मयंक जी
स्वयं के बारे में भलीभाँति जानते थे कि वे अपने परिवार की
नज़रों में बेदाग़ नहीं है। वे जानते थे कि अपनी माँ से लेकर
अपनी पत्नी और बेटे का दिल वे समय-समय पर दुखाते रहे हैं। माँ
चाहती थी कि बेटा कोई छोटा-मोटा ही सही, अफ़सर बन जाए। या
डॉक्टर या इंजीनियर। पर मयंक जी को अध्यापन रास आया क्यों कि
इसमें उनके कवि को सुविधा थी। माँ इसी दुःख में जीवन की पतली
गली से आँख मूँदकर उस पार खिसक गई। पत्नी राजेश्वरी भी मयंक जी
के स्वभाव से निराश रहती थीं। वह उन्हें आम लोगों से कुछ
विचित्र-सा पाती थीं। कवि की पत्नी होने के नाते समाज में
राजेश्वरी को वह इज़्ज़त नहीं मिलती थी जो घोटाले में लिप्त
निलंबित इंजीनियर की पत्नी होने के बावजूद कांता जी को मिलती
थी। सपना जी को भी वही इज़्ज़त मिलती थी जिनके पति स्थानीय
विधायक के साथ लगे रहते थे। मयंक जी का बेटा प्रस्तुत भी अपने
पिता से नाराज़ रहता था। उसे अपने पिता के दिए नाम से बड़ी
चिढ़ थी। उसके दोस्त न उसका नाम ठीक से समझ पाते थे न बोल पाते
थे। वे उसका मज़ाक उड़ाते। कॉलेज के कुछ अध्यापक भी उसका नाम
लेते वक्त अपनी मुस्कराहट दबाने की कोशिश करते। एक बार हिंदी
के एक अध्यापक ने निराला जी की चर्चा करते हुए जब कहा कि कवि
तो पागल ही होते हैं, तब इसे सुनकर प्रस्तुत की ओर देखते हुए
कुछ दुष्ट लड़के हँसे भी थे।
जब कोई बेटा खुलेआम पिता की
रुचियों और उनकी समझ पर उँगली उठाने लगे तब समझ लिया जाता है
कि बेटा जवान हो गया है। प्रस्तुत ने अपनी माँ से पिता के
विरुद्ध अपनी असहमति जतानी शुरू कर दी था। राजेश्वरी मन ही मन
खुश हुई थीं कि बेटा जवान हो गया है। वह उसकी शादी के बारे में
ख्याली पुलाव पकाने लगीं। उन्होंने सोच लिया कि जिस दिन
प्रस्तुत को अपनी नौकरी की पहली तनख़्वाह मिलेगी वे उसी दिन
कॉन्वेंट में पढ़ी किसी सुंदर लड़की से उसकी शादी पक्की कर
देंगी। प्रस्तुत को भी उन्होंने मयंक जी की इच्छा के विरुद्ध
कान्वेंट स्कूल में शिक्षा दिलाई थी। राजेश्वरी नहीं चाहती थीं
कि प्रस्तुत बड़ा होकर ठेठ हिंदी वाला बनकर अपना कैरियर
बिगाड़े।
मयंक जी के शब्दों के संसार
में राजेश्वरी और प्रस्तुत घबड़ाहट के कारण प्रवेश ही नहीं
करना चाहते थे। मयंक जी की कविताएँ साहित्य जगत में भले ही
सराही जाती रहें, उनके ही घर में नहीं पढ़ी जाती थीं। उन पर एक
अघोषित पाबंदी लगी हुई थी। यह पाबंदी मयंक जी की आर्थिक गिरावट
को देखकर लगी थी। विवाह के शुरू-शुरू में राजेश्वरी ने अपने
पति की कविताओं को पढ़ने और सुनने में भरसक रुचि दिखाई थी। मगर
बाद में उन्हें अरुचि होने लगी थी। उन्हें लगता था कि कविता का
चक्कर नहीं होता तो मयंक जी ज़्यादा व्यावहारिक होते। औरों की
तरह उनका बैंक बैलेंस होता, अपनी मकान होता। उन्हें सालदो साल
बाद किराये का मकान नहीं बदलते रहना पड़ता। मकान बदलने में
राजेश्वरी को सबसे ज़्यादा दिक्कत मयंक की लाइब्रेरी से होती
थी। आलमारियों में भरी ढेर सारी किताबों को निकालना, रखना,
सहेजना, बाँधना, फिर उन्हें नए मकान में जाकर खोलकर आलमारियों
में फिर से व्यवस्थित करना बड़ी थकान का काम होता था। किताबों
को रखने के लिए अलमारियाँ भी नाहक ख़रीदनी पड़ी थीं। इसके
अलावा और भी किताबें दो-तीन संदूकों में भी ठुँसी हुई थीं,
जिन्हें खोलकर देखने की नौबत ही नहीं आती थी। मयंक जी को जब
कोई किताब ढूँढ़नी होती, तब उन्हें खोला जाता था। फिर तो उस
दिन घर में चारों तरफ़ उस कमरे में किताबें नज़र आतीं जिन्हें
दुबारा ट्रंक में ठूँसने के लिए कभी राजेश्वरी या प्रस्तुत की
ज़रूरत पड़ती। प्रस्तुत को यह अप्रिय काम करना पड़ता तो बेहद
बड़बड़ाता। मयंक जी उसके इस स्वभाव पर मुस्कराकर रह जाते थे।
मयंक जी को आलमारियाँ विवशता
में पुस्तकों की सुरक्षा के लिए ख़रीदनी पड़ी थीं। कुछ तो
किताबों को चूहों से और कुछ उनसे मिलने आए मित्र साहित्यकारों
से बचाने के लिए। इसके अलावा किराये के मकानों में शो-केस और
वार्डरोब की जगह के अलावा कुछ और रखने के लिए दीवारों में जगह
नहीं बनाई जाती थी। किताबों के प्रेमी किरायेदार इतने कम होते
थे और मकान मालिक भी चूँकि इस दीवानगी से बचे होते थे इसलिए घर
में पुस्तक सजाकर रखने की वजह निकालने की बात किसी के ध्यान
में ही नहीं रहती थी। शोकेस और कपड़े रखने की आलमारी में
किताबें नहीं रखी जा सकती थीं। मयंक जी को किताबों के लिए हर
बार अलग ही व्यवस्था करनी पड़ती। कुछ तो किताबें खरीदने की आदत
के कारण और कुछ पुस्तक जगत के सहभागियों से भेंट में मिलती
रहने के कारण, उनके पास किताबें निरंतर बढ़ती रहती थीं। मयंक
जी को पुस्तकें बेहद प्रिय थीं। अगर वे लोककथाओं के राक्षस
होते तो उनकी जान किसी किताब में ही बसी होती। किताबों की
बढ़ती संख्या से आलमारियाँ बढ़तीं। जब-जब घर में किताबों के
लिए नई आलमारी खरीदने की नौबत आती, एक छोटा-मोटा महाभारत छिड़
जाता था।
कभी-कभी प्रस्तुत खीझते हुए
कहा, ''बाबा ने पूरे घर को लाइब्रेरी बना रखा है। जहाँ देखो
किताबें ही किताबें। लगता है हम घर में नहीं, लाइब्रेरी में
बैठे हुए हैं।''
मयंक जी कहते, ''यह अहसास हो तो बुरा क्या है? ख़ासकर उसके लिए
जिसे अपने कैरियर के लिए पढ़ना ही पढ़ना है। ऐसे वातावरण में
रहने से पढ़ाई अच्छी होती है।''
प्रस्तुत कहता, ''इस दिखावे की लाइब्रेरी में मेरा मन क्या
लगेगा। इसमें एक भी किताब ऐसी नहीं है जो मेरे कैरियर में मदद
करे। एक बार यों ही खाली समय में एक कविता की किताब लेकर बैठ
गया। कविताएँ तो अपनी समझ में नहीं आईं, जो कुछ अपना पढ़ा था,
उसे भूलने की नौबत आ गई।''
राजेश्वरी बोलीं, ''ये सब चीज़ें भूलाकर भी नहीं पढ़ना बेटा!
अपने पापा की तरह बिगड़ जाओगे।''
मयंक जी ने कहा, ''तुम सब पढ़े-लिखे मूर्ख हो। हीरे को पत्थर
समझते हो। मैं क्या कहूँ।''
''कहोगे क्या?'' राजेश्वरी बोलीं, ''इस बार मकान बदलने से पहले
इन किताबों को ठिकाने लगा दो। मुझसे बार-बार पैकिंग करते नहीं
बनता। इसके अलावा जगह तो ये घेरती ही हैं अपने दो-तीन संदूक भी
इसमें फँस गए हैं। हम लोग तो सिर्फ़ इन्हें ढोने के लिए ही रह
गए हैं। ऐसे ढोने से क्या फ़ायदा?''
मयंक जी ने भी सोचा पत्नी ठीक
ही कह रही है। अरुचिकर को ढोना पड़े तो वे बोझ ही बन जाती हैं।
अपना मकान होता तो कोई बात नहीं थी। लेकिन इन स्थितियों में तो
वाकई तकलीफ़देह हैं।
काफी देर तक सोचने के बाद
मयंक जी ने फैसला किया कि अपना पुस्तकालय वे किसी लाइब्रेरी को
दे दें। घर का बोझ भी ख़त्म होगा, पुस्तकालय वालों को भी खुशी
होगी और पुस्तकें पाठकों तक पहुँचेंगी भी। उनके पास ऐसी-ऐसी
किताबें हैं जो किसी भी पुस्तकालय के लिए प्रतिष्ठा बन सकती
है। हर पुस्तक एक मोती है। मोतियों की इस लड़ी को उपयुक्त
स्थान में रखना ही बेहतर होगा।
मयंक जी शहर में पुस्तकालय
ढूँढ़ने निकल पड़े। उन्हें आश्चर्य हुआ कि शहर में कोई
पुस्तकालय नहीं था। आज़ाद भारत में यह नया शहर बसा था। नए शहर
में नए अमीर आकर बसे थे। ये अमीर हर आयु वर्ग के थे। अपनी
स्थितियों और पेशों का दुरुपयोग करके अनाप-शनाप धन बटोरकर इस
शहर में उन्होंने कोठियाँ खड़ी की थीं। पूँजीवाद पर आधारित इन
घरों में बाहर छायावाद और भीतर रहस्यवाद नज़र आता था। इन भवनों
में सुंदर-सुंदर कुत्ते और अपनी काया को संतुलित बनाए रखने
वाली महामायाएँ रहती थीं। इन भवनों के सुंदर फाटकों पर सुंतर
पुतलों की तरह दरबान खड़े रहते थे। इस नए बसे शहर की सड़कें
बड़ी सुंदर थीं जिन पर बिजली के सुंदर खंभे लगे हुए थे। सुंदर
बाज़ार थे जिनमें सुंदर दुकानें थीं। उनमें अच्छी किताबों को
छोड़कर दुनिया भर का सामान मिलता था। पिछले दिनों एक फैशनेबल
किताबों की एक दुकान ज़रूर खुली थी। उनमें सुंदर बनाने के
सुझावों से भरी किताबें और चकाचक विदेशी औरतों के चित्रों और
चिकने चटक आवरण वाले अंग्रेज़ी के चालू उपन्यास बिकते थे।
अंग्रेज़ी में लिखी ज्योतिष और कैरियर को सफल बनाने वाली
किताबें भी वहाँ मिल जाती थीं। पर साहित्य को छोड़िए, हिंदी की
कोई किताब वहाँ नहीं दिखती थी। आज़ाद देश के नए बने शहर में
चारों तरफ़ अंग्रेज़ी की भरमार थी। शहर में सुंदर बनाने के लिए
अनगिनत ब्यूटी पार्लर खुल गए थे। सुंदर डील-डौल बनाने के लिए
जिम खुल गए थे। चुस्ती-फुर्ती बनाए रखने के लिए सुंदर गोल्फ
कोर्स और क्लब खुल गए थे। ह्रदय रोगों और मधुमेह पीड़ितों के
लिए सुंदर दवाखाने खुल गए थे जिनमें मौजूद हर चिकित्सक अपने को
विशेषज्ञ कहता था। इतनी सारी सुंदर चीज़ों के बीच मयंक जी को
एक सुंदर तो क्या असुंदर पुस्तकालय की परछाई भी नज़र नहीं आई।
कुछ बुद्धिजीवियों ने ज़रूर एक काफी हाउस बनाने की माँग उठाई
थी। वैसे उनमें से कुछ बुद्धिजीवियों ने पैसों के बल पर संपन्न
क्लबों में अपनी घुसपैठ कर ली थी। उन क्लबों में भद्रजन शराब
पीकर ताश की चिकनी गड्डियों से अपना मन बहलाते थे। उन क्लबों
में इसके अलावा स्नूकर, बिलियर्डस, टेबल तथा लॉन टेनिस खेलने
की व्यवस्था थी। पर सबसे ज़्यादा मन भद्रजनों का राजनीतिक बहस
और अफ़वाहों में लगता था। इतनी ऊँची किस्म की व्यवस्थाओं में
किताबों की बात सोची ही नहीं जा सकती थी, व्यवस्थाओं में
किताबों की बात सोची ही नहीं जा सकती थी, नहीं तो बड़े क्लबों
में क्या लाइब्रेरी नहीं बनाई जा सकती? पहले के क्लबों में
ज़रूर होती थी।
इस बीच शहर में कई साइबर ढाबे
और कैफे खुल गए थे। अंग्रेज़ी फ़िल्में दिखाई जाने के लिए दो
सिनेमा हॉल भी खुल गए थे। नई पीढ़ी इन्हीं जगहों में अपना वक्त
बिताना ज़्यादा पसंद करती थी। मयंक जी ने पुस्तकालय की छानबीन
से निराश होकर कई सामाजिक-धार्मिक संस्थाओं और ट्रस्टों से
जुड़े लोगों से बात की। किसी में भी पुस्तकालय के प्रति उत्साह
नहीं था। वे बोले, ''अरे साहब, साहित्यिक किताबें पढ़ने की अब
किसे फ़ुर्सत है? अब तो लौंडे जनरल नॉलेज की किताबें पढ़ लेते
हैं, उसी में मोटामोटी सब मिल जाता है। उसी को पढ़कर कई लोग
छप्पर फाड़ के लखपति-करोड़पति भी बन चुके हैं।'' |