मयंक जी ने उन्हें इसके बावजूद
पुस्तकालय बनाने के लिए प्रेरित करने की कोशिश की, अच्छे
साहित्य के ज़रिए अच्छे संस्कारों की चर्चा की, खुद कई सौ
किताबें पुस्तकालय के लिए मुफ्त देने की बात की पर उनमें से
कोई भी मयंक जी की बातों से प्रेरित नहीं हुआ। वे नेताओं,
अभिनेत्रियों, अधिकारियों यहाँ तक कि बड़े स्तर के गुंडों की
बातों से भी प्रेरणा ग्रहण करते थे। मयंक जी जैसे कलमघसीटों से
नहीं।
मयंक जी ने इस संबंध में एक
पत्र बनाकर चार अख़बारों को भी भेजा। एक अखबार ने ज़रूर उस
पत्र को काट-छाँट कर 'संपादक के नाम पत्र' स्तंभ में छाप दिया।
मयंक जी अपने पत्र की बोनसाई को लेकर नगर के मुख्य प्रशासक से
मिले और सरकार के सहयोग से पुस्तकालय बनाने की माँग रखी।
प्रशासक ने अगले वित्तीय वर्ष में विचार करने का आश्वासन दिया।
मयंक जी लौट आए।
इस तहर पुस्तकालय की चर्चा
करते, संभावना की तलाश करते तीन ऋतुएँ बीत गईं। उस प्रशासक का
तबादला हो गया, शहर में एक आलीशान होटल खुल गया जिसके बेहतरीन
बार का उद्घाटन एक विदेशी अभिनेत्री किया, जो एक फिल्म की
शूटिंग के सिलसिले में भारत में आई थी। शहर के सभी मोटी जेब
वालों को उस दिन वहाँ आमंत्रित किया गया था, जिन्होंने वहाँ
जाकर एक छोटा-सा गदर मचाया। होटल के अलावा इन कुछ महीनों में
तीन विदेशी फास्ट फूड के रेस्तराँ खुले, सरकारी भूमि का
अतिक्रमण कर पाँच मंदिर, दो मस्जिद और एक गुरुद्वारा बनाया
गया, दलित सेना ने हल्ला बोलकर एक सार्वजनिक पार्क को अंबेडकर
पार्क घोषित करके उसके बीचोंबीच गौतम बुद्ध और बाबा साहब की
मूर्तियाँ लगा दीं, हाँ दो अंग्रेज़ी स्कूल भी अपने भव्य भवनों
के साथ प्रकट हुए थे जिनमें अपने बच्चों के प्रवेश के लिए लोग
मन और धन लुटाने को तैयार थे। इतना सब होने के बावजूद मयंक जी
कोई पुस्तकालय नहीं खुलवा पाए, जहाँ अपनी किताबों का वे
सदुपयोग कर पाते। उन्होंने पब्लिक स्कूलों की लाइब्रेरियों से
भी संपर्क किया। उन्हें हिंदी, वह भी साहित्य की किताबों से
कोई मतलब नहीं था। उनकी माँग अंग्रेज़ी किताबों की थी, वह भी
कैरियर संबंधी।
जैसा कि पता था उस मकान को
छोड़ने का समय आ चुका था। मकान मालिक ने नोटिस दिया था। इस बीच
शहर में मकानों का किराया इतना बढ़ गया था कि मयंक जी के लिए
वर्तमान फ्लैट से किसी छोटे फ्लैट में जाने की बाध्यता हो गई।
हर बार मकान छोड़ने के बाद नए मकान का किराया बढ़ जाता और जगह
कम हो जाती। इस बार जो हालत थी उसमें अपना कुछ फर्नीचर बेचे
बिना फ्लैट में रहना मुश्किल था।
हर बार मकान छोड़ने की स्थिति
आने पर मयंक जी बेहद तनाव में जीते। अपना मकान न बना पाने के
लिए राजेश्वरी उन्हें ज़िम्मेदार मानती। मयंक जी को जली-कटी
सुनाती। बेटा प्रस्तुत भी पीछे नहीं रहता। वह कहता, ''अपनी
ज़िंदगी तो सर्कस की ज़िंदगी हो गई है माँ! तंबू खोलो और तंबू
तानो।''
मयंक जी के पास पढ़ने की एक बड़ी मेज़ थी। राजेश्वरी ने कहा,
''यह मेज़ बहुत जगह घेरता है, इसे बेच दो।'' शादी के वक्त मिला
डबलबेड का पलंग भी ज़्यादा जगह घेरता था। उसे भी बेचना तय हुआ।
डाइनिंग टेबल भी जगह घेरता था। इसे बेचकर एक गोलाकार फोल्डिंग
डायनिंग टेबल ख़रीदने की बात सोची गई। किताबों की चार
अलमारियों में से तीन आलमारियाँ बेचने का भी फ़ैसला कर लिया
गया। पढ़ने की मेज़, आलमारियाँ मयंक जी ने दर्जनों में से पसंद
करके बड़े अरमान से ख़रीदी थीं। इन्हें ख़रीदते वक्त उन्होंने
अपने कितने ही ख़र्चों की कटौती की थी। मगर अब बेचने की लाचारी
थी।
मयंक जी ने अखबार में फर्नीचर
बेचने का विज्ञापन दे दिया। साथ ही अपनी पुस्तकें भी सुयोग्य
पात्र और संस्था को बिना मूल्य देने की सूचना छपवा दी।
पुस्तकों सहित अलमारी देने का प्रस्ताव उन्होंने मोटे अक्षरों
में छपवाया था। मगर शर्त यही थी कि लेने वाला गुणी हो, जो
पुस्तकों की हिफ़ाज़त करे।
विज्ञापन के जवाब में उनसे
फर्नीचर ख़रीदने के लिए कई लोग आए। उसमें से जिसे जो फर्नीचर
पसंद आया, सस्ते में सौदा करके उठा ले गया। पुस्तकों सहित कोई
अलमारी लेने के लिए तैयार नहीं हुआ। एक व्यक्ति अपनी दुकान में
अपना सामान रखने के लिए उन्हें चाहता था। भरी अलमारी उसके लिए
बेकार थी। मजबूरन सारी किताबें निकालकर उसे खाली अलमारी आधी से
भी कम कीमत पर बेच दी गई। पंद्रह दिनों के अंदर फर्नीचर निकल
गया। पुस्तकें रह गईं।
मयंक जी के भीतर कितनी तकलीफ़
थी उसे वे बता नहीं पाते थे। किताबों से बिछुड़ने की बात सोचकर
वे उन किताबों से जैसे और चिपकते जा रहे थे। वे दिन भर उन
किताबों के बीच बैठे उनके पन्ने पलटते और अपने ख़यालों में डूब
जाते। हर पुस्तक को देखते और याद आता उसे उन्होंने कब और कैसी
तंगी के बीच ख़रीदा था। एक पुस्तक तो कई वर्षों ढूँढ़ने के बाद
उन्हें मिली थी। दो पुस्तकों ऐसी थीं, जिन्हें ख़रीदने के बाद
उनके पास घर लौटने के पैसे कम पड़ गए थे। वे उस दिन घर पैदल आए
थे। एक दिन कुछ चीज़ें ख़रीदने निकले थे, मगर किताब की दुकान
में एक महंगी किताब पसंद आ गई तो वे सामान ख़रीदने की बात
भूलकर उसे ख़रीद लाए थे। उस दिन राजेश्वरी से उन्हें झिड़क
खाने को मिली थी। एक किताब के कारण तो उनकी एक मित्र से अनबन
हो गई थी। कुछ किताबें तो उन्हें कॉलेज में इनाम में मिली थीं।
कुछ दोस्तों ने अपने हस्ताक्षर कर उन्हें प्रेम से दी थीं। हर
किताब पर वे हाथ फेरते और वह किताब जैसे बोलने लगती। उन्हें इस
बात की तकलीफ़ थी कि अपनी किताबों के लिए उन्हें अभी तक कोई
योग्य उत्तराधिकारी नहीं मिला। उनके साहित्यिक दोस्त भी उनकी
मदद नहीं कर पाए। दो-चार चुनी हुई किताबें लेने के लिए तो वे
तैयार थे, पर सारी नहीं।
मयंक जी को एक बात याद करके
हँसी आ गई। एक बार उनके घर में एक लड़का काम करने आया था। उन
दिनों रामेश्वरी अस्वस्थ रहती थीं। उनकी मदद के लिए अपने एक
परिचित की सिफ़ारिश पर उसे रख लिया। वह लड़का काम-काज में ठीक
ही था। दिन बीत रहे थे। एक दिन प्रस्तुत ने उसे बाज़ार में
कबाड़ी की दुकान पर उसे उनकी दो-तीन किताबें बेचते पकड़ लिया।
पता चला वह अक्सर मयंक जी की पुस्तकों के ढेर से एक दो
मोटी-मोटी पुस्तकें छाँटकर बाहर बेच आता था। उन पैसों से कुछ
खा-पी आता। मयंक जी ने भी जब स्थिर मन से ढूँढ़ तो पता चला,
दर्जन से ज़्यादा मोटी किताबें वह पार कर चुका था। उसे
उन्होंने उसी दिन हाथ जोड़कर विदा किया और कसम खा ली कि अब
किसी ऐसे चटोरे को घर में नहीं घुसाएँगे। मयंक जी को इस वक्त
लगा कि चलो अच्छा हुआ, उनकी किताबें किसी गरीब के काम आई। इस
वक्त तो ये किताबें वाकई पूरे परिवार के लिए बोझ थीं।
मयंक जी जब बोझिल मन से बैठे
थे और उन्हें कोई राह नहीं सूझ रही थी तभी उनके फ्लैट की घंटी
बजी। प्रस्तुत ने दरवाज़ा खोला। बाहर एक व्यक्ति खड़ा था। उसने
कहा, ''सुना है आपके यहाँ किताबें हैं। मैं उन्हें लेने आया
हूँ।''
प्रस्तुत खुशी से उछल पड़ा।
उसने कहा, ''भीतर आइए।'' उसके भीतर आने के बाद प्रस्तुत ने
कहा, ''ये किताबें लेने आए हैं। दे दीजिए।'' फिर प्रस्तुत ने
पूछा, ''आप किताबें ले किसमें जाएँगे?''
उसने कहा, ''अपना ठेला है। रिक्शा ठेला।''
मयंक जी ने पूछा, ''आप करते क्या हैं?''
''जी कबाड़ी हूँ।''
मयंक जी चौंके। बोले, ''मैं पुस्तकें कबाड़ में बेचना चाहता
हूँ, यह आपसे किसने कहा?''
''दिन भर इसी धंधे में घर-घर घूमते रहते हैं बाबू जी! पता चल
गया।''
''ये बहुत अच्छी किताबें हैं। इन्हें कबाड़ में कैसे बेचा जा
सकता है?''
''बाबू जी, इससे भी अच्छी किताबें, नई-नई किताबें भी लोग कबाड़
में ही बेच देते हैं। कई बार हम लेना नहीं चाहते तो कुछ लोग
यों ही दे देते हैं।''
''यों ही?'' मयंक के मुँह से निकला। वे चुप हो गए।
''अरे वाह, यों ही कैसे दे दें?'' कबाड़ी आया देखकर प्रस्तुत
की वणिक बुद्धि जाग उठी।ष प्रस्तुत ने कहा, ''अरे ये सारी टॉप
की स्टोरी, नॉवेल, पोइट्री की किताबें हैं। हर किताब चौथाई
कीमत पर देंगे। तुम आधी कीमत पर बेच देना?''
''हम ते किलो में ख़रीदते हैं बाबू! चार रुपए किलो!''
कुछ देर प्रस्तुत और कबाड़ी
में मोलतोल चलता रहा। कोई भी दबने के लिए तैयार नहीं था। मयंक
जी विचित्र दृष्टि से दोनों को देखते रहे। अचानक वे बोले, ''जब
कबाड़ ही है तो क्या बहस करना। जब बोझ ही है तो कैसा मोह! मैं
तो इन किताबों को मुफ्त में किसी योग्य व्यक्ति को देने के लिए
तैयार था। ख़ैर, यह जो दे दे, ले लो।''
''आप रेट मत खराब कीजिए पापा!'' प्रस्तुत ने कहा।
राजेश्वरी रसोई में थी। वह वहीं से बोलीं, ''तुम्हारे पापा
सारी ज़िंदगी रेट ही ख़राब करते आए हैं। अगर ये ढंग से अपने
हुनर को बेच पाते तो हम इससे बेहतर ज़िंदगी जी सकते थे।''
मयंक जी उठकर भीतर कमरे में
चले गए। उन्होंने अपनी आँखें मूँद लीं। उन्हें लगा वे अंधेरी
दलदल में फँस गए हैं और उसमें धँसते जा रहे हैं।
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