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रामगोपाल की आँखें चमकी। बाएँ हाथ की छोटी उँगली बाएँ कान में डालकर खुजलाते हुए बोला, ''पिता जी शास्त्रों की सारी किताबें लेकर थोड़े गए हैं। . . .भविष्य तो मैं बता सकता हूँ।''
''क्यों नहीं, क्यों नहीं, बेटा! आख़िर शास्त्री जी ने तुम्हें दे दिया होगा। कहो तो लड़के को नीचे ले आऊँ बैलगाड़ी से?''
''नहीं, इसकी जरूरत नहीं है। उसकी राशि मुझे बता दीजिए। और हाँ, उसका दायाँ हाथ मुझे दिखा दीजिए।''

रामगोपाल बैलगाड़ी के पास आया। बैलगाड़ी के अंदर पतला-दुबला एक लड़का बैठा था। डबल रोटी का एक टुकड़ा उसके सामने रखा था। शायद आधा खाकर उसने बाद के लिए रख छोड़ा था। कपड़े गंदे थे। कई दिनों से नहलाया भी नहीं गया था। नाक बह रही थी। मगर वह चिंतामुक्त लग रहा था। रामगोपाल ने उसका दायाँ गंदा हाथ अपनी हथेली पर लिया तो मन कसैला हो गया। उसकी हथेली पर एक नजर डालकर वह घर के अंदर गया और पिता जी के शास्त्र की एक पोथी उलटने-पलटने लगा। फिर दुखी बनते हुए किसान से बोला, ''लड़के पर शनि का भारी प्रकोप है। तेरह मार्च महा शिवरात्रि को शिव जी इसे अपने पास बुलाने वाले हैं। आप शिव जी की आराधना करें। वहीं इसे जीवन दान दे सकते है!

किसान ने सुना तो सन्न रह गया। आँखें डबडबा गईं। समझ में नहीं आया कि इस छोटे महाराज की बात पर भरोसा करे भी या नहीं। मन एकदम उचट गया। अब कुछ कहते सुनते भी न बना। उसने एक नजर अपने लड़के की तरफ़ डाली। सुनकर वह भी मुरझा गया था। किसान जल्दी से बैलगाड़ी पर जा बैठा। वह वापस लौटने लगा। रास्ते में बिसाहू राउत मिला। बिसाहू ने किसान को आवाज लगाई, ''शास्त्री महाराज पंद्रह-बीस दिन बाद आएँगे। कुछ संदेश हो तो बताओ?''

मगर किसान ने कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया। घर आकर रामगोपाल से बिसाहू ने पूछा कि उस किसान ने कोई संदेश तो नहीं छोड़ा? रामगोपाल ने अनमने ढंग से जवाब दिया, ''उन्हें अपने बेटे का भविष्य जानना था। मैंने कह दिया, पिता जी घर पर नहीं हैं।''

महाशिवरात्रि के एक दिन पहले शास्त्री जी भरमपुर लौटे। दूसरे दिन ही गाँव में देवालय में पूजा-अर्चना का कार्यक्रम था। रात्रि में भोजन के समय बेटे से परीक्षा की तैयारी का हालचाल पूछने के बाद उन्होंने बिसाहू राउत से इस बीच आए लोगों का संदेश जाना। बिसाहू राउत ने अपनी स्मृति पर ज़ोर देकर सारा समाचार दिया। अंत में बताया कि गाँव डंगनिया का किसान भोकवाराम कलार आया था। उसके लड़के की तबीयत ख़राब थी। बैलगाड़ी से आया था। मुझसे तो उसकी मुलाक़ात नहीं हुई। मैं गुलाब जायसवाल की दुकान में शक्कर लाने गया था। छोटे महाराज से उसकी बात हुई थी। कोई संदेशा दिया?''
''वह अपने बेटे का इलाज पूछने और उसका भविष्य जानने आए थे।''
''तुमने क्या कहा?''
''मैंने कहा पिता जी पंद्रह-बीस दिन बाद आएँगे।''
''कोई संदेश छोड़ा क्या?''
''संदेश तो कुछ नहीं छोड़ा। आए और जल्दी-जल्दी चले गए। उनके बेटे की तबीयत बहुत ख़राब थी।''
''कुछ इलाज करवा रहे हैं कि नहीं?''
''पता नहीं। कुछ बताया नहीं। मगर उनका बेटा जियेगा नहीं!''
''क्यों, क्यों नहीं जियेगा? तुमने कुछ कहा तो नहीं?''
''मैंने उसका भविष्य देखा था। कह दिया कि महाशिवरात्रि को भगवान शिव उसे अपने पास बुला सकते हैं।''
''तुमने ऐसा कहा?''
''मुझे ऐसा लगा, सो मैंने कह दिया।''

पंडित गंगाराम शास्त्री जी ने अपना माथा ठोका। परेशान हो गए। कहीं भोकवाराम ने इसकी बात का विश्वास न कर लिया हो। रात बहुत हो गई है। उसका गाँव भी दूर है। नहीं तो अभी चल देते। ...ये लड़का तो मेरी और शास्त्रों की नाक कटवाएगा। पता नहीं क्या हाल होगा उसके बच्चे का। ग़रीबी के कारण ठीक से इलाज भी तो नहीं करवा पाते ये भूमिहार किसान। कल सुबह गाँव के देवालय की पूजा-अर्चना खत्म होते ही भोकवाराम के गाँव जाने का उन्होंने कार्यक्रम बनाया। सोते समय भोकवाराम और उसके बेटे के संबंध में एक नजर शास्त्र में भी दौड़ाई। सब ठीक था। कोई अनिष्ट नहीं होने वाला। कल जाकर तसल्ली दे आएँगे।

आज महाशिवरात्रि का दिन है। सुबह से ही सारे मंदिरों में और ख़ासकर शिवमंदिरों में भक्तों की अच्छी खासी भीड़ और मंगल-आरती गूँज रही है। तपती दोपहरी से ज़्यादा तेज भक्तों का जोश था। आज दिन और रात्रि तक देवालयों में धूम रहेगी। शास्त्री जी की रात्रि में भी उपस्थिति  आवश्यक है। सुबह ग्यारह बजे पंडित जी किसी तरह देवालय से मुक्त हुए और भोकवाराम के गाँव की ओर अपना थैला उठाए अकेले प्रस्थान कर दिया।

डंगनिया ग्राम पहुँचते ही वे सीधे भोकवाराम के घर की ओर बढ़ गए। रास्ते में उन्हें गाँव के अनेक लोग मिले। शास्त्री जी का चरण स्पर्श किया या मुँह से 'पायलागी' की। कुछ लोग शास्त्री के पीछे-पीछे चलने लगे।
''सही समय पर आए, शास्त्री जी।''
''कैसे?''
''बस, भोकवाराम के लड़के को श्मशान ले जाने की तैयारी पूरी ही समझो।''
''क्या? क्या उनका लड़का नहीं रहा?''
''महाराज, आप तो अंतर्यामी हैं। बाप तो बाप बेटा भी ज्ञानी है।''
''क्या मतलब?''
''महाराज, आपका आशीर्वाद पाने के लिए भोकवाराम कुछ दिनों पहले आपके गाँव गया था। आपसे मुलाक़ात तो नहीं हुई, मगर छोटे महाराज ने शास्त्र देखकर बता दिया कि तुम्हारा लड़का महाशिवरात्रि के दिन चल बसेगा। . . .आज सुबह ५ बजे लड़के ने दम तोड़ दिया। ऐसी सटीक भविष्यवाणी इतनी छोटी उम्र में, आपका बालक ही कर सकता है, महाराज!''

शास्त्री जी का मन खिन्न हो गया। सिर चकराने लगा। पाँव आगे बढ़ने से इनकार करने लगे। किसी तरह मन और शरीर पर नियंत्रण रख वे आगे बढ़ते रहे। साहस पर पूछा, ''कितने दिनों से उनका लड़का बीमार था?''
''महीना भर तो हो ही गया था, महाराज! वैसे लड़का बचपन से ही बहुत कमज़ोर था। दो साल पहले तो वह एक बार और सख़्त बीमार पड़ गया था। आपने ही उसकी दवा दी थी। बचा लिया था। . . .मगर भगवान की मर्ज़ी। लड़के ने भगवान से इतने ही दिन लिखाकर लाए थे। कोई क्या करे!''
''वैसे, उसे अभी बीमारी क्या थी?''
लड़के का सिर चकराता था। बदन में हमेशा बुखार रहता था। बहुत थोड़ा खाना खाता था। हमेशा खाट में पड़ा रहता। छोटे महाराज के दर्शन के बाद तो उसने यह खाना पीना भी छोड़ दिया। पानी में ग्लूकोज मिलाकर पिला रहे थे। इसकी-उसकी सलाह पर जो दवा-दारू बता दी जाती, भोरवाराम कर तो रहा था। शहर जाकर किसी बड़े डॉक्टर को दिखाने की उसकी औक़ात तो थी नहीं। सभी जाने-अनजाने महाशिवरात्रि का इंतज़ार कर रहे थे। यह दिन आया तो उस लड़के ने जैसे ज़िंदा रहने की ज़िद छोड़ दी। मुक्त हो गया इस माया नगरी से।

चलते-चलते जाने कब भोकवाराम का घर आ गया। शास्त्री जी को पता न चला। रोने-चीखने की तेज आवाज और एक के बाद एक आ-आकर लोगों के पाँवों छूने के क्रम से शास्त्री जी की तंद्रा टूटी। एक खाट पर शास्त्री जी ने उसके कंधे पर सांत्वना का हाथ रखा। मुँह से कुछ बोल न फूटे। भोकवाराम फूट-फूटकर रोने लगा। फिर चुप हो गया। लोगों ने शास्त्री जी से अर्थी ले चलने की इजाजत माँगी। उन्होंने मौन स्वीकृति दी। अर्थी और पुरुषों का समूह श्मशान घाट की ओर बढ़ गया। शास्त्री जी भी अर्थी के साथ हो लिए। पीछे औरतों और बच्चों का करुण विलाप रह गया।

इधर शास्त्री जी के भीतर भारी उथल-पुथल मची थी। उन्हें सांत्वना देने वाला कोई नहीं था। शास्त्र में ऐसे अनिष्ट की आशंका तो नहीं थी, फिर कैसे हो गया यह? वह तो यह बताने आए थे कि सब ठीक है, चिंता की कोई बात नहीं है। मगर बात तो चिंता ही की थी। ठीक तो कुछ भी नहीं था। कहीं उनसे शास्त्र देखने में ग़लती तो नहीं हो गई? संभव है, लड़के ने ही ठीक देखा हो!

लगता है यह स्वयं बहुत बूढ़े हो गए हैं। अब शास्त्र उनके बस में नहीं रह गए। कहीं उन्होंने भविष्य में कुछ ग़लत-सलत कह दिया तो? जीवन भर की कमाई साख एक झटके में समाप्त हो जाएगी। बेटे को शास्त्र का ज्ञान नहीं था। अब भी नहीं है। मगर अब वह लोगों से यह कह भी नहीं सकते। वे स्वयं झूठे होंगे।

श्मशान में लकड़ियाँ पहले से ही सजी थीं। शास्त्री जी ने डंगनिया गाँव के एक पंडित से जो अर्थी के साथ आया था, निवेदन किया कि अंतिम संस्कार की रस्म वह पूरी कर दे। उनकी स्वयं की तबीयत ठीक नहीं है। वह पंडित सहज तैयार हो गया। सामान्यतः शास्त्री जी के रहते किसी और पंडित का आगे बढ़कर किसी पूजा-अर्चना व कर्मकांड में नेतृत्व करने का साहस न होता था।

सारे कर्म हो गए। मुखाग्नि दे दी गई। लोग अब अपने-अपने हिस्से की लकड़ी चिता में झोंक रहे थे। बातचीत का मुख्य विषय शास्त्री जी के बेटे की भविष्यवाणी ही थी। लोग उसकी प्रशंसा कर रहे थे। बड़ा होकर वह शास्त्री जी से भी बड़ा ज्योतिषी बनेगा। होनहार बिरवान के होते चिकने पात!

शास्त्री जी पीपल की छाया में एक किनारे अकेले निष्क्रिय बैठे थे। लोगों का ध्यान उनकी ओर न था। यक-ब-यक शास्त्री उठे। अपने हिस्से की छोटी लकड़ी उठाई और आगे बढ़कर चिता में डाल दी। उन्होंने एक नजर चारों तरफ़ डाली, फिर धीरे से काँधें पर टँगा शास्त्रों से भरा थैला उतारा और उसे भी चिता को समर्पित कर दिया। शिव, मुझे क्षमा करें! . . .भगवान सबको सदबुद्धि दे। ...शिवः माम् मर्षयतु! ...भगवान सर्वेभ्यो सद्बुद्धिं प्रयच्क्षतु!

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१६ फरवरी २००७

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