वह दरवाज़े से थोड़ा हटा तो मैं
गिरते पड़ते हुए घर में दाखिल हो गया। रसोई में जाकर मैंने
थैले पटके तो मेरी पत्नी फुसफुसाई, ''यह तुम्हारा सिर खाऊ
दोस्त फिर आया बैठा है।''
मैंने हाथों और आँखों के संकेत से उसे चुप हो जाने को कहा और
उस कमरे में चला गया जहाँ वह अब तक पहुँच चुका था। उसकी शर्ट
सोफे पर पड़ी थी और वह दीवान पर बैठा मजे में मुस्करा रहा था।
मुझे देखकर बोला, ''यार तुम तो कभी आते नहीं। लगता है हमसे
नाराज़ हो। न कभी खुद आते हो न भाभी बच्चों के लाते हो। भला यह
भी कोई बात हुई। हम और तुम तो बचपन के साथी हैं, हम लोगों को
तो और भी फ्रीक्वेंसी से मिलना चाहिए।
मैंने सहज होने की कोशिश की,
''अरे छोड़ो भी। अब इसमें क्या धरा है कि कौन किसके पास आया।
इसके अलावा मैं आऊँ कैसे? तुम तो दूर रहते हो। स्कूटर
गाड़ी-मोटर सभी कुछ तो तुम्हारे पास हैं। तुम्हें तो आने में
हवा जैसी सुविधा प्राप्त है। जब मन हुआ उड़ लिए। इधर मुझे बसों
के नंबर और रास्तों का भी ठीक-ठीक पता नहीं है। घर से निकलूँगा
तो घंटों चक्कर मारता हुआ घूमूँगा।''
अपनी बात कहते-कहते मुझे सहसा
याद आया कि इतने सालों में मैं केवल एक बार उसके घर गया था और
वह भी एक बाध्यता के कारण। उसका नया मकान बना था और गृहप्रवेश
का अवसर था। वह एक ऐसी आपाधापी और औपचारिकता का मौका था कि
मकान देखकर सिवाय प्रशंसा करने के और कोई घनिष्ठता प्रदर्शित
नहीं की जा सकती थी। मैंने उसे देखा तो लगा जैसे वह कुछ बेचैन
नज़र आ रहा है। शायद वह कुछ कहने को आतुर था और अपनी बात कहने
के लिए उपयुक्त क्षण की तलाश में था।
उसने अपनी दायीं हथेली मुझे
दूर से दिखाकर कहा, ''मेरा भाग्योदय इसी अक्टूबर से होने जा
रहा है। ज्योतिषियों का मानना है कि अब दस वर्षों तक यह ऊरुज
(ऊँचाई) पर ही जाएगा।''
वह अपने स्थान से उठा और सोफे पर मेरे पास आकर बैठ गया। उसने
अपनी हथेली मेरे सामने बढ़ाकर कहा, ''यह देखो मेरी सूर्य रेखा।
यह लाखों में किसी एक की इतनी साफ़ और गहरी होती है।''
उसकी उँगलियों में जड़ी
अंगूठियाँ पहनने की सलाह भी उसे भाग्यविधाता ज्योतिषियों ने ही
दी होगी। मैं चंद्र-सूर्य रेखाओं के बारे में तो एकदम कोरा ही
था- इसलिए उसके भाग्योदय ने मुझे एकदम पछाड़कर रख दिया। अगर
इसके भाग्योदय का यही हाल रहा तो वह मुझे साल भर में बीसियों
बार चमत्कृत करने के लिए आने लगेगा। पर मैंने स्वयं को धीरज
बँधाने की कोशिश की। अगर यह भाग्योदय के चक्कर में पड़ ही गया
है तो फिर यहाँ क्यों आएगा, तब तो इसका विदेश जाने का चक्कर
शुरू हो जाएगा।''
अब वह शुरू हो चुका था। मेरे
गले में प्यार से बाँह डालते हुए बोला, ''मुझे बराबर हैरत होती
है कि मेरे सब काम एकाएक सोचते कैसे हो जाते हैं? और मज़ा यह
है कि मेरे साथ हमेशा से यही कुछ होता चला आ रहा है।''
मैंने उसकी हाँ, में हाँ मिलाने में बहुत फुर्ती दिखाई ताकि
कहीं वह यह न समझने लगे कि मैं उससे ईर्ष्या कर रहा हूँ, ''हाँ
भई कुछ लोग सोने का चम्मच मुँह में लेकर पैदा होते हैं। उनके
कठिन से कठिन काम भी चुटकी बजाते हो जाते हैं।''
वह परम आश्वस्त दिखा, ''अब इसे क्या कहा जाए और लोग तो अपनी
असफलताओं का रोना ही रोते रहते हैं।'' |