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                    पत्नी इस फितूर को अपने दिमाग़ 
                    में भरकर ही लौटी थी। लौटने के दूसरे-तीसरे ही दिन एक शाम 
                    रंगीन दूरदर्शन पर लुभाती एक आकृति की ओर उँगली उठाकर खिलखिला 
                    उठीं वह, ''देखो बच्चो...तुम्हारे पापा की बुआ!''''यह क्या मज़ाक है?'' मैं चौंकते हुए चीख उठा। फिर पत्नी के 
                    याद दिलाते ही फौरन झेंप भी गया। बस, पत्नी और बच्चों को मिल 
                    गया एक मसाला।
 रात को बिस्तर पर गिरा तो 
                    आँखों के आगे केवल बुआ ही बुआ। एक ही तस्वीर अलग-अलग रंगों और 
                    फ्रेमों में। बचपन की स्मृति पर पड़ चुकी ढेरों गर्द छँटती ही 
                    चली गई।...धुँधली-सी एक तस्वीर अचानक पूरी तरह साफ़ हो गई।...बुआ उन दिनों फौज के किसी अफ़सर की तरह तनकर चलती थीं और 
                    मैं, किसी मरगिल्ले पिल्ले की तरह कुँकुआता फिरता था उनके 
                    पीछे-पीछे। जूते का तस्मा बाँधने से लेकर क़मीज़ का बटन बंद कर 
                    देने तक की मामूली ज़रूरतों के लिए भी बुआ पर ही आश्रित।
 घर था वैसे भरा-पूरा। दो-दो 
                    चाचा, बाबा सभी थे। पर घर सहेजने-जोगने वाली किसी सुघड़-सयानी, 
                    सुचिक्कन गृहिणी की जगह कोई थी तो एकमात्र अल्हड़ किशोरी और 
                    घोर चुप्पा बुआ ही। मुझे याद है- बाबू जी, माँ और अन्य 
                    भाई-बहनों को लेकर शहर अपनी नौकरी पर जा रहे थे, जबकि मैंने 
                    बुआ की शह पर ही, बस्ती में ही रहने की ज़िद पसार दी थी। जीत 
                    भी मेरी ही हुई थी। ताँगे पर बैठने से पहले माँ ने बुआ का हाथ 
                    पकड़कर कहा था, ''फूल जैसन बेटवा अब तुमरे हवाले रहा बिटीयाऽ...! 
                    खाली खेले-कूदे में मत बझाए रहिओ, तनिका पढ़यबो-लिखयबो करिओ!''मैं भकुआया खड़ा टुकुर-टुकुर ताक ही रहा था कि बुआ का कड़क 
                    आदेश मिला, ''खड़ा क्या है? ...चल, पैर छू अम्मा-बाबूजी के!''
 और उसी क्षण से बुआ के 
                    व्यक्तित्व ने मानो नई करवट ले ली हो। नई ज़िम्मेदारी, कलफ़दार 
                    वर्दी की तरह, जैसे चिपक-सी गई हो उनके जिस्म से। तब बड़े चाचा 
                    बी.ए. में थे और छोटे वाले हायर-सेकेंडरी में। मैं स्वयं तीसरी 
                    कक्षा में था। बुआ सुबह उठते ही लकड़ी या कंडे पर चाय बनातीं। 
                    फिर चूल्हा सुलगाकर झाडू-बुहारु, चौका-बर्तन में लग जातीं। 
                    चुन्नी को कमर में कसकर, लकड़ी की चट्टी से चिटिर-पुटुरऽऽ की 
                    लयात्मक धुन निकलती बुआ अलस्सुबह से देर रात गए तक पूरे घर में 
                    लगातार दौड़ लगाती रहतीं। मोटी-मोटी पुस्तकों से जूझते चाचा 
                    चाय की तलब लगते ही, वहीं से हाँक लगाते, ''बिटियाऽऽ...!'' 
                    बाबा अपनी हर ज़रूरत के लिए बाहर के कमरे से दसों बार रेघाते, 
                    ''बिटीबाऽऽ।'' और बुआ प्रत्येक पुकार पर दौड़ लगातीं - चिटिरऽ...पुटुरऽ...चिटिरऽ...पुटुरऽऽ...? 
                    सबको समय पर स्कूल-कॉलेज भेजने की ज़िम्मेदारी उन्हीं की। 
                    ट्यूशन पढ़ाने जाते बाबा को घर की ज़रूरतों का चिट्ठा थमाना 
                    उनका ही कर्तव्य! घर-खर्च निरंतर कम करने के उपायों से जूझतीं 
                    बुआ रसोई में नित्य कुछ अनूठा पकाने की योजना भी फलीभूत करतीं। 
                    यदि लगातार चार दिनों तक आलू की सब्ज़ी ही पकनी है तो चारों 
                    दिन अलग-अलग तरीकों से पकती। परोथन में बचे आटे को तवे पर ही 
                    भूँजकर, पंजीरी बनाकर हम लगभग नित्य खाते। शुरू-शुरू में 
                    काज-बटन जैसे मामूली कामों में भी बार-बार उँगलियों में सूई 
                    चुभो लेनेवाली बुआ कुछ ही महीनों में सिलाई-मशीन फर्राटे चलाते 
                    हुए ज़रूरत के तमाम कपड़े भी सिलने लगीं। तात्पर्य कि कुछ ही 
                    महीनों में ''पक्की गृहस्थिन'' का ख़िताब पाकर पास-पड़ोस के 
                    घरों के लिए उदाहरण बन गईं बुआ। इसकी कीमत
                    उन्हें सिर्फ़ यही चुकानी पड़ी कि उनके खुद के स्कूल 
                    जाने का अनिवार्य सिलसिला अब सिमटकर हफ़्ते में एक-दो दिन का 
                    सैरनुमा कार्यक्रम बन गया। फिर भी मस्त रहतीं बुआ। वक्त-बेवक्त 
                    कुछ गुनगुना भी लेतीं। कभी-कभी पीट भी देतीं मुझे। वह भी तब, 
                    जब आसान-सा जोड़-घटाव गलत कर बैठता या फिर बुआ अपनी ख़ास सहेली 
                    अनुपमा के संग मुँह-से-मुँह जोड़कर फुसफुसा रहीं होतीं और मैं 
                    काग़ज़ की पतंग बना देने की ज़िद्द पसारकर भू-लुंठित हो जाया 
                    करता। पीटने के बाद खूब पुचकारती भी थीं बुआ और लुकाया-छिपाया 
                    हुआ कुछ हाथ पर भी रख देती थीं। कुछ नहीं होता, तो पाँच पैसे 
                    का सिक्का ही...जिसके मुट्ठियों में समाते ही मेरे ही पैर 
                    रामा-माँय की दुकान की ओर भाग छुटते। वहाँ से झाल-मुढ़ी का 
                    दोना लेकर, पूरी बस्ती में मटकता फिरता, देर तक स्वाद ले-लेकर 
                    खाता रहता। इसी बीच कहीं से अनुपमा बुआ के बड़े भैय्या मिल 
                    जाते, तो किसी कोने में ले जाकर बुआ का हाल-चाल जरूर पूछते। 
                    मैं उन्हें बहुत पसंद करता था। बुआ को बताता तो वह पूरी सख्ती 
                    से जबरन होंठ भींच लेतीं। प्यास से मेरा गला सूखने लगा 
                    था। उठकर डायनिंग टेबुल तक गया, दबे पाँव। लेकिन गिलास खाली 
                    होने से पूर्व ही याद आ गया वह मनहूस दिन... और बुरी तरह सरक 
                    गया। किसी तरह मुँह दाबकर, खाँसी पर नियंत्रण पाया, ताकि औरों 
                    की नींद न उचट जाए। यह संवेदनशीलता, सहनशीलता बुआ 
                    से ही विरासत में मिली है मुझे। उस दिन कितनी ज़बरदस्त डाँट 
                    पड़ी थी बुआ को। जाने कैसे-कैसे आक्षेप जड़े गए थे उन पर। पर 
                    किसी का भी जवाब नहीं दिया उन्होंने। उफ़! वह मनहूस दिन......बड़े चाचा तो बीच में ही थाली पटक कर उठ गए थे। बाबा ने भी 
                    पानी पी-पीकर, जी-भर कोसा था बुआ को। एक छोटे ही चाचा थे, 
                    जिन्होंने बुआ का पक्ष लेते हुए कहा था, ''शक्ल देखी है इसकी, 
                    कैसे चुसे आम की तरह उतर आया है मुँह! ...धँस गई हैं आँखें! 
                    किसी को परवाह है कि कल को इसे पराए घर भी जाना है कि नहीं? 
                    जिसके जो मन में आए इल्ज़ाम मढ़े जा रहे हैं बिचारी पर! आज 
                    अम्मा ज़िंदा रहतीं, तो क्या यही दशा होती बिटिया की...?
 बाबा से नहीं बर्दाश्त हुआ 
                    छोटे चाचा का यों हुँमकना। वह लगे और भी ज़ोर-ज़ोर से हूँकने। 
                    पूरे घर में देर रात गए तक चीखने-चिल्लाने, सुबकने आदि का 
                    सिलसिला चलता रहा था।उस रात बुआ देर तक लालटेन जलाए, कॉपी खोल कर बैठी रही थीं। उन 
                    दिनों उनका नाम था अरुणा दीक्षित। वह कॉपी में बार-बार अपना 
                    नाम लिखतीं, फिर उसे मिटा देतीं। अंतिम बार उन्होंने डूबते हुए 
                    सूरज का खाका खींचा। सूर्य के बीचों-बीच उन्होंने लिखा- अरुणा। 
                    फिर तुरंत पेन्सिल से रगड़कर पूरे चित्र को काला कर दिया। मैं 
                    अवसाद में डूबा, चुपचाप बैठा, उनकी मनःस्थिति का अंदाज़ लगाने 
                    की पूरी कोशिश में लगा था। तब मैं नहीं जानता था कि अनुपमा के 
                    भैया का जो नाम है, उसका अर्थ सूरज ही होता है। तभी बुआ ने इस 
                    कदर हाथ झाड़ते हुए, मानो किसी का खून कर चुकी हों, कहा, ''यह 
                    नाम बहुत ही मनहूस है...एकदम वाहियात! बदल देना है इसे!'' इसके 
                    बाद लालटेन बुझाकर सो गई थीं बुआ।
 ''मुझे भी अब सोना चाहिए।'' 
                    बुदबुदाते हुए पुनः बिस्तर पर आ गिरा। बगल में लेटी पड़ी पत्नी 
                    की नाक अब तक हौले-हौले बजने लगी थी। सन्नाटे में डूबे पूरे घर 
                    में यह आवाज़ बेहद गूँजती-सी मालूम पड़ रही थी मुझे। जब दिल 
                    में बेचैनी और तनाव हो, भय हो, तब मामूली आहट या आवाज़ से भी 
                    चौंक उठता है आदमी। खुद अपने दिल की धड़कने भी कानों में 
                    धमकती-सी महसूस होने लगती हैं उसे। बुआ भी तो ढेर सारे तनावों 
                    को ढो रहीं थीं, फिर कैसे सो पाती होंगी भला? अपनी धड़कनों की 
                    आवाज़ नज़रअंदाज़ कर...? इसी तनाव से उबरने को छोटे 
                    चाचा भागकर फौज में भर्ती हो गए थे। बड़े चाचा भी एम.ए. में 
                    फर्स्ट-क्लास के चक्कर में कोल्हू के बैल की तरह पिल पड़े थे। 
                    बाबा तो ऐसा बीमार पड़े थे कि ट्यूशन वगैरह सब छूट गया उनका। 
                    सिर्फ़ पेंशन से घर चलाने की परेशानी से उबरने का रास्ता आख़िर 
                    बुआ ने ही खोज निकाला। घर के आगे-पीछे पड़ी थोड़ी-सी परती 
                    ज़मीन पर बुआ ने आलू, मकई और साग-सब्ज़ी उगानी शुरू कर दी। मैं 
                    भी उनका पूरा साथ देता। बुआ के सुस्ताने बैठते ही झट कुदाल उठा 
                    लेता। सबसे ज़्यादा मज़ा आता पाटा देने (चौरस करने) में। मैं 
                    एक चिकने पाटे पर बैठ जाता और उसे रस्सी से फँसाकर बैल की तरह 
                    वह खींचती। मुझे गाड़ी में घूमने का मज़ा मिलता। बुआ हाँफने 
                    लगती तो मैं टिटकारता, ''रहने दो तुम, मैं अनुपमा बुआ के भैया 
                    को बुला लाता हूँ।''''मारूँगी एक थप्पड़...हाँ नहीं तो...! यहाँ ऐसे ही जीना मुहाल 
                    है, तिस पर इन्हें मसखरी सूझ रही है।'' देर तक बुदबुदाती हुई 
                    बुआ फिर से बैल की तरह जुतकर पाटा खींचने लगतीं।
 देखते-ही-देखते बड़े चाचा ने 
                    बाज़ी मार ली। बुआ पुनः फेल। इस बार उनके फेल होने की किसी ने 
                    कोई नोटिस न ली। वैसे भी उत्सवी माहौल था घर में, और चाचा के 
                    लेक्चरार बनते ही यह और भी गरमा उठा था। एक मैं ही समझ रहा था 
                    कि बुआ भीतर से कितनी क्षुब्ध और बेचैन हैं। बुआ पर काम का 
                    दबाव और बढ़ गया था। प्रोफ़ेसर साहब से मिलने आने वालों की 
                    आवभगत के साथ-साथ अब उनके कपड़े धोने और प्रेस करने की 
                    ज़िम्मेदारी भी बुआ की। ऊपर से झिड़कियों, तानों का बढ़ता 
                    सिलसिला। पिछले वर्ष दिव्या दीक्षित के नाम से फार्म भरा था 
                    बुआ ने हायर सेकेंडरी का। चूँकि यह नाम भी मनहूस ही साबित हुआ 
                    था उनके लिए, सो इस दफा फार्म भरते हुए उन्होंने अपना नया 
                    नामकरण किया- माधुरी दीक्षित। और महिमा देखिए इस नाम की, बुआ 
                    पास हो गई। वह भी थर्ड नहीं, सेकेंड डिवीजन से। सचमुच पास कर 
                    गईं बुआ? मुझे भी यकीन नहीं हो रहा था। मगर जब बाबा ने पुष्टि 
                    की, दाल बघारती हुईं बुआ के साथ-साथ मैं चीख उठा था- थ्री 
                    चियर्स फॉर माधुरी दीक्षित...हिप-हिप हुर्रे। बुआ अब माधुरी 
                    दीक्षित हो गईं, यही नाम दर्ज़ हो चुका था प्रमाण-पत्रों में भी। 
                    इसके अलावा अब कोई और नाम संभव भी नहीं था उनके लिए। |