूजी तो भीतर से इतने
उद्विग्न थे कि ट्रेन में बैठने के बाद भी बड़बड़ा रहे थे,
''बस्ती से नाश्ता-रिश्ता अब ख़त्म ही समझो। मान लो कि कोई
अपना नहीं वहाँ...सौतेले हैं...सब सौतेले।''
''क्या बिटिया बुआ भी?'' आदतन टपक पड़ा मैं और बदले में पिता
की अंगारे जैसी घूरती उन आँखों की याद आज भी बरबस झुरझुरी देती
है।
''सब तो अपना-अपना सँभाल
लेंगे, बेचारी बिटीबाऽ...कहीं की भी न रहेगी। एक तो शक्ल सूरत
से कमतर...दूजे देह भी गला दिया खट-खट-कर।'' जब भी बस्ती का
ज़िक्र छिड़ती शहर में, माँ ऐसा ही कुछ प्रलाप करतीं। शहर में
नया स्कूल, नए मित्र और एकदम भिन्न परिवेश। बुआ शनैः-शनैः
फिसलती ही चली गईं दिलो-दिमाग़ से। फिर भी अकेले में कभी-कभी
कुछ टीसता कलेजे में। बहुत दूर से आती गुनगुनाने की आवाज़ बेहद
अपनी जान पड़ती। ख़ासकर उस दिन जब बुआ की चिट्ठी आती।
बुआ के पत्र लंबे होते और
तमाम तरह की सूचनाओं से भरे होते। उन्हीं सूचनाओं के माध्यम से
बस्ती को पकड़ने की एकतरफ़ा कोशिश होती रहती घर में। अक्सर
पत्र पढ़कर माँ उदास हो जातीं। बाबू जी ज़ोर-ज़ोर से बड़बड़ाने
लगते और पोस्ट-ऑफ़िस की अपनी 'सूखी' नौकरी को कोसने लगते।
इसी बीच बाबा कई दफ़ा शहर के
डेरे पर आए। इधर-उधर लड़का देखने जाते हुए...या देखकर लौटते
हुए। मगर बात कहीं बन नहीं पाती। बाबा जो पुरानी तस्वीर साथ
लेकर चलते थे, उसमें वर्षों से लगातार चूल्हा फूँकते रहने के
कारण बुआ का चेहरा और भी मलिन हो उठा था। आँखें तो धुआँईं-सी
दीखतीं। चेहरे पर स्पष्ट नज़र आती थी- दो-चार बच्चों की
स्नेहिल माँ की तरह की एक ममतामयी मुस्कान! तस्वीर देख में चीख
उठा था, ''यह क्या बाबा, ढंग की फ़ोटो तो खिचवाई होती...''
तब बाबा ने बिना किसी
प्रतिक्रिया के कहा था, ''मैं तो केवल अपना धर्म निभा रहा हूँ।
अब तो बस प्राण निकल जाएँ इसी तरह भटकते-घूमते, इसी में भला!''
उफ़! कितनी सर्द थी बाबा की आवाज़? ठंड हो चले रिश्तों के मध्य
दबी, दम तोड़ती, एक बर्फ़ीली आह की तरह। पूरा शरीर पसीने से
तर-ब-तर था मेरा, यद्यपि पंखा फुल-स्पीड में नाच रहा था, ऊपर।
कंठ में फिर से जलन-सी होने लगी थी।
''हाँ, याद आया। बला अंततः टल ही गई थी। एक दोपहर डाक से बुआ
की शादी का कार्ड आया और पूरे घर ने जैसे चैन की साँसें ली
हों। सुदूर उत्तर प्रदेश के उस ठेठ देहात में जहाँ बुआ को डाला
जा रहा था, कोई आकर्षण न था। लड़का न सिर्फ़ अधेड़ था बल्कि
पहली पत्नी से एक बेटी भी थी। केवल पिताजी गए थे शादी में-
रस्म निभाने। लौटे तो गुमसुम। जैसे किसी 'गमी' से लौटकर आए
हों। अब बुआ का अध्याय समाप्त। बुआ भी जाकर ऐसी रमीं अपनी नई
गृहस्थी में कि वर्षों तक एक पत्र भी नहीं।
रात कट गई किसी तरह। सुबह
अखबार उठाया- बुआ मौजूद थीं उसमें। दफ़्तर की घुटन और बेचैनी
से निजात पाने को खिड़की का परदा सरकाकर सामने सड़क पर नज़र
डाली नहीं कि.....बिजली के खंभे से लगे पोस्टर में टंकी थीं
बुआ। झल्लाहट में मैगज़ीन उठाकर पलटी नहीं कि उसमें भी हुसैन
की पेंटिग्स की तरह लुभाती बुआ और केवल बुआ।
...जबकि बुआ थीं कि शादी के
बाद जो गईं, लौटी बाबा के श्राद्ध पर ही। इसी बीच अपनी सौतेली
बेटी का ब्याह निबटा चुकी थीं वह। उनकी खुद की तीन बेटियाँ थी
साथ में। पूरी बस्ती की महिलाओं ने बुआ को घेरकर उनसे अपनी
ढेरों सहानुभूति जतलाई। घर-बाहर सभी जगह उनकी किस्मत को लेकर
''चऽ चऽऽ चूउउ चूउउ उउ'' सरीखा रवैया। पर बुआ अपने में मस्त।
बस्ती के बाग-बगीचों में बेटियों के साथ इस कदर नाचती-डोलतीं
फिरतीं जैसे अपनी हम-उम्र सहेलियों के साथ घूमती फिरती थीं कभी
बुआ। यद्यपि उनकी शक्ल-सूरत और भी बदल गई- जैसे आँधी-पानी में
बेतरह भीगी हूई कोई गोरैया। लौटकर बुआ जो गईं, दो साल तक कोई
चिट्ठी-पत्री नहीं, जबकि उन्होंने मुझसे ख़ासकर वादा किया था।
फिर एक पत्र आया उनका। किसी दूसरे शहर से। विदित हुआ कि वहाँ
नर्सिंग का प्रशिक्षण ले रहीं हैं।
वर्षों बाद उसी शहर में जाना
हुआ एक इंटरव्यू के सिलसिले में। शाम को बुआ का पता ढूँढ़ता
होस्टल पहुँचा तो पता चला कि वह अपने इलाके के एक सरकारी
अस्पताल में कार्यरत हैं। सौभाग्य से पता मिल गया। बुआ ने
लौटती डाक से वादा किया कि मेरी शादी में अवश्य ही आएँगी वह।
वचन की पक्की निकलीं बुआ।
यद्यपि फूफा की तबियत इधर काफ़ी खराब चल रही थीं. फिर भी उनके
खिचड़ी हो चले बालों और आँखों के नीचे पड़ चुके स्याह धब्बों
के बावजूद हमने पहचाना कि वहीं बुआ थीं। वर्षों बाद के इस सुखद
पारिवारिक समारोह में शरीक होते उनका उत्साह छलकते कम न पड़
रहा था। हर विधि-विधान में उनकी सक्रिय भागीदारी। नेग के लिए
छीना-झपटी तक। नकटौरा की रात तो इतने ठुमके लगाए उन्होंने...कि
बीमार ही पड़ गईं।
विदा के वक्त बुआ की हिचकियाँ
थामे नहीं थम रहीं थीं। शादी के बाद पहली बार रोते देख रहा था
उन्हें। बाबा के मरने पर भी जब बस्ती आई थीं, ज़री भी रोई नहीं
थीं बुआ। आखिर इस प्रबल आसक्ति का कारण...? ऐसा क्या बदल गया
जो...? मेरी समझ में कुछ आए, इससे पूर्व ही बुआ ने मेरा हाथ
थामकर कहा था, ''अपनी बहनों की शादी के लिए खोज-खबर लेते रहना
बेटा। तुम लोगों के सिवाय कोई है भी तो नहीं इन अभागिनों
का...।''
बहनें...मेरी अभागिन बहनें!
पत्नी ने अनजाने यह कौन-सा
तार झनझना दिया मेरे भीतर का? इसके सुर मुझे भीतर-ही-भीतर रुला
रहे थे और जो गुज़र रही थी उस तार पर...मुझ पर...उफ़!
जबकि पूरा घर उसी तरह अलमस्त और लापरवाह था। कुछ न खाने की
इच्छा व्यक्त करने पर पत्नी रसोईघर से ही टिटकारी मारती, ''परोथन
की पंजीरी बना दूँ क्या?''
बच्चे आईने के सामने टाई की नॉट दुरुस्त करते हुए वहीं से
आवाज़ कसते, ''जूते का फीता किससे बँधवाऊँ? कमीज़ का बटन नहीं
लग रहा मुझसे...!''
उस दिन ते हद ही कर दी पत्नी
ने। दफ्तर से लौटकर आदतन जैसे ही म्युज़िक-सिस्टम का बटन
दबाया- ''ओ बसंती पवन पागल न जा रे न जाऽ... रोको कोई...!''
इधर बच्चों की जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही थी- परिवार की एक
'सीनियर-लेडी' के विषय में अधिक-से-अधिक जानने की। हमारी शादी
वाले एलबम में एक तस्वीर अचानक महत्वपूर्ण हो उठी थी। माँ जबरन
उस इकलौती तस्वीर में खींच लाई थीं बुआ को भी। शादी के कीमती
जोड़े में दर्प से मुसकुराती दुल्हन और बेटे को ब्याह लेने का
आत्मगौरव छलकाती माँ के संतुष्ट मुख-मंडल के मध्य बैठी बुआ के
चेहरे पर, ऐसा ही कुछ उत्सवी-भाव ढूँढ़ निकालना बेहद कठिन था।
फिर भी उनकी दीनता और बेचारगी उनके जबरन मुस्कुराए जाने के
कारण काफ़ी दब-सी गई थी। तस्वीर देख एक बार पुनः टीका-टिप्पणी
का दौर चला और मैं मुसकुराकर झेल गया।
इधर मेरी स्थिति यह हो गई थी
कि स्क्रीन पर उस नायिका का चेहरा उभरा नहीं कि मैं अंदर
बेडरूम में। कोई किताब खोलकर अधलेटा अनमना-सा...पढ़ता खाक। बस
किताब खुली रहती और मैं आँखों के आगे छाए धुँध और गर्द से
लड़ता रहता, लगातार।
बहनें....मेरी अभागिन बहनें....!
इस बीच माँ को पत्र लिखकर बुआ का पता मँगाया।
बुआ ने फौरन ही जवाब दिया पत्र का। ढेरों आशीष के साथ। उनके
पत्र से यह सूचना मिली कि उनकी बड़ी बेटी बैंक अधिकारी होकर
तथा अपने एक सहकर्मी से कोर्ट-मैरिज कर, इंदौर में मज़े से है।
बीच वाली मेडिकल के फ़ाइनल इयर में है। अपने एक सहपाठी से उसका
काफ़ी हेल-मेल है। लड़का भला और सुदर्शन है।
मैंने नाम, गाँव कुछ भी जाने बिना मंजूरी दे दी है अपनी। तीसरी
वाली बी.ए. में है। एकदम से मुझ पर गई है... पढ़ने में भी।
देखो, इसका भविष्य क्या होता है...इसी की चिंता लगी रहती है।
पत्र को तीन-चार मर्तबा से कम
नहीं पढ़ा होगा मैंने। पत्र पढ़ते ही मुझे एकाएक याद आया बुआ
का सख्ती से होंठ भींच लेना। यह कैसा बदलाव आ गया बुआ के चिंतन
में? नहीं...। अचानक तो नहीं? किसे धन्यवाद दूँ? मन का अवसाद
सफ़ेद कबूतर की तरह दूर क्षितिज में कहीं बिला गया हो, जैसे।
मैं फौरन पत्र लिखने बैठ गया बुआ को- तुम ज़रा भी चिंता मत
करना बुआ। छोटकी को कंप्यूटर में दाखिला दिलवा दो। आगे मैं उसे
अपनी कंपनी में खींच लूँगा। उसकी शादी की ज़िम्मेदारी भी मेरी।
मैं स्वयं ढूँढूँगा लड़का... सच्ची कहता हूँ बुआ...। अपने इस
संघर्ष की पूर्णाहुति में मुझे भी शामिल कर लो बुआ। प्लीज़
बुआ...मेरी अच्छी बुआ...!
बुआ को वह पत्र मैंने चुपचाप ले जाकर टीवी सेट पर रख दिया। अभी
नहीं तो घंटे-दो-घंटे बाद ही सही, पढ़ ही लेंगी श्रीमती जी भी।
शाम को सबों की हँसी में अपनी
हँसी मिलाता, अर्से बाद एक बेहद मनोरंजक फ़िल्म देख रहा था।
नायिका वही थी, पर न कोई चिड़चिड़ाहट...न खुंदक...न घबराहट!
हिप-हिप-हुर्रे...लाँग लिव माधुरी दीक्षित...खूब लगाओ
ठुमके...ऐसे ही अपनी अदाकारी से लुभाती हुई माधुरी दीक्षित।
बक-अप माधुरी दीक्षित..बक-अप!!
''तुम्हें बधाई!'' डायनिंग
टेबल पर बैठते ही पत्नी ने कहा। भरपूर व्यंग्य था उसके कहने
में। टी.वी. के पास खड़े मैंने उन्हें देख लिया था। पता नहीं
घुमा-फिराकर कहाँ-कहाँ की बात नहीं कर रही थी। किस-किस तरह से
आघात नहीं पहुँचा रही थी! मेरा दिल फिर भी बल्लियों उछल रहा था
- तुम्हें बधाई हो माधुरी दीक्षित। तुम सचमुच एक नए इतिहास का
पुनर्निर्माण कर रही हो...!! |