मिठाईवाला पास से गुज़रा, शिवराज ने रोक लिया। छोटे महराज
बोले, "कुछ ठीक-ठाक हो तो पाव-आध पाव. . ."
मिठाई लेकर पैसे शिवराज ने दे दिए। दोनों हाथों में दोना
पकड़कर शिवराज के सामने करते हुए वह बोले, "लो शिब्बू, चखो तो
ज़रा, अच्छी हो तो पाव-भर और ले लो।"
और इससे पहले कि शिवराज चखे, उन्होंने खुद पोपले मुँह में एक
टुकड़ा डालते हुए अपनी राय प्रकट कर दी, "है तो अच्छी ब़ुलाओ
उसे।"शिवराज को
बात कसक गई। वह चुप ही बैठा रहा। झाँककर मिठाईवाले को बुलाने
की कोई दिखावटी चेष्टा भी उसने नहीं की। पर जैसे ही मिठाईवाला
फिर गुज़रा, उनकी दृष्टि पड़ गई। उसे रोकते हुए बोले, "हाँ
भाई, ज़रा पाव-भर और देना तो।" फिर शिवराज की ओर मुख़ातिब होकर
बोले, "ले लो, शिब्बू असल में बात यह है कि मुझसे अब कोई ऐसी-वैसी
चीज़ तो खाई नहीं जाती, दाँत ही नहीं रहे। खोया-वोया थोड़ा
आसान रहता है न।" कहकर उन्होंने निष्काम भाव से खाना शुरू कर
दिया।
पैसे उसने फिर दे दिए। खाते
समय छोटे महराज का निरीह-सा मुँह और एकदम सट जानेवाले जबड़े
देखकर उसे रहम आ गया। उनकी झुकी गरदन, बार-बार पलकों का झपकना
और ज़रा-ज़रा करके खाना, जैसे सारे कार्य और तन की सारी भाव-भंगिमाओं
में लाचारी थी। उन्होंने एक टुकड़ा पिंजरे में डाल दिया। तोते
ने खा लिया। पुचकारते हुए उन्होंने फिर एक टुकड़ा डाल दिया। वे
स्वयं खाते रहे और संतू को खिलाते रहे। फिर बात चल निकली और
उसी के मध्य उनका स्टेशन भी आ गया।
स्टेशन से बाहर आने पर शिवराज
और छोटे महराज एक ही इक्के में बैठ गए। दो सवारियाँ और हो गईं।
इक्का चला तो हचकोला लगा। छोटे महराज अपने तोते के पिंजरे को
पटरे से बाहर लटकाए किसी तरह बैठे रहे। अस्पताल के पास वह
इक्के से उतर पड़े। संतू का पिंजरा पटरी पर रख दिया और झोले
में से कुछ निकालते हुए कहने लगे, "मैं यहीं उतर जाता हूँ।
चाची को ब्याह का हालचाल बताकर कोठरी पर आऊँगा! हाँ, तुमसे एक
काम है। ये एक कपड़ा है सिलक का, वहीं शादी में मिला था। मेरे
तो भला क्या काम आएगा, तुम अपने काम में ले आना!" बात खतम
करते-करते वह कपड़ा झोले से निकालकर शिवराज की गोद में रख
दिया।
शिवराज ने लेने से इनकार कर
दिया। पर वे नहीं माने। शिवराज भी नहीं माना, तो बड़े झुंझलाकर
कपड़ा इक्के में फेंककर संतू का पिंजरा, झोला और सोंटा लेकर
बड़बड़ाते चल दिए, "अरे पूछो म़ेरे किसी काम का हो तो एक बात
भी है। ज़िंदगी-भर में एक चीज़ दी, उससे भी इनकार स़ब वक्त की
बातें हैं, रहम दिखाते हैं मुझ पर, तेरे बाप होते तो अभी इसी
बात पर चटख जाती।" फिर मुड़कर ऊँचे स्वर में बोले, "पैसे नहीं
हैं मेरे पास, इक्केवाले को दे देना।" और वे जनाने अस्पताल के
फाटक में गुम हो गए।
दूसरे दिन सवेरे छोटे महराज
अपनी कोठरी में दिखाई दिए। देहरी पर बैठे-बैठे कराह रहे थे।
कभी-कभी बुरी तरह से खाँस उठते। साँस का दौरा पड़ गया था। गली
से शिवराज निकला तो पिछले दिन वाली बात के कारण उसकी हिम्मत
कुछ कहने की नहीं पड़ी। सोचा कतराकर निकल जाए, पर पैर ठिठक रहे
थे। तभी हाँफते-हाँफते छोटे महराज बोले, "अरे शिब्बू!" फिर
कराहकर टुकड़े-टुकड़े करके कहने लगे, "दौरा पड़ गया है, कल रात
से, हाँ, अब कौन देखे संतू को। बड़ी ख़राब आदत है इसकी, गरदन
सलाख से बाहर कर लेता है। रात-भर बिल्ली चक्कर काटती रही,
बेटा। छन-भर को पलक नहीं लगी। अपने होश-हवास ठीक नहीं तो कौन
रखवाली करे इसकी। अपने घर रख लो, बेफ़िकर हो जाऊँ।"
और इतना कहकर बुरी तरह हाँफने
लगे। गले में कफ़ घड़घड़ा आया, तो औंधे होकर लेट रहे। पीठ बुरी
तरह उठ-बैठ रही थी। शिवराज 'अच्छा' कहकर पिंजरा उठाकर चलने
लगा, तोते को एक बार पूरी आँख खोलकर उन्होंने ताका। उनकी
गंदली-गंदली आँखों में एक अजीब विरह-मिश्रित तृप्ति थी। जैसे
किसी बूढ़े ने अपनी लड़की विदा कर दी हो। सिर नीचा करके
उन्होंने एक गहरी साँस खींची, जैसे बहुत भारी ऋण से उऋण हो गए
हों।
तीन-चार दिन हो गए थे। छोटे
महराज की हालत ख़राब होती जा रही थी। अकेले कोठरी में पड़े
रहते। कोई पास बैठनेवाला भी नहीं था। चौथे दिन हालत कुछ ठीक
नज़र आई। सरककर देहरी तक आए। घुटनों पर कोहनियाँ रखे और
हथेलियों से सिर को साधे कुछ ठीक से बैठे थे। कभी कराह उठते,
धाँस लगती तो खाँस उठते। पर उनके चेहरे पर अथाह शोक की छाया
व्याप रही थी, जैसे किसी भारी गम़ में डूबे हों। उनकी आँखों
में कुछ ऐसा भाव था, जैसे किसी ने उन्हें गहरा धोखा दिया हो,
उनके कानों में बार-बार संतू की वह आवाज़ गूँज रही थी, जो
उन्होंने दोपहर सुनी थी।
दोपहर संतू की कातर आवाज़ जब
शिवराज के बरोठे से सुनाई दी तो वे घबरा गए थे कि कहीं बिल्ली
की घात तो नहीं लग गई। बड़े परेशान रहे, पर उठना तो बस में
नहीं था। शिवराज के घर की ओर बहुत देर आस लगाए रहे कि कोई
निकले, तो पता चले। काफ़ी देर बाद मनुआ तोते के दो-तीन हरे-हरे
पंखों का मुकुट बनाए माथे से बाँधे, दो-तीन बच्चों के साथ
खेलता दिखाई पड़ा, देखते ही सनाका हो गया। संतू की पूँछ के
लंबे-लंबे पंख! किसी तरह बुलाकर पूछा तो पता चला कि मुनुआ को
राजा बनना था, सो उसने संतू की पूँछ पकड़ ली। बात की बात में
दो-तीन पंख नुच आए।
छोटे महराज का जैसे सारा
विश्वास उठ गया। ये लड़का तो उसे मार डालेगा! इस वक़्त तबीयत
कुछ ठीक मालूम हुई, बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपना डंडा पकड़ा,
हिलते-काँपते शिवराज के बरोठे में पहुँचे और अपना तोता वापस
माँग लाए। कोठरी में आकर उसकी बूची पूँछ देखते रहे, पर मुँह से
कुछ बोले नहीं। संतू को पुचकारा तक नहीं।
शाम हो आई थी। तिराहे पर लालटेन जल गई थी। पूरी गली में उदास
अंधियारा भरता जा रहा था। उन्होंने संतू के पिंजरे को भीतर
रखकर कोठरी के दरवाज़े उढ़का लिए और फिर नहीं निकले। भीतर कुछ
देर तक खुट-पुट करते रहे, फिर रात भर कोई आवाज़ नहीं आई।
सवेरे शिवराज उधर से निकला तो
कोठरी की ओर निगाह डाली।
दरवाज़े उसी तरह भिड़े थे। उसने धीरे से खोलकर झाँका, देखा
महराज सो रहे थे। चुपचाप धीरे से दरवाज़ा बंद करने लगा, तो गली
के रामनरायन बोल पड़े, "क्यों, आज नहीं उठे महराज अभी तक?"
और इतना कहते-कहते उन्होंने पूरे दरवाज़े खोल दिए। दोनों ने
ग़ौर से देखा, तोते का पिंजरा सिरहाने रखा था, जिस पर कपड़ा था
कि कहीं बिल्ली की घात न लग जाए, परंतु छोटे महराज का पिंजरा
खाली पड़ा था, पंछी उड़ गया था।
छोटे महराज ने स्वयं तो नहीं पढ़ा था, पर रामलीला आदि में
सुनने के कारण यह उनका पक्का विश्वास था कि अंतिम काल में यदि
राम का नाम कानों में पड़ जाए तो मुक्ति मिल जाती है। पता
नहीं, उनके अंतिम क्षणों में भी संतू तोते की वाणी फूटी थी या
नहीं। |