पहले भी पचासों बार इस स्थिति से
गुज़री है वह। घर से निकलते वक्त हर बार ही ईश्वर से प्रार्थना
करती है! हे ईश्वर आज कुछ मनचाही सूचना मिल जाए। वह यही सोचती
कि मनचाहा बस कुछ ही दूरी पर है जो मिल ही जाएगा। ममत्व की
उमंग को वह थोड़ा दबाए रखती। बस कुछ ही दिनों की बात है फिर तो
वह भी आँचल के फूल के साथ झूमेगी। सासु माँ भी सैकड़ों
आशीर्वाद देती अपनी सुलक्षणी बहू को। फूलो-फलो, सुखी रहो,
भगवान मुझे जल्दी ही पोते-पातियों की किलकारी सुनाए!
धीरे-धीरे डॉक्टरों के चक्कर की संख्या बढ़ने लगी, ईश्वर से
मिन्नतों का समय बढ़ने लगा लेकिन आशा की किरण धुँधली होने लगी,
आशीर्वादों का कवच भी छोटा होने लगा। डॉक्टर से वार्तालाप की
एक-एक बात ममता सासु माँ को बताती वे सुनती भी। अस्पताल जाने
और आने के बीच वह देहरी पर ही खड़ती। ऐसी सास पाकर वह स्वयं को
धन्य समझती। लेकिन बधाई सुनने को लालायित उनके कान धीरे-धीरे
अड़ोस-पड़ोस और रिश्तेदारों की पूछा-ताछी सुनते, पहले पहल तो
उदास रहने लगी और धीरे-धीरे अपनी भड़ास निकालने के लिए कटु
वचनों का सहारा लेने लगी। जो मिलता बस एक ही सवाल उससे करता
'खुशखबरी कब सुना रही हो!' शुरू-शुरू में अच्छा लगता वह शरमा
जाती लेकिन बाद में वह इस सवाल से बचने लगी, कुढ़ने लगी उँह!
और कोई बात नहीं जिसको देखो यही बात, यही सवाल। दुनिया में
इससे आगे कुछ नहीं है क्या? और भी तो रास्ते है दुनिया में,
काम है जिनके बारे में पूछा जा सकता है। सच में तो अब स्वयं को
भी यह बात सालने लगी थी बस खुद को दिलासा देने के लिए खोखले
तर्क करती। तब ममता ये नहीं जानती थी कि ज़िंदगी के सफ़र में
यहाँ आने के बाद एक परिवर्तन होता है जिसे पार करने के बाद नई
दुनिया में पदार्पण होता है और फिर जीवन उसी केन्द्र के सहारे
गुज़रता है अन्यथा रिश्ते, दाम्पत्य और ज़िंदगी भी अंधेरी
गलियों में गुम हो जाती है।
ऐसे में सहारा था तो केवल
दीपांकर का। पति के अगाध प्रेम में लिपटी वह बिछ जाती। अपना
दिल आँसुओं के पन्ने पर खोल कर रख देती । उदास ममता को दीपांकर
की सुदृढ़ बाँहों का ही नहीं शब्दों का भी सहारा मिलता। अरे!
क्या हुआ बच्चा नहीं तो? हम दानों तो है, हमारा प्रेम है। कहाँ
ज़रूरत है किसी और की। मुझे बच्चा-वच्चा कुछ नहीं चाहिए बस तुम
खुश रहो, उदास मत रहा करो। पति के प्रेम में कुछ-कुछ अपनी
पीड़ा भूल जाती। उसे बहुत तसल्ली मिलती कि दीपांकर को बहुत
अधिक कामना नहीं है बच्चे की।
इन्हीं ऊँचे-नीचे रास्तों पर
समय अपने साथ सबको चलाता रहा। विवाह को आठ वर्ष व्यतीत हो गए।
घर में हरदम तनाव व्याप्त रहता। खुशखबरी पूछने वाले रिश्तेदार
अब अजीब-सी दया भरी निगाहों से देखते। गाहे-बगाहे सान्त्वना
देते तो अपमान से भर उठती लेकिन क्या करे? एक बात का उसे फिर
भी संतोष था कि दीपांकर इस संबंध में अधिक कुछ नहीं कहते।
एक दिन कुछ सामान खरीदने
बाजार गए। ममता दुकान के अंदर गई बौर दीपांकर बाहर इंतजार में
खड़े रहे। सामान के बारे में कुछ राय जानने के लिए ममता ने
दुकान से बाहर झाँक कर उसका ध्यान अपनी ओर करना चाहा लेकिन
तीन-चार आवाज़ें देने के बाद भी नहीं सुना तो बाहर आकर देखा और
वहीं जड़ हो गई।
पास की दुकान में छोटा बच्चा किसी खिलौने के लिए ज़िद कर रहा
था और माँ लगातार समझाए जा रही थी। एकटक यह दृश्य देखते
दीपांकर के चेहरे पर आँसुओं की धार थी। अंदर तक काँप गई वह। न
जाने उसके मन में कौन-सी मज़बूत डोर चटक कर टूट गई थी। उसके
सामने भविष्य के तरह-तरह के रंग तैर गए। दीवार न थामती तो शायद
गिर ही पड़ती। चौंक कर दीपांकर ने देखा और झटसे आँखें पोंछी
'अरे! क्या हुआ तुम्हें? तबीयत तो ठीक है।' एकाएक चेहरे के
भावबदल कर सहज होते हुए कहा जैसे कुछ हुआ ही न हो। घिसटती-सी
ममता बमुश्किल गाड़ी में बैठ पाई।
समय, खुशियाँ, भविष्य
और...और... भी न जाने क्या-क्या बालू रेत की तरह उसके हाथों से
छूटता जाते लग रहा है। वह निरपराध-सी चुपचाप देखती जा रही है।
लेकिन इसमें क्या ग़लत हुआ? वह भी तो कितने ही वर्षों से दिखने
वाले हर बच्चे को कैसी सी नज़रों से निहारती है। ठिठक कर उसकी
भोली हरकतों में खो सी जाती हैं कई बार तो उसे बैठे हुए यही
लगता कि जैसे उसका प्रतिरूप पास ही लेटा है और वह हाथ बढ़ा कर
उठाने के लिए मचल पड़ती लेकिन...
समूचे वातावरण में बोझिलता, उदासी महसूस होती ही थी लेकिन आजकल
न जाने क्यों सबके व्यवहार में एक बू सी आने लगी है ममता को।
कई दिन गुज़रते-गुज़रते उस बू का कड़वा सच पकड़ आ गया। |