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                     ''मुबारक हो सर, आज आपकी 
                    वर्षों की मेहनत सफल हो गई। आपका यह आविष्कार निःसंदेह मानव 
                    कल्याण में उपयोगी सिद्ध होगा।'' प्रोफ़ेसर के सहायक विजय ने 
                    भी अपनी भावनाओं पर लगाम लगाना उचित न समझा। ''धन्यवाद विजय, पर ये मत भूलो कि इस महान सफलता में तुम्हारा 
                    भी बराबर का योगदान है।''
 ''ये तो आपका बड़प्पन है सर, वर्ना मैं क्या और मेरा. . .।'' 
                    विजय अपने आप पर ही हँस पड़ा।
 एक बार फिर प्रोफ़ेसर यासीन अपने सहयोगी विजय के साथ अपनी 
                    यात्रा की तैयारी में व्यस्त हो गए। एक ऐसी यात्रा, जो वर्तमान 
                    से भविष्य की ओर जाती थी। एक खूबसूरत कल्पना, जो हक़ीक़त में 
                    बदलने जा रही थी और जुड़ने वाला था मानवीय उपलब्धियों के इतिहास 
                    में एक स्वर्णिम अध्याय।
 वातावरणीय परिवर्तनों को ध्यान में रखते हुए प्रोफ़ेसर ने एक 
                    विशेष प्रकार की स्वनिर्मित पोशाक पहन ली थी। अब वे किसी 
                    अंतरिक्ष यात्री की भाँति लग रहे थे, जो किसी नवीन ग्रह की खोज 
                    में अनंत आकाशगंगा में प्रवेश करने वाला हो।
 उस आठ फ़ुटे सतरंगे समययान में 
                    जैसे ही प्रोफ़ेसर ने कदम रखा, उनका शरीर रोमांचित हो उठा। 
                    अंदर पहुँचते ही उन्होंने कंप्यूटर को ऑन कर दिया। आहिस्ते से 
                    समय-यान धरती से आधा फिट की ऊँचाई पर उठा और उसका सतरंगा आवरण 
                    तेज़ी से घूमने लगा। सतरंगी पट्टियाँ धीरे–धीरे मिलकर सफेद 
                    हुईं और फिर अदृश्य। पर अंदर सब कुछ स्थिर था। घूम रहा था तो 
                    सिर्फ़ समय–चक्र, बड़ी तेज़ी से आगे की ओर। 
                    2000-2050-2100-2300. . .सब कुछ पीछे छूटता जा रहा था। पीछे और 
                    पीछे, तेज़, बहुत तेज़, समय से भी तेज़। कंप्यूटर द्वारा पूर्व 
                    निर्धारित समय चक्र 2500 ईस्वी पर पहुँच कर थम गया। प्रोफ़ेसर 
                    ने कलाई घड़ी पर नज़र दौड़ाई। शाम के पाँच बजकर 25 मिनट 40 सेकेंड। 
                    यानि कि मात्र दस सेकेंड में ही 1900 से 2500 की यात्रा 
                    संपन्न। अनायास ही उनके चेहरे पर मुस्कान की रेखाएँ उभर आईं। 
                    उन्होंने कंप्यूटर को ऑफ किया और उत्साह भरे कदमों से दरवाज़े 
                    की ओर बढ़ चले।पर यह क्या? समय-यान के बाहर का दृश्य देखते ही वे बिलकुल अवाक 
                    रह गए। मुस्कान की रेखाओं की जगह चेहरे पर बल पड़ गए। आँखें फटी 
                    की फटी रह गईं और मन आशंकाओं के सागर में डूबने–उतराने लगा।
 बाहर सिर्फ़ रेत ही रेत थी, 
                    अंगारों की तरह दहकती हुई रेत। आगे–पीछे, दाएँ–बाएँ जिधर भी 
                    दृष्टि जाती, रेत ही रेत नज़र आती। पेड़–पौधे तो दूर हरी घास का 
                    भी कहीं कोई नामो–निशान तक नहीं। सूरज की असहनीय गर्मी और आक्सीजन की कमी से एक–एक क्षण उन्हें 
                    भारी लगने लगा। उन्हें लगा कि वे पृथ्वी पर न होकर जैसे 
                    चंद्रमा या फिर सौरमंडल के किसी अन्य ग्रह पर आ पहुँचे हो, 
                    जहाँ दूर–दूर तक जीवन का कोई चिन्ह मौजूद नहीं। फ़ेस मास्क 
                    चढ़ाने के बाद वे अपनी बूढ़ी किंतु अनुभवी नज़रों से दूर क्षितिज 
                    के पास कुछ तलाशने लगे।
 दिल्ली जैसे प्रतिष्ठित शहर 
                    के अतिव्यस्ततम इलाके करोलबाग में रहने वाले प्रोफ़ेसर यासीन 
                    निःसंदेह आज भी करोलबाग में ही खड़े थे। पर यह करोलबाग 1900 का 
                    न होकर 2500 ईस्वी का था। और इन दोनों के बीच जीवन और मृत्यु 
                    जितना ही फासला था। जीवन के समस्त लक्षणों से रहित धरती अपनी 
                    बरबादी की तस्वीर चलचित्र के समान बयाँ कर रही थी। पर इस 
                    महाविनाश का ज़िम्मेदार कौन है? प्रकृति या स्वयं मनुष्य? इस 
                    सवाल का जवाब खोज पाने में पूर्णत: अक्षम थे प्रोफ़ेसर यासीन।अचानक उन्हें सामने एक चमकती हुई चीज़ नज़र आई। वह वस्तु 
                    उड़न-तश्तरी की भाँति आसमान से उतरी और धूल के बवंडरों को चीरती 
                    हुई धरती में समा गई।
 आशा और जीवन की मिली–जुली इस छोटी-सी किरण ने प्रोफ़ेसर का 
                    उत्साह वापस ला दिया। वे तेज़ी से उस स्थान की ओर चल पड़े। अपने 
                    वंशजों से मिलने की उत्सुकता ने उनके शरीर में अद्भुत शक्ति का 
                    संचार कर दिया और क्षण प्रतिक्षण उनके पैरों की गति बढ़ती चली 
                    गई।
 उम्र के इस ढलवा मोड़ पर वे 
                    जितनी तेज़ दौड़े, उतनी तेज़ तो शायद वे कभी अपनी युवावस्था में 
                    भी न दौड़े होंगे। उनकी त्वचा ने शरीर के तापमान को नियंत्रित 
                    रखने के प्रयास में ढेर सारा पसीना उलीच दिया। होंठ प्यास के 
                    कारण सूख गए, साँसें धौंकनी की तरह चलने लगी, दिल जेट इंजन की 
                    तरह धड़कने लगा। पर वे दौड़ते ही रहे, समस्त शारीरिक बाधाओं को 
                    पार करते हुए, उस अनजान स्थान तक जल्द से जल्द पहुँच जाने के 
                    प्रयास में। लक्ष्य पर टिकी निगाहें अचानक 
                    बीच में उभर आई पारदर्शी काँच की दीवार देख नहीं पाईं और 
                    प्रोफ़ेसर उससे टकरा गए। अत्यधिक श्रम से थक चुका उनका शरीर 
                    अनियंत्रित होकर ज़मीन पर गिर पड़ा। तभी प्रोफ़ेसर को एहसास हुआ 
                    कि धरती की वह सतह, जिस पर वे गिरे हैं, किसी धातु की बनी है।अचानक एंबुलेंस जैसी ध्वनि वातावरण में गूँजने लगी। प्रोफ़ेसर 
                    यासीन जब तक कुछ समझते, काँच के पारदर्शी केबिन में घिर चुके 
                    थे। सूर्य की तपन के कारण बाहर लपटें-सी उठती हुई प्रतीत हो 
                    रही थीं। उन्हीं लपटों के बीच दूर खड़ा था समय-यान, जिसे 
                    प्रोफ़ेसर बेबस निगाहों से देखे जा रहे थे।
 तभी केबिन में चारों ओर से लाल प्रकाश फूटने लगा। प्रोफ़ेसर 
                    यासीन भी उस लाली में ऐसे समाए कि वे स्वयं ही लाल हो गए। वह 
                    लाली जब छँटी, तो उन्होंने स्वयं को एक जेल-नुमा पिंजरे के अंदर 
                    पाया। सहसा पिंजरे के बाहर एक आदमकद रोबो प्रकट हुआ। उसने 
                    प्रोफ़ेसर की ओर अपनी दाहिनी उँगली उठाई। लाल प्रकाश की एक 
                    तेज़ धार प्रोफ़ेसर पर पड़ी और वे पुन: किसी अन्य स्थान के लिए 
                    ट्रांसमिट कर दिए गए।
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