|  | मैंने धूप से बचने के लिए टोपी 
                    आँखों पर आगे कर ली थी। कोई टिटहरी रह-रह कर दरख्तों के बीच 
                    कहीं गुम बोल उठती थी। डीजे चित्त लेटा सो गया था। मैंने उसकी 
                    सोला हैट उसके चेहरे पर टिका दी। बंसी को बाजरे के पटरे पर 
                    टिका मैं भी शांत टिक कर बैठ गया। धूप की गर्मी, शांत नीरव जल, 
                    हल्के-हल्के पोखर के थपेडों पर हिलता बाजरा। मेरी आत्मा शरीर 
                    से निकल गई थी, उस ड्रैगनफ्लाई की तरह जो पानी पर तैरते पत्तों 
                    और कीडों मकोडों के ऊपर अनवरत उड रही थी। हम हमेशा की तरह 
                    पोखरे के उस भाग पर थे जहाँ से किनारे का विशाल पेड अपने छतनार 
                    शाखों और पत्तों के सहारे पानी के सतह को चूमता था। रह-रह कर 
                    पत्तों का एक-एक कर के नीचे गिरना। कुछ ही देर में डीजे का बदन 
                    उन झरती पत्तियों से ढक जाएगा। और मैं इस संसार में निपट 
                    अकेला, हमेशा का निपट अकेला। मैंने कोशिश की डीजे को उठा दूँ। 
                    इसी अकेलेपन से तो भाग रहा था। डॉ. सर्राफ ने कहा था, ''कहीं 
                    घूम आइए, अपने को समय दीजिए, गो फिशिंग।'' 
                    और मैं यहाँ सारी दुनिया से दूर 
                    इस सोये हुए डीजे के साथ मछली मार रहा था। हमें सप्ताह भर हुआ 
                    था। रोज़ सुबह हम बंसी और छोटी बाल्टी में चारा लिए हुए निकल 
                    पड़ते। रात की सूखी रोटी, मुरब्बे और तली हुई मछली लेकर हम 
                    बाजरे पर सारा दिन बिताते, बिना बोले, बिना बतियाए। आईस बकेट 
                    में पेप्सी और कोला के कैन। कभी कभार बीयर की कैन।  |