|
सुबह पाँच बजे गाड़ी मिली। उसने
एक कंपार्टमेंट में अपना बिस्तर लगा दिया। समय पर गाड़ी ने
झाँसी छोड़ा और छह बजते-बजते डिब्बे में सुबह की रोशनी और ठंडक
भरने लगी। हवा ने उसे कुछ गुदगुदाया। बाहर के दृश्य साफ़ हो
रहे थे, जैसे कोई चित्रित कलाकृति पर से धीरे-धीरे ड्रेसिंग
पेपर हटाता जा रहा हो। उसे यह सब बहुत भला-सा लगा। उसने अपनी
चादर टाँगों पर डाल ली। पैर सिकोड़कर बैठा ही था कि आवाज़
सुनाई दी, "पढ़ो पटे सित्तारम स़ित्तारम. . . "
उसने मुड़कर देखा, तो
प्रवचनकर्ता की पीठ दिखाई दी। कोई ख़ास जाड़ा तो नहीं था, पर
तोते के मालिक, रूई का कोट, जिस पर बर्फ़ीनुमा सिलाई पड़ी थी
और एक पतली मोहरी का पाजामा पहने नज़र आए। सिर पर टोपा भी था
और सीट के सहारे एक मोटा-सा सोंटा भी टिका था। पर न तो उनकी
शक्ल ही दिखाई दे रही थी और न तोता। फिर वही आवाज़ गूँज उठी, "पढ़ो
पटे सित्तारम सित्तारम. . ."
सभी लोगों की आँखें उधर ही
ताकने लग गईं। आख़िर उससे न रहा गया। वह उठकर उन्हें देखने के
लिए खिड़की की ओर बढ़ा। वहाँ तोता भी था और उसका पिंजरा भी, और
उसके हाथ में आटे की लोई भी, जिससे वे फुरती से गोलियाँ बनाते
जा रहे थे और पक्षी को पुचकार-पुचकारकर खिलाते जा रहे थे। पर
तोता पूरा तोता-चश्म ही था। उनकी बार-बार की मिन्नत के बावजूद
उसका कंठ नहीं फूटा। गोलियाँ तो वह निगलता जा रहा था, पर ईश्वर
का नाम उसकी ज़बान से नहीं फूट रहा था। लौटते में एक नज़र उसने
उन पर और डाली, तो लगा, जैसे चेहरा पहचाना हुआ है। |