|  ''ओह! मेरे 
                    भगवान नहीं... ऐसा नहीं... दीपांकर...'' और पछाड़ कर गिर पड़ी 
                    ममता। कई दिन सूनी-सूनी आँखें लिए ही बैठी रही। पति की दूसरी 
                    शादी की बात सुन कर ही जैसे शून्य में पहुँच गई। ऐसा शून्य 
                    जहाँ केवल अंधकार ही अंधकार छाया हो और कोई भी सान्त्वना का 
                    प्रकाश भी सिर पीट कर मिट जाए। दीपांकर के उदासीन व्यवहार ने 
                    तो जैसे तस्वीर का दूसरा रुख दिख दिया। मन में हज़ारों सवाल 
                    उमड़ते लेकिन उनका जवाब किससे माँगे? मन में ही टूट-टूट कर वे 
                    सवाल अंधेरे को और घना कर देते। वो चीख-चीख कर एक-एक को 
                    झिंझोड़ कर पूछना चाहती अरे! उसके अकेले का ही क्या दोष है, 
                    फिर उसे ही सज़ा क्यों सुना दी गई है झट से? घर की हर स्त्री 
                    से पूछना चाहती कि तुम भी तो औरत हो तुम भी मेरा मन नहीं पढ़ 
                    सकती कि मुझे भी तो बच्चे की कितनी चाह है। दीपांकर का, वंश का 
                    भला सोच कर नई मशीन की भाँति शादी कर दूसरी स्त्री लाई जाएगी 
                    जो सबकी इच्छा पूरी करेगी लेकिन मेरा भला क्या है ये किसी ने 
                    सोचा? एक नहीं काम आने वाली वस्तु समझ कर मुझे फेंक दिया 
                    जाएगा। नई उठा ली जाएगी। भावना रहित मशीन ही तो समझा जा रहा है 
                    दोनों ही को! इससे अधिक क्या स्थान है? आने वाली स्त्री को भी 
                    संतान पैदा करने के लिए लाया जाएगा उसके मन को भी कोई समझेगा? 
                    उस अदेखी के प्रति सहानुभूति-सी उमड़ आई। बेचारी! फिसल पड़ा 
                    ममता के मुँह से। केवल माध्यम बनाने के लिए ही शादी का, प्रेम 
                    का स्वांग रचा जाता है? 'सुनो...' कई 
                    दिनों तक अजनबियों की तरह साथ रहे-रहते, घर वालों के बर्ताव ने 
                    उसे झिंझोड़ कर रख दिया था। दीपांकर नामक विश्वास जिसकी छाँव 
                    तले अपने आपको सुरक्षित, सौभाग्यशाली पाती थी। ऐसा लगता था 
                    जैसे जीवन में कोई भी झंझवात आए सहन कर लेगी बस दीपांकर का 
                    प्रेम न छूटे। उस वट वृक्ष के सहारे वह हर मुश्किल, अभाव सहन 
                    कर गुज़रेगी लेकिन पहले ही तूफ़ान ने वटवृक्ष का खोखलापन दर्पण 
                    की तरह सामने ला पटका। उस सच्चाई ने कोमल लता की जडें ही खोद 
                    दी थी।  घर के विषैले वातावरण ने ही 
                    जैसे उस लता को नए सिरे से सींचना शुरू कर दिया। इन दिनों में 
                    ममता ने खुद में एक नई मज़बूती महसूस की जो खुद को थाम सके। अब 
                    तक हरदम वह पति के, उसके परिवार के ईद-गिर्द सिमटी, सकुचायी, 
                    भयभीत-सी सोच लिए रहती लेकिन इस तूफ़ान ने तो जैसे उसके वजूद 
                    पर जमी धूल झाड़ कर उसके असली अस्तित्व को निखारने की ठान ही 
                    ली है। इस परीक्षा के इस तरफ़ केवल समझौता, उसकी निरीहता और 
                    अपमान के कड़वे घूँट है लेकिन उस पार जैसे उसका आत्माभिमानी 
                    वजूद उसकी प्रतीक्षा कर रहा है। इसीलिए एक दिन जैसे उसके भीतर 
                    का वजूद ही बोल पड़ा ''सुनो...''  अलमारी में से कपड़े निकालते 
                    दीपांकर को कई दिनों बाद पुकारा ममता ने। आवाज़ की मज़बूती सुन 
                    चौंक कर पलटा वह। कई दिनों से दिन भर रोती रहने वाली का यह 
                    स्वर सुन कर तकने लगा जैसे यह उसकी पत्नी नहीं कोई और है। 
                    ''क्या हम बच्चा गोद नहीं ले सकते'' अपने पति के दिल में अपने 
                    लिए आखिरी बार जगह ढूँढने की कोशिश की। सपाट-सी बात सुन उसने 
                    नज़रें झुका ली। कुछ जवाब देते न बना। अपनी सकपकाहट छुपाने के 
                    लिए अलमारी में फिर उपक्रम करने लगा।कंधे पर हाथ के स्पर्श से पलटा ''आपने जवाब नहीं दिया... क्या 
                    ऐसा नहीं हो सकता? एक बच्चे की चाह मुझे भी उतनी ही है जितनी 
                    आपको... हो सकता है ईश्वर हमें एक गुमनाम बच्चे का जीवन 
                    सँवारने का मौका देना चाहता है। अपनी संतानों को तो सब पालते 
                    हैं। हम भी शायद इस मुश्किल में न होते तो ऐसा ही करते लेकिन 
                    ईश्वर ने हम दोनों के लिए ये रास्ता छोड़ा है जिस पर हम अब भी 
                    साथ चल सकते हैं।'' कह कर जवाब के लिए उन आँखों में झाँका। दिल 
                    थाम कर इंतज़ार करने लगी क्यों कि उसका भविष्य इस जवाब से पूरी 
                    तरह जुड़ा हुआ है नहीं तो...। लेकिन उन आँखों ने इधर-उधर देख 
                    कर असमर्थता ज़ाहिर की।
 '' वो...वो माँ नहीं मानेंगी।'' थूक गटक कर बमुश्किल दो शब्द 
                    कह पाया।
 ''आप क्या सोचते हैं?''
 दागे गए सवाल का जवाब वह न दे 
                    सका। फुर्ती से कमरे से बाहर हो गया जैसे कह रहा हो नहीं...ये 
                    नहीं...। आहत, अपमानित-सी ममता की आँखों से धारा बह चली।बहुत रात वह कमरे में आया। ज़बरदस्ती सोने की कोशिश में लगे 
                    दीपांकर का हाथ थाम उसने डबडबायी आँखों से वि वास, सहारा जैसा 
                    कुछ माँगा। अनुनय भरे शब्दों में आँसू पोंछकर बोली,
 ''दीपांकर... भगवान के लिए मुझे समझने की कोशिश करो। तुम ही 
                    ऐसे क्या करने लगे। इतने-इतने वादे, इतना-इतना प्यार क्या सब 
                    भूल गए? मेरे होने का वजूद क्या उसके सामने कुछ भी नहीं जो अभी 
                    तक कहीं भी नहीं है। जो है ही नहीं उसके लिए तुम मेरे प्यार, 
                    मेरे वि वास, मेरे सम्मान को ठोकर मार दोगे।'' मुँह बाये वह 
                    सुनता रहा। उसे लगा जैसे ममता के भीतर भावों का अगाध समुद्र 
                    उमड़ आया। ''...एक नया प्राणी तुम्हें सौंप दूँ तो मैं 
                    तुम्हारे लिए कुछ हूँ नहीं तो अपनी ज़िंदगी से मुझे फेंक दोगे। 
                    बेजान ठूँठ की तरह। मेरा प्रेम...,मैं... कुछ भी नहीं...'' 
                    कहते-कहते गला रुँध गया। चारों ओर से निरुपाय-सी वह फफक कर रो 
                    पड़ी। बुत बना वह बैठा रहा। एक सांत्वना भरे, स्नेह, विश्वास 
                    के स्पर्श की आस लिए बस बैठी ही रह गई। न कुछ बोला, न कुछ पूछा 
                    करवट बदल कर लेट गया। जैसे कह रहा हो कि ऐसा ही होगा तुम जो भी 
                    सोचो!
 दीवार के सहारे सिर टिका दिया 
                    उसने जैसे स्वयं के परिस्थितियों की धारा में बहने को छोड़ 
                    दिया हो। दीपांकर की पीठ देखती रही चुपचाप। अब दीपांकर पति 
                    नहीं पुरुष नज़र आ रहा है। वही सनातन पुरुष! इसी पुरुष साथ 
                    जीवन की नई शुरुआत कर अपने भाग्य पर इठलाई थी। न जाने कितने 
                    वादे किए थे, सपने देखे थे। लेकिन उन छलते सपनों का अंत अब...।सवेरे उठा तो वह किसी सफर के लिए तैयार जान पड़ी। कहाँ जाएगी 
                    पति को छोड़ कर और जा भी कहाँ सकती है? उसने सोचा और फिर 
                    मुस्कुरा दिया। चेहरे पर उज्ज्वल आभा दमक रही थी। एकाएक ही 
                    प्यार उमड़ आया और माथा चूम लिया उसका। न चाहते हुए भी ममता की 
                    आँखों में नमी उभर आई। शायद ये आखिरी... सोचा ममता ने।
 ''बहुत सुंदर लग रही हो।''
 '' अच्छा एक बात तो बताओ...'' सीने से लगी ही बोली। ''जिसने 
                    तुम्हें यह रास्ता दिखाया उससे मुझे कुछ पूछना है।''
 ''माँ से सवाल करोगी तुम...'' एकदम उसे झटक कर अनायास कह गया। 
                    फीकी-सी व्यंग्यनुमा हँसी उभर आई ममता के होठों पर। फिर खुल कर 
                    हँसी और बुदबुदायी...
 ''माँ...ममतामयी माँ... घर सँवारने वाली माँ... वही... औरत की 
                    दुश्मन औरत... हमेशा की तरह...'' हतप्रभ खड़ा रह गया वह।
 ममता ने एक बार फिर अटेची खोली और उसमें पड़े अपने बी. एड. के 
                    प्रमाण-पत्र और उस अखबार की कतरन फिर सँभाली 'सात दिनों की 
                    बच्ची के माँ-पिता की दुर्घटना में मृत्यु। परिवार में दूर-दूर 
                    तक कोई नहीं। ममतामयी दंपति संपर्क करें...' नहीं केवल ममतामयी 
                    माँ!! वाक्य पूरा किया ममता ने।
 मज़बूत हाथों से अटैची थामी। मूर्तिवत खड़े दीपांकर को झिंझोडा 
                    और खिलखिलाकर बोली, ''अब मेरा चेहरा तकने को नहीं मिलेगा। 
                    जाते-जाते एक बात मन में आ रही है श्रीमान दीपांकर गुप्ता! कि 
                    आने वाली स्त्री जिसे तुम नई मशीन बनाकर लाओगे वो भी तुम्हारी 
                    इच्छा पूरी नहीं कर पाई तो और कितनी स्त्रियों की भावनाओं से 
                    खेलोगे?
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