मेरा दिल सहानुभूति-संवेदना से
ऊपर तक लबालब था। मस्तिष्क में तमाम संवेदना संदेशों की
इबारतें घूम गईं। लेकिन संवेदना दें तो किसे? लेने की फुरसत भी
तो हो किसी को। वह तो जल्दी-जल्दी झाडू-ब्रश और दूसरी आलतू-फालतू
चीज़ें समेटे, वापस किचन में भागी क्यों कि अभी उसे दो और
फ्लैटों के फ़र्श चमकाने थे। वह रेलगाड़ी-सी भागती निकल गई।
ढली शाम ये आए। मैंने हुलसकर
अगवानी की। लेकिन चेहरे पर अजीब-सी उधेड़बुन हावी थी। मैंने
सारे दिन की आवाजाही और रंग-बिरंगे पैकेटों का खुलासा बयान
करना शुरू किया। उन्होंने किसी मातहत की रपट की तरह ही सुना...
उकताकर चाय की तलब की और दो गहरे घूँट उतारने के बाद अपनी
उद्विग्नता छुपाते-छुपाते भी पूछ बैठे,
''मजीठिया आया था?''
'मजीठिया' का मतलब मुझे मालूम
था। वह सप्लायरों में सबसे कीमती नगीना था और फिर दीपावली पर
मजीठिया का पर्याय था, बेल्जियम-कट गिलासों का पूरा सेट,
शैंडीलियर, मसूर की दालों से माणिक की ऐसे ही थमा दी गई
पुड़िया, या फिर बेशकीमती हीरे की छोटी-सी अंगूठी। मेरे
'न...नहीं तो' कहने पर बेचैनी थोड़ी और बढ़ी-सी लगी।
''क्यों? क्या बात हो गई...?''
''कुछ नहीं... यों ही पूछा था...।'' फिर जैसे रोकते-न-रोकते
अपनी उधेड़बुन जोड़ गए, ''ऑफ़िस में उसका ड्राइवर तो दिखा
था... इसका मतलब आया था...।''
''कोई ज़रूरी नहीं कि आया ही हो- हो सकता है कि अपने ड्राइवर
और गुमाश्तों को ही पैकेट्स लेकर भेज दिया हो...।''
मेरी बात से उन्हें बल मिला। चाय के दो-चार और घूँट शांति से
उतरे। लेकिन तभी बेचैनी फिर हावी-
''फिर भी घर पर भी आना होता तो भी, अब तक तो आ जाना चाहिए
था... समझ में नहीं आता, इस मजीठिया के बच्चे को हुआ क्या।'
''कौन, पापा?'' छोटे मिंटू ने अभी-अभी आए पिस्ता-बादाम वाले
बिस्कुटों के रंगीन रैपर को नोचते-नोचते पूछा।
''कुछ नहीं...।'' मैंने उसे
टोका, ''ये बच्चों के सुनने वाली बातें नहीं।'' और इनके पास
जाकर सहानुभूति पूर्वक पूछा कि क्या चाय और लेंगे? जवाब में
इन्होंने एक अनमनी-सी ना कर दी और सिगरेट सुलगाकर बालकनी में
टहलने लगे।
मैं बीच-बीच में किसी-न-किसी बहाने कुछ बोलने-बतियाने की कोशिश
करती। दिमाग इधर-उधर बहलाने की भी। लेकिन इनके जवाब के अंत के
साथ जुड़ता, ''समझ में नहीं आता, इस मजीठिया के बच्चे को हुआ
क्या?''
मैं अपना सहधर्मिणी का रोल
अदा करने में जी-जान से जुटी थी। वैसे भी इनका दुख और बेचैनी
इनसे ज़्यादा मेरी थी। मजीठिया हर साल सबसे पहले ही आया करता
था और इस साल तो इनका प्रमोशन भी हो गया था। प्रमोशन के बाद
खुशी-खुशी सारे साल की आमदनी का अंदाज़ा लगाते हुए मजीठिया को
हमने सबसे ऊपरी पायदान पर रखा था। और उसी मजीठिया का दीपावली
की शाम तक कहीं अता-पता नहीं था। रोल अदा करते-करते एक भूल हो
गई। एक बेहद लचर, बचकानी-सी बात निकल गई मुँह से,
''सुनिए... आपके प्रमोशन वाली बात उसे मालूम है?''
ये भभक पड़े, ''अजीब बेवकूफ़ी की बात करती हो तुम भी? अरे!
प्रमोशन की बात का इससे क्या लेना-देना...वह तो वैसे ही आता
रहा है हर साल, उस तरह तो आता...।'' लेकिन तभी जैसे कुछ खटका
हो, ''कहीं ऐसा तो नहीं कि इधर-उधर के छुटभइयों ने कान भर दिए
हों उसके कि काम तो सारा मातहतों के थ्रू होता है, अब बेकार
बड़े साहब के लिए माल ढोने का क्या मतलब... लेकिन अगर उस
स्साले ने ऐसा सोचा है तो...।''
दरवाज़े की घंटी बजी। छोटा बेटा चट से उचककर बोला, ''मैं देखूँ
पापा? शायद 'मजीठिया' हो...।''
मेरे आने से पहले ही वह
दरवाज़ा खोलने भागा और पलक झपकते लौटकर मेरे कानों में
फुसफुसाया, ''सुल्तान ब्रदर्स... खूब बड़ा-सा पैकेट है।''
''धत्!'' मैं अंदर से मगन होते हुए, उसे बनावट रोष से तरेरती
हूँ। तभी मेरा ध्यान वापस इनकी ओर जाता है और मेरा उत्साह ठंडा
पड़ जाता है। घंटी बजने पर सचमुच इन्होंने अपनी उतावली
छुपात-छुपाते भी बेचैनी से दरवाज़े की ओर देखा था, ''लेकिन अब
वापस चहलकदमी तेज़ हो गई। अब? मुझे कुछ नहीं सूझता तो
बैठे-बैठे मजीठिया के बच्चे को कोसने लगती हूँ। बना-बनाया
त्योहार बिगाड़ दिया। अरे आ जाता तो कौन-सा सोना झर जाता उसका!
करोड़ों का आदमी है। हमारी साल-भर की खुशियों पर पानी फेरने से
आखिर क्या मिला उसे? और मैं पाती हूँ कि इनका वाला सुरूर अब
ठीक उसी तरह मेरे सिर पर चढ़कर बोल रहा है- 'आखिर मजीठिया के
बच्चे को हुआ क्या? क्यों नहीं आया, हर साल की तरह।''
घंटी फिर बजती है। इस बार
दोनों बच्चे अनार, चरखा, राकेट, फुलझड़ियों के बड़े-बड़े पैकेट
से लदे-फदे उछलते-कूदते लौट आए हैं... लेकिन मेरे और इनके
चेहरे की ओर देखकर सहम जाते हैं। दोनों को एक साथ सवाल मिला है
कि 'क्या हुआ?'
और जब तक मैं कुछ सोचूँ या बोलूँ, छोटा मिंटू टप से बताता है,
''वो मजीठिया इस साल आया ही नहीं...।''
''शट अप!'' ये ज़ोर से दहाड़ते हैं।
थोड़ी देर इंतज़ार करने के
बाद मैं चाहती हूँ कि इनसे कहूँ, गोली मारिए उस मजीठिया को...
आइए चलिए पूजा करें... लेकिन जानती हूँ, पूजा करते हुए भी क्या
मजीठिया चैन लेने देगा? उसी की लाई आधा किलो ठोस चाँदी की
लक्ष्मी की ही तो हम हर दीपावली पर पूजा करते आए हैं। यों ऐसा
कोई रिवाज या रूढ़ि नहीं थी... परिवार में तो पहले, हमेशा
मिट्टी की गणेश और लक्ष्मी की छोटी-सी प्रतिमा और चार आने के
माला-फूल-बतासे में ही हँसी-खुशी लक्ष्मी पूजा की आरती हो
जाती। लेकिन अब जब चाँदी की ठोस लक्ष्मी पधारने लगीं तो मिट्टी
की मूर्ति पूजने की बेवकूफ़ी कौन करता, इसलिए वह आदत ही छूट
गई। गणेश-लक्ष्मी की नई मूरत ही नहीं।
''बाई!''
ओह! सुगंधा को आने के लिए कहा था। लेकिन अभी तो कुछ हुआ ही
नहीं। मैंने बेमन से मिठाइयों का एक पैकेट उसकी ओर बढ़ा दिया।
उसने उत्सुक आँखों से एक बार पूजा की चौकी की ओर देखा और बड़े
प्रेम से हाथ जोड़कर मिठाइयों का पैकेट माथे से लगाते हुए
बोली, ''पूजा संपली? (पूजा हो गई?)''
''नहीं- पूजा अभी नहीं हुई। ये प्रसाद नहीं, ऐसी ही मिठाई
है।''
''तू जा अब...'' मैं किसी तरह जल्दी से जल्दी उसे टरकाना चाहती
था।
लेकिन उसकी आँखों में अपार
विस्मय झाँक उठा, जैसे विश्वास ही नहीं कर पा रही हो कि भला यह
कैसे हो सकता है? अब तक पूजा नहीं हुई? मुझसे उसकी हकबकी,
विस्मय-भरी उपस्थिति सही नहीं जा रही थी। किसी तरह एकदम रूक्ष
स्वर में बोली,
''कहा न... ले के जा... सुबह आना, हम पूजा देर से करते हैं।''
कुछ न समझते हुए भी वह मेरी आवाज़ की तुर्शी से सहमकर
धीमे-धीमे सीढ़ियाँ उतर गई।
इसी के साथ सब कुछ शांत और
निस्तब्ध होता चला गया। हालाँकि अब चारों तरफ़ से छूटते बमों
और पटाखों की तेज़ आवाज़ें आ रही थीं। सड़क पर शोर-शराबा,
हो-हुल्लड़ बढ़ रहा था। रोशनी की कतारों में ज़बरदस्त
होड़ाहोड़ी चल रही थी, लेकिन सागर-तट की पंद्रहवीं मंज़िल के
मेरे फ्लैट में एक अजीब-सा सन्नाटा था। बम छूटते तो सन्नाटा और
ज़्यादा महसूस होता। अंततः पूजा हुई, बच्चों ने पटाखे भी
छोड़ें... इन्होंने वापस बालकनी में जाकर सिगरेट सुलगा ली।
मुझे कुछ न सूझा ते इन्हें ज़्यादा डिस्टर्ब करना ठीक न समझा,
चुपचाप निस्तब्ध सन्नाटे में पिछले कमरे की खिड़की से जा लगी-
सामने पंद्रहवीं मंज़िल से
बहुत नीचे, काफी दूर, सागर-तट से लगी, मैले-कुचले चीथड़ों से
ढँकी, झोंपडों की एक कतार थी। उस कतार में एक अंधेरी-सी
झोंपड़ी के सामने सुनहरे, हरे और सफ़ेद बूटों वाला छोटा-सा
अनार छूट रहा था और उसमें घुली थीं दो मुक्त, मगन खिलखिलाहटें। |