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                    और 
                    फिर एक दिन अचानक ही बुआ लौट आईं। सतरंगे रथ पर सवार.. 
                    ऐंद्रजालिक सुनहले सपनों की तरह। कभी ताज़ा मुस्कान और भड़काऊ 
                    अदा बाँटती, कभी सौम्यता और गंभीरता की प्रतिमूर्ति बनी। 
                    कभी-कभी तो नैन-मटक्का और कमर-हुचक्का के हैरतंगेज़ कारनामों 
                    के साथ भी। ...इतनी घोर अदर्शनीय - जैसे अलगनी पर सूखते घरेलू 
                    कपड़ों के मध्य चोली। 
                    अच्छी नौकरी और नई शादी का नशा जाने कितनों को लड़खड़ा, बहका 
                    देता है। स्टील के नए बर्तनों सरीखे चमचमाते ससुराली रिश्तों 
                    के आगे कहाँ काँसे-फूल की थरिया-लुटिया सदृश पुराने घरेलू 
                    रिश्ते। . . .और बुआ तो फिर भी अल्यूमिनियम की पुरानी बटलोई 
                    सरीखी टूटी-पिचकी। बावजूद, इस दफ़ा गर्मियों की पूरी छुट्टी 
                    पीहर में न बिताकर पहली बार लंबे ससुराल प्रवास से पत्नी जब 
                    लौटीं तो... अब तक बुआ हमारी खुशहाल और 
                    व्यस्त ज़िंदगी से उसी तरह दूर जा चुकी थीं, जैसे शहर के 
                    मध्यमवर्गीय घरों से, आँखों को झँसाकर नम कर देने वाला, कोयले 
                    के चूल्हों का धुआँ। |