छाती का बोझ अचानक हल्का हो गया
जैसे। होश सतह पर आना ही चाहता था। इस उमगते हुए भाव को सहेजते
हुए डीजे की तरफ़ देख कर मुसकुरा दिया। उसकी आँखें अब भी उदास
थीं, ठहरी हुई। कोई जवाबी मुस्कुराहट का जिम्मा उसने नहीं
लिया।
डीजे की कहानी मुझे नहीं पता थी। जब डॉ. सर्राफ ने कहा था, गो
फिशिंग, तब ऐसे ही बिना वजह डीजे का ख़याल आया था। हमारे
अपॉयंटमेंट्स एक के बाद एक होते और आते-जाते हम मिल लेते।
क्लिनिक के कैंटीन में कभी अकेलेपन से डरे हम दोनों ने साथ-साथ
कॉफी पीकर वापस घर जाने के समय को टाला था। मुझे सिर्फ़ इतना
पता था कि हम दोनों अपने यथार्थ को सँभाल न सकने की स्थिति
में साइकियाट्रिक ट्रीटमेंट ले रहे थे। दो छिन्न-भिन्न पुरुष।
और अब इस दूरदराज़ इलाके में इस फार्महाउस में हम दो थे और बूढा
और बुढ़िया, यहाँ के केयरटेकर्स।
रात अपने कमरे में लेटे, बाहर
खिडकी से तारों को देखते रैना का ख़याल आता रहा। धीरे-धीरे
उसकी कमज़ोरी बढती जा रही थी। केमोथेरापी की वजह से बाल गिर गए
थे। हमेशा सर पर पीला स्कार्फ़। उसके चेहरे का पीलापन और बढ़
जाता। मैं जतन से हर सुबह उसके माथे पर एक लाल टीका लगा देता।
रात कई बार उसे बाँहों में समेटे मैं बाहर बरामदे पर बेंत की
कुर्सी पर बैठा रहता। हर पल का हिसाब। जितना मैं थामने की
कोशिश करता वो उतनी ही तेज़ी से फिसलती जा रही थी। मेरे सामने
उसका बदन सिमटता जा रहा था। बच्चा जैसे कब बड़ा हो जाता है, हर
दिन, हर पल देखते रहने के बावजूद नहीं पता चलता वैसे ही रैना
मेरे सामने हर पल ख़त्म होती जा रही थी, चुक रही थी। शुरू में
उसका डर, उसकी जीजिविषा अपने पूरे संवेग से धडकती थी। रात-रात
भर मेरी हथेलियों को जकड़ कर सोती।
-मुझे बहुत डर लगता है।
उसकी घबडाहट मुझे अपनी
उँगलियों से लगतार छूती थी। एक ठंडी सिहरन। फिर उसके चेहरे पर
मज़बूती आती गई। उसी अनुपात में मेरी बेचैनी, मेरी घबडाहट
बढ़ती जा रही थी। कभी-कभी बचपन का, खो जाने का, बिछड़ जाने का
डर, रात मुझे आतंकित कर जाता। डर और साहस का चूहे बिल्ली का
खेल चलता। फिर एक दिन बस ऐसे ही सब ख़त्म हो गया। मैं देखता ही
रह गया।
बदहवास पागलपन। घर में भीड जुट गई थी। रस्म रिवाज़ों का आयोजन।
मृत्यु का आयोजन। मैं सकते में था।
''उड जाएगा हंस अकेला''
फिर भीड छँटी। माँ रुकना
चाहती थीं। मैंने ज़बरदस्ती भेजा उन्हें।
''मैं ठीक हूँ, बिलकुल ठीक।''
उनका कातर चेहरा देख जोड़ा था,
''ज़रूरत होगी तो आपको ही कहूँगा, अभी ठीक हूँ।''
पर ठीक कहाँ था। माया, रैना की दोस्त आती रही। फिर उसकी इज़ेल
और पेंटस आए। फिर एक दो कपड़े। पहले दिन भर, फिर कभी-कभार रात
को भी। माँ का कभी रात फ़ोन आया तो माया ने उठाया। माँ सशंकित।
फिर गाहे बगाहे टटोलनी की-सी सतर्कता से अचक्के, देर सबेर,
फ़ोन।
''ठीक हूँ, बिलकुल ठीक हूँ।'' फिर आवाज़ में कहाँ की छिपी पीड़ा
का आभास।
माया रात को रुकती मेरे विनती पर। मुझे अकेलेपन से डर लगता था।
बेतरह डर। माया कॉफी पीती, सिगरेट पर सिगरेट फूँकती, रात भर
पेंट करती। उसकी उँगलियाँ निकोटीन और पेंट से पीली पड़ी रहतीं।
मैं एक कोने में कुशन पर बैठा उसे देखता रहता। रैना कहीं इस
कमरे उस कमरे विचरती रहती। मेरा संयम एक पतली डोर-सा तना था।
उस रात जब माँ ने फोन किया, मेरी आवाज़ में फुसफुसाहट थी।
''माँ, तुम आ जाओ।''
मैं पैर सिकोड़े बिस्तर पर चुपचाप पड़ा रहता। माया तंग तंग।
माँ आईं तो माया जैसे जेल से
छूटी। फिर मैं और माँ। और तब शुरू हुआ डॉ. सर्राफ के सेशंस।
हफ्ता बीता, दस दिन, फिर
पंद्रह दिन। हमारी दिनचर्या सध गई थी। बजरे में लेटे लेटे मैं
ठुमरी सुनता
कैसे के मैं आऊँ सखी हे
पिया के नगरिया
झन बोले रे
बोले बोले रे
बोले बोले रे झाँझरवा
कैसे जाऊँ मैं अपने पी के
नगरिया। इस नश्वर संसार की झाँझर मेरे पैर का साँकल बन रही थी।
अब भी मेरी आँखें भर आतीं। हमने पेप्सी और कोला ख़त्म कर दिया
था और अब आर्सी और पीटर स्कॉट पर ग्रजुयेट कर चले थे। हल्के से
नशे में हम हर वक्त टुन्न रहते। सबसे बड़ी बात ये हुई थी कि अब
मैं सोने लगा था। एक भरपूर नींद। सुबह उठता तो वही ख़याल फिर
हावी हो जाता। पर बजरे पर मेरी आत्मा शांत हो जाती। मेरा मन
कभी बचपन की गर्म दोपहरियों में भाग जाता। जेब में कंचों की
भरमार। उँगली से बनाई मिट्टी की गोल गुपची में कंचे का निशाने
से गिर जाने का आह्लाद मुस्कुराहट ला देता। मन बचपन की ओर खूब
भागता। पुरानी बिसरी बातें खूब याद आतीं। डीजे चुपचाप लेटा
किताबें पढ़ता रहता, अध्यात्म की किताबें, लाइफ़ ऑफ रमन
महर्षि, कोल्हो की आल्केमिस्ट, ऑटोबायोग्राफी ऑफ अ योगी। मैं
मछली मारता, सचमुच मछली मारता। उन छोटी-छोटी मछलियों को बाल्टी
में डाल कर खुश होता। साँझ ढले फिर वापस उन्हें पोखर में डाल
घर चला आता। एक तंद्रा छा रही थी।
उस रात रैना सपने में दिखी
थी, हँसती, खिलखिलाती, बिमारी के पहले वाली रैना। सुबह उठा तो
मन बहुत शांत था। डीजे ने कहा, आज रात को बजरे पर चलते हैं।
मैंने तय कर लिया था अब लौट जाना है। मुश्किलें अब भी थीं। पर
अब मेरे नियंत्रण में थीं। ऐसा मुझे लगता था और अपने इस नये
नियंत्रण को मैं जाँचना चाहता था। मैं अब लौटने को तैयार था।
उस रात डीजे ने अवसर के
अनुरूप ग्लेनफिडिक की बोतल साथ ली थी। खाने के लिए रोटी और
सिर्फ़ चटनी थी। बूढ़ी की तबीयत गड़बड़ थी और रोटी पक गई थी
यही काफी था। चाँदनी रात थी और हम ग्लेनफिडिक खोले बैठे थे।
घूँट-घूँट चाँदनी हम पी रहे थे। मेरा मन अरसे के बाद शांत था।
आज मैं चुप था। आज मैं हल्का था। डीजे ने बोतल मेरी ओर बढ़ाया।
उसकी कलाइयों पर निशान, मैंने पहली बार गौर किया। मेरी नज़र टिक
गई थी। हमने लगभग एक महीना साथ बिताया था और आज भी मैं उसके
बारे में कुछ नहीं जानता था। उसने अपनी दोनो कलाइयाँ मेरे
सामने कर दीं।
-ये मेरे दोनों बच्चों के
जाने के निशान हैं। उसकी आवाज़ धीमी थी। अमृत बच्चों को लेकर
अलग हो गई थी। मुझे मिलने भी नहीं देती थी। उस दिन मैं
ज़बरदस्ती उसके घर घुस गया था। अमृत बाहर थी। बच्चे मुझे देख
किलक गए थे। मैं इन्हें ले जाता हूँ, कह मैं उन्हें गोद में
उठाए ले चला। पीछे-पीछे अमृत के पिता, उसकी आया रोकते,
चिल्लाते जब तक आते मैं गाड़ी ले निकाल पड़ा था। रास्ते में ही
एक्सीडेंट। गार्गी, मेरी गुड़िया वहीं पर और शिवेन मेरा लाडला
दो दिन बाद अस्पताल में।
फिर अमृत का पगलपन, तुमने
मेरे बच्चों को मार डाला। रात बिरात घर पर आ जाती। घंटी बजाती,
बजाती ही रहती। पड़ोसी उठ आ जाते। वक्त बेवक्त फ़ोन करती,
चीखती चिल्लाती। मैं खुद अस्पताल से कमज़ोर लौटा था। उस पर मेरे
बच्चों का दुख। उस रात घर अंदर आ गई थी। पहले की कोई चाभी रही
होगी। छाती पर चढ़ गला दबाने लगी, लड़ाई गुत्थम गुत्था। भाई आ
गया उसका, पुलिस बुला लाया कि अब बहन की जान को ख़तरा। बस फिर
एक दिन परेशान होकर नसे काट ली दोनों कलाइयों की। पर खून
ज़्यादा नहीं बहा। बच गया।
डीजे मुसकुरा रहा था। एक
अजीब-सी, बेचैन मुस्कुराहट। हथेलियों में कैद तड़फड़ाते परिंदे
की तरह। उसके चेहरे पर दिन भर की दाढ़ी बढ़ गई थी। उसका चेहरा
पहली बार मुझे खूबसूरत लगा। रात के अंधेरे में उसके चेहरे का
नुकीलापन खो गया था। हमने ग्लेनफिडिक का अंतिम पेग बनाया।
अंधेरे में एक बार फिर ग्लास उठाकर बिना बोले चीयर्स किया और
मुसकुरा उठे। इस बार उसकी मुस्कुराहट कुछ सँभली हुई थी।
-आज एक कम से कम तीन किलो का
रोहू फँसा ही लें। बुढ़िया भी कुछ सोचेगी।
डीजे हँस पड़ा था। मैं चौंक
गया था। शायद मैंने पहली बार उसे हँसते सुना था। मैंने भी
जवाबी हँसी हँसी थी। हमने एक साथ ग्लास ख़त्म किया। शराब की
अंतिम घूँट को अंतिम बूँद तक पिया। नसों से होकर दिमाग तक एक
सुकून तारी हो गया। मैंने पूरी एकाग्रता से बंसी में चारा
फँसाया, फिर ध्यान देकर उसे पानी में फेंका। किसी जंगली फूल की
महक से हवा बोझिल थी। पानी में कोई कीड़ा अचानक अपना राग टि टि
टि टि गाने लगा था। हल्की हवा में पत्तियाँ सरसरा रही थीं।
मेरी उँगलियाँ शांत शिथिल पड गईं। मैंने मुड़ कर देखा, डीजे
हल्की खर्राटें लेने लगा था। उसका मुँह खुला था।
मेरी इच्छा हुई उसकी कलाईयों
के निशान को एक बार सहलाऊँ, उसे छाती से, गले से, एक बार लगा
कर मेरे भाई, मेरे यार बोलूँ। मेरी इच्छा हुई कि एक बार मैं उस
बूढ़े की तरह एक दस किलो की रोहू मछली पकडूँ, और एक बार,
सिर्फ़ एक बार बूढ़ी का पकाया इस पोखर की मछली, सरसों के हरहर
रस्से में, नीबू और धनिया पत्ती के सुगंध से सराबोर, बासमती
चावल में, उँगलियों से ये चावल के महीन दानों को सानने का सुख
लूँ और फिर भर ग्रास मुँह में स्वाद लूँ। मेरी जीभ चटपटा गई।
पर मैंने ऐसा कुछ नहीं किया,
ऐसा कुछ नहीं किया। मैंने बस बंसी को एक बार पानी से निकाला और
एकाग्रता से पानी में देखते रहने के बाद पूरे विश्वास से
दोबारा बंसी को पानी में डाल दिया। आज मुझे कम से कम एक तीन
किलो की रोहू मछली फँसानी ही थी। |