|  हम पीते रहते, लहसुन और हरी 
                    मिर्च के मसाले में तली मछली पुदीने की चटनी के साथ खाते। 
                    लच्छेदार प्याज़ और हरी मिर्च की झाँस हमारी आँखों में पानी ला 
                    देती। फिर बीयर की ठंडी कटार अपनी अलग झाँस छाती पर सुपर 
                    इम्पोज़ कर देती। बंसी पानी में डाल कर हम निश्चिंत बैठ जाते। 
                    छोटी-छोटी अँगुल भर मछलियाँ, कभी हमारी बंसी में फँस जातीं तो 
                    उसी निरावेग से हम उन्हें वापस तालाब में डाल देते। ये हमारी 
                    थेरापी थी। मछलियाँ पकड़ना फिर वापस उन्हें पानी में छोड़ 
                    देना। शाम को बूढ़ी 
                    हँसती, मुँह फेर कर विद्रूप से। -एक ढंग की मछली भी नहीं। 
                    हमारे बूढ़े को देखते। जवानी में कैसे बड़ी-बड़ी मछली मार 
                    लाता।  -एक बार दस किलो की रोहू।
                    बूढी का मुँह चटपटा जाता। मुँह से लार निकल जाती।  -ज़माना बीता इस पोखर की रोहू 
                    खाए हुए। क्या स्वाद! सरसों के मसाले में तली मछली, फिर -पतला 
                    सरसों का झोर, नीबू और धनिया पत्ता मारा हुआ। साथ में बासमती 
                    भात। चावल का -हर दाना, सरसों के खट्टे झोर के साथ। 
                     उँगलियाँ बेचैन स्मृति में 
                    छटपटा जातीं। बूढ़ी का एकालाप चलता रहता। -अब बूढा कमज़ोर हुआ। ठीक से चल भी नहीं पाता। पर जीभ अब भी 
                    चटपटाती है। बाज़ार -- की मछली का कहाँ ऐसा स्वाद।
 बूढी साँस भरती फिर झुकी पीठ को समेटते बटोरते साग रोटी बना रख 
                    जाती।
 मैं बंसी पानी में डालता, 
                    एकटक पानी में हिलती तरंग को देखता। पर रैना का चेहरा मुझे कभी 
                    नहीं दिखता। यही तो मैं चाहता था कि रैना का चेहरा मुझे कभी न 
                    दिखे। आज आईस बकेट का बर्फ़ पिघल गया था। न जाने क्यों। बीयर 
                    का हर घूँट सुसुम था। जीभ पर एक भोथर स्वाद। मुँह में खूब 
                    घुमा-फिराकर पी रहा था जैसे कोई वाईन टेस्टर। डीजे आज दूसरे 
                    छोर पर था। हमने अपनी सरहदें साफ़ खींचीं थीं। उसमें कोई 
                    दुराव, कोई बनावट नहीं था। कोई फॉर्मैलिटी नहीं थी। डीजे से 
                    मैं डॉ. सर्राफ के क्लिनिक में पहली बार मिला था। डीजे यानि 
                    देवेन जाजू। गोरा, लंबा, कनपटी पर लंबे बाल, ज़रा-सी ज़्यादा 
                    नुकीली नाक, ज़रा से ज़्यादा पतले होंठ। खूबसूरत होने से इंच भर 
                    पहले की दूरी पर। क्लिनिक में मैं अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा 
                    था। बस बैठे-बैठे लगा कि आज नहीं, किसी और दिन। डीजे हाँफता 
                    हुआ अंदर आया था। रिसेप्शनिस्ट से बहस कर रहा था तुरंत डाक्टर 
                    से मिलने को। बड़ी अजीब बेचैन आवाज़ थी। जैसे समंदर के विशाल 
                    थपेड़े को टूटने से सँभाला हुआ हो। मैं उठ खड़ा हुआ था। 
                     -ही कैन अवेल माई टाईम 
                     मैं बाहर आ गया था, सिगरेट 
                    जलाई थी फिर बहुत देर गाड़ी में स्टीयरिंग व्हील पकड़े जड़ बैठा रहा था। सिगरेट की जलती 
                    नोक भुरभुरे राख में तब्दील हो गई थी।  तब रैना को गए ज़्यादा दिन 
                    नहीं हुए थे। मेरे अंदर एक रेतीला तूफ़ान हरहराता था। आँखों 
                    में रेत, मुँह में रेत। मुट्ठियों से जीवन अचानक किसी 
                    हावरग्लास की तेज़ी या कहें सुस्ती से चूक गया था। तब शुरुआत के दिन थे। हम अपना 
                    दुख एक दूसरे से छिपाते चलते थे। हमने अपने-अपने शोक-स्थल चुन 
                    लिए थे। रैना बाहर फूलों, पौधों की निराई करते वक्त आँसुओं से 
                    उन्हें सींचा करती। मैं बाथरूम में। फिर रैना कमज़ोर होती चली 
                    गई थी। हमने अपने जगह बदल दिए थे। रैना बाथरूम में रोती। मैं 
                    बाहर दरवाज़े पर टिककर। फिर वो बाहर निकलती तो चेहरा धुला-धुला 
                    लगता। मुझे एक गीली मुस्कान देती और बिस्तर पर निढाल पड़ जाती। हम इस 
                    दुख के चारों ओर पैंतरे बाँधे शिकारियों के चौकन्नेपन से घेर 
                    बाँधते। इन दिनों उसका चेहरा पीला, कमज़ोर, नाज़ुक हो गया था। 
                    सारे नक्श और तीखे, कोमल और सुबुक। उसकी बाँहों पर नीली नसों 
                    की धारियाँ फैल गई थीं। मैं घँटों निःशब्द उन्हें सहलाता रहता। 
                    माँ आना चाहती थीं। मैंने मना कर दिया था।
 -अभी नहीं, जब जरूरत होगी मैं 
                    खुद बोलूँगा।इन अंतिम दिनों को किसी के संग बाँटना नहीं चाहता था। रैना 
                    कोशिश करती कि मेरे सामने खूब खुश दिखे। मैं भी तो यही कोशिश 
                    करता था। हम उल्टी सीधी बेसिर पैर की बातें करते जिनका कोई ओर 
                    छोर न होता। हमारे जीवन में ही कोई ओर छोर बाकी नहीं था। हम 
                    भविष्य की बातें नहीं कर सकते थे, हम वर्तमान की बातें भी नहीं 
                    कर सकते थे। बस ले दे कर पुरानी स्मृतियाँ थी जिनके भरोसे 
                    हमारे बात का सिलसिला टूटता बिखरता था। कभी ये सोच कर मेरी 
                    साँस थम जाती कि इन स्मृतियों का भार भी मुझे रैना के बाद, 
                    अकेले संजोना है। कोई नहीं होगा जिसके साथ मैं अपने दुख और 
                    अपने सुख को बराबरी से साझा कर पाऊँगा।
 उस रात मेरी नींद खुली थी। 
                    रैना किसी गर्भस्थ शिशु की भाँति पैर छाती में समेटे सुबक रो 
                    रही थी। उस अबोले पैक़्ट के अंतरगत, जिसमें हम एक दूसरे के 
                    सामने रैना के निश्चित जाने के बारे में नहीं बोलते थे, मैं दम 
                    साधे चुप पड़ा रहा। कितनी देर पड़ा रहा। मेरा शरीर अकड़ गया, 
                    मेरी नसें तन गईं। और जब ये लगने लगा कि ऐसे ही काठ की भाँति 
                    मैं युगों-युगों तक पड़ा रहूँगा, मेरे अंदर, उस काठ शरीर के 
                    अंदर कोई आदिम रुलाई उमड़ने लगी। उस आवेग ने तेज़ी पकड़ी और 
                    पहाड़ी नदी में डूब जाने का भय, उस होश के कगार पर से क्रंदन 
                    के निर्मम संसार में औचक गिरते जाने का भय अचानक समाप्त हो 
                    गया। मैं मुड़ा। रैना को बाँहों में खींच समेट लिया। आज हमारा 
                    शरीर एक नए नृत्य में रत था। ये शोकनृत्य था। इस मेरे संसार के 
                    खत्म होने का आयोजन था, उत्सव था। हमारा शरीर एक लय में रो रहा 
                    था। किसी कबीलाई मृत्युनृत्य का आदिम विलाप। बीयर की अंतिम घूँट भर कर मैं 
                    सीधा बैठ गया था। आज कैन नहीं बोतल था। किंगफिशर के लेबल पर 
                    बहुत देर तक उँगली फिराता रहा। मन हुआ कोई चिट्ठी लिखकर उस 
                    बोतल में बंद, तैरा दूँ इस हरे पानी में। किसी छेद से, किसी 
                    जादू से मेरा ये खत उस दुनिया में पहुँच जाए। बस पहुँच जाए। 
                    मैं स्थिर बैठा रहा। निस्पंद, निश्चल। मेरी हथेलियाँ बंसी को 
                    पकड़े शिथिल हो रही थीं। मेरा हाथ मुझे नहीं कहता था कि ये मेरा 
                    है, मैं ये सिर्फ़ महसूसता था। मेरा शरीर मेरा नहीं था, मेरी 
                    साँस मेरी नहीं थी, न मेरी धड़कन। फिर भी मैं महसूस करता था कि 
                    ये सब मेरा है। ये सब मैं हूँ। मैं जो था, तत त्वम असि। विचार 
                    मेरे मन में आते थे। वे मेरे थे ऐसा वे नहीं कहते पर ऐसा है ये 
                    मैं विश्वास करता और यह भी मेरी ही सोच थी। ये ''मैं'' कहाँ से 
                    आता था? ''मैं'' कौन था? कौन? और इसे जानने के लिए मेरा ये 
                    जानना बहुत ज़रूरी था कि मैं क्या नहीं था। मैं अपने शरीर को 
                    महसूस करता था अपनी इंद्रियों से। मैं अपने विचारों को महसूस 
                    करता था अपने इंद्रियों से। मैं ही दृश्य था मैं ही दृष्टा था। 
                    सत चित्त आनंद।  |