वह अपनी सीट पर आकर बैठ गया।
दिमाग़ पर बहुत ज़ोर डाला पर याद नहीं आया। तभी उन्होंने तोते
की ओर से दृष्टि हटाकर शिवराज की ओर देखा, अंगूठा और तर्जनी
निरंतर एक रफ़्तार से अब भी गोली को शक्ल प्रदान कर रहे थे।
माथे पर लहरें डालते हुए और आँखों को गोल कर कुछ अजीब निरीह-सा
मुँह बनाकर वे शिवराज को संबोधित करते हुए बोले, "शिब्बू
शिवराज है न तू?"
और अपना नाम उनके मुँह से सुनते ही उसे सब याद आ गया। ये तो
छोटे महराज हैं।
वे जाति के वैश्य थे, पर कर्म के कारण महराज पुकारे जाने लगे
थे। म्युनिसिपालिटी की दूकानों के पासवाली इमली के नीचे बैठकर
वे पानी पिलाया करते थे। क़स्बे की सबसे रौनकदार जगह वही थी।
वहीं कुएँ पर छोटे अपनी टाँगें तोड़े, जाँघ तक धोती सरकाए,
जनेऊ डाले, चुटिया फहराए, नंगे बदन टीन की टूटी कुरसी पर जमे
रहते। गाँववाले पानी पीकर एक-आध पैसा उनके पैरों के बीच उसी
कुरसी पर रखकर चल देते। पैसा पाकर वह सामर्थ्य-भर आशीर्वाद
देते। जब एक कूल्हा दर्द करने लगता, तो दूसरी तरफ़ ज़ोर डालने
के लिए थोड़ा-सा कसमसाते और इसमें अगर कहीं कुरसी ने खाल दाब
ली, तो तीन-चार मिनिट लगातार कुरसी को गालियाँ देते रहते। लगे
हाथों ननकू हलवाई को भी कोसते, जिसने प्याऊ के लिए यह कुरसी दी
थी।तब छोटे महराज की
उमर कोई ख़ास नहीं थी, यही 35-36 के क़रीब रही होगी। छोटे
महराज के बाप-दादा सोने-चांदी का काम करते थे। काफ़ी पुराना घर
था, दूकान थी। पर जब बाप मरे, तो छोटे की उमर बहुत कम थी। माँ
पहले ही स्वर्ग सिधार चुकी थीं। बाप के मरने के बाद दूर के
रिश्ते की एक चाची आकर सब देखभाल करने लगीं। फिर बहुत बड़ी-सी
चोरी हुई और छोटे का घर तबाह हो गया। चाची को तीरथ की सूझी, तो
छोटे को साथ लेकर चल दीं। खर्चे की ज़रूरत पड़ने पर एक
मुख़्तार से जब-तब रुपए मँगवाती रहीं। छोटे साथ थे, सो रसीद
भेजते रहे। आख़िर जब तीरथ से वापस आए, तब पाँच-छह बरस मकान में
और रहना हुआ। फिर मुख़्तार ने मूल और ब्याज के बदले एक दिन
मकान कुर्क करा लिया, गवाही में छोटे के हाथ की रसीदें पेश कर
दीं और औने-पौने में मकान झाड़ दिया। तब से उनकी चाची ने जनाने
और अस्पताल में नौकरी कर ली और छोटे बिस्किटों का ठेला लगाने
लगे और घूम-घूमकर बाज़ार की सड़कों पर चीखने लगे - 'एक पैसे
में पचास, पचास बिस्किट इनाम ज़ितना लगाओगे, उतना पाओगे -'
ठेले में मैदे के छोटे-छोटे
बिस्किटों का ढेर लगा रहता। एक कोने पर एक बड़ी-सी फिरकनी रखी
रहती, जिस पर नंबर के खाने बने रहते और उस पर एक सुई नाचती
रहती। जब कोई पैसा लगाकर घुमानेवाला न मिलता, तो खड़े-खड़े
स्वयं घुमाते रहते, जितना नंबर आता, उतने बिस्किट गिनते और फिर
ढेर में डालकर अनाज की तरह रोरते रहते। कभी करारे-करारे
बीस-पचीस छाँट लेते, सुई घुमाते, अंटी से एक पैसा निकालकर पैसा
रखनेवाले फूल के कटोरे में झन्न से मारते और जितना नंबर आता,
उतने गिनकर, बाकी ढेर के सुपुर्द कर जलपान कर लेते।
लेकिन इस तरह कैसे पेट पलता।
फिर एक होम्योपैथिक डॉक्टर की दूकान को रोज़ सुबह खोलने तथा
झाड़ने-पोंछने का काम ले लिया। दो-चार घरों का पानी बाँध लिया।
तड़के उठकर चार-चार डोल खींचकर डाल आते और डॉक्टर की दूकान की
सफ़ाई आदि करके कोने में पड़े मोढ़े पर इज़्ज़त से दोपहर तक
बैठे रहते। डॉक्टर साहब की अनुपस्थिति में मरीज़ों के हालचाल
पूछ लेते। कुछ देसी दवाइयों के नुस्खे बताते और जर्मन दवाइयों
की अहमियत समझाते।
तभी से छोटे अपने को बहुत-कुछ, एक छोटा-मोटा वैद्य समझने लगे
थे। मरीज़ की दशा देखते ही रोग का ऐलान कर देते। तमाम रोगों के
इलाज पर उन्होंने दखल जमा लिया था। जब मोतियाबिंद हो जाने के
कारण डॉक्टर साहब को दूकान बंद कर देनी पड़ी, तो छोटे अपनी
कोठरी में ही एक छोटा-सा औषधालय खोलने का मन्सूबा बाँधने लगे।
रतनलाल अत्तार के यहाँ से आठ-दस आने की जड़ी-बूटियाँ भी बँधवा
लाए, जिन्हें घोंट-पीस और कपड़छन करके सफ़ेद शीशियों में भरा
और ताक में सजा दिया। फ़सली बुखार, हरे-पीले दस्त,
नाक-कान-सिर-दर्द की हुक्मी दवाइयाँ बाँटने का ऐलान भी कर
दिया। पर गली के परिवारों का सहयोग न मिलने के कारण उन्होंने
इस नेक इरादे को छोड़ दिया। सारी हकीमी दवाइयों को थोड़ा-थोड़ा
करके चूरन की पुड़ियों में मिलाकर उन्होंने आख़िर अपने पैसे
सीधे कर लिए।
इस तरह के न जाने कितने घरेलू
धंधे उन्होंने चलाए। जन्म से वैश्य होते हुए भी प्रकृति से
परोपकारी होने के कारण उन्हें ब्राह्मणत्व भी प्राप्त करना ही
था। इसीलिए जब गली-टोले के लड़कों ने उन्हें प्याऊ पर बैठते
देखा और चमकदार काली पीठ पर जनेऊ दिखाई पड़ा, वे वंशगत भावनाओं
से अनजान, कर्मगत संस्कारों के आधार पर उन्हें महराज पुकारने
लगे। तभी से छोटेलाल छोटे महराज हो गए।
जिस इमली के नीचे वह बैठते
थे, उस पर दैव की कृपा से महूक ने छत्ता धर लिया, तो एक दिन
अंधियारे पाख में जाकर स्टेशन के पास से एक कंजर पकड़ लाए।
छत्ता बटाई पर तै हो गया। पर छोटे महराज शहद का क्या करते।
चलते वक़्त उसे कस दिया कि आधे दाम कल आ जाएँ। पर महीना-भर टल
गया। झोंपड़ी पर तगादा करने पहुँचे। नगद पैसे तो मिले नहीं,
अच्छी-ख़ासी डाँट लगाकर पैसों के बदले में तोता छाँट लिया।
कंजर ने मिन्नत की कि तीनों तोते पेशगी दामों के हैं, इस बार
जाएगा तो उनके लिए भी पकड़ लाएगा। पर छोटे न माने, दो-चार
गालियाँ सुना दीं, तैश में बोले, "मेरे पैसे क्या हराम के थे,
वह भी तो पेशगी में से ही हैं, ला निकाल जल्दी इस टुइयाँ को।"
और तभी से यह तोता उनके पास है, जिसे जान की तरह चिपकाए रहते
हैं।
शिवराज ने प्रसन्नता से
उन्हें देखा। 'पालांगे महाराज' कहकर बोला, "इधर निकल आएँ
महाराज, बहुत जगह है।"
जब वह पास आकर बैठ गए तो उसने पूछा, "झाँसी किस्के यहाँ गए
थे?"
"यहीं एक ब्याह था, उसमें आए थे, आना पड़ा अ़पनी कहो लेकिन
देख, पहचान कैसा। नज़र कमज़ोर है लला, पर अपने गली-कूचे के पले
लोगों की तो महक बहुत अच्छी होती है. . ." और वे धीरे-धीरे
गरदन हिलाने लगे। उँगलियों के बीच गोली अब भी नाच रही थी और
पिंजरे में बैठा संतू गोली के लालच से मुँह खोलता, आँखें बंद
करता, पर बोलता नहीं था।
"बदन तो तुम्हारा एकदम लटक
गया है, पहले से चोथाई भी नहीं रहा. . ." शिवराज बोला। उसे कुछ
दु:ख-सा हो रहा था, जब उसने पिछली मरतबा देखा था, तब कितने
हट्टे-कट्टे थे। यों उमर का उतार तो था, पर इतना फ़र्क तो बहुत
है। भला उमर बने-बनाए आदमी को इतनी जल्दी भी तोड़ सकती है!
गाड़ी की चाल धीमी पड़ गई। छोटे महराज ने संतू के पिंजरे को
तनिक ऊपर उठाया। उसकी ओर प्यार-भरी दृष्टि से निहारते रहे।
तोता कुछ बोला। छोटे महराज के मुख पर मुसकान दौड़ गई। बड़े
स्नेह से पुचकारते हुए शिवराज को बताने लगे, "इसका नाम संतू
है! यानी संत ज़ब बोले तो बानी बोले, हाँ, संत बानी सित्ताराम!"
इतना कहते-कहते वे अपनी ही बात में डूब गए।
गाड़ी रुकी, कोई मामूली-सा
स्टेशन था। छोटे महराज ने पेट पर हाथ फेरा और सिर हिलाते हुए
बोले, "देखो शिब्बू, कुछ खाने-पीने का डौल है यहाँ?"
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