सुखवंती ने पहले अपना बिस्तर
लपेटा, चारपाई को उठाकर बरामदे में रखा और फिर अपना चाय का
गिलास उठाकर बिशन सिंह के पास आ बैठी, उसी के बिस्तर में। बिशन
सिंह अपनी ओढ़ी हुई रजाई को खोलते हुए बोला, ''थोड़ा पास होकर
बैठ मेरी रजाई में...गरमाहट बनी रहेगी।''
सुखवंती बिशन सिंह के करीब होकर रजाई में सिमटकर बैठी तो उसे
बिशन सिंह का बदन तपता हुआ-सा लगा।
''अरे, तुम्हें तो ताप चढ़ा है...'' सुखवंती ने तुरंत बिशन
सिंह का माथा छुआ, ''तुमने बताया नहीं, रात में गोली दे देती
बुखार की... आज बिस्तर में से बाहर नहीं निकलना।''
''कुछ नहीं हुआ मुझे...यों ही न घबराया कर।'' बिशन सिंह ने चाय
का बड़ा-सा घूँट भरकर कहा।
फिर, वे कितनी ही देर तक एक-दूसरे के स्पर्श का ताप महसूस करते
रहे, नि:शब्द! बस, चाय के घूँट भरने की हल्की-सी आवाज़ दोनों
के मध्य तैरती रही, रह-रहकर।
फिर, पता नहीं सुखवंती के दिल में क्या आया, वह सामने शून्य
में ताकती हुई बड़ी उदास आवाज़ में बुदबुदाई, ''पता नहीं, हमने
रब का क्या बिगाड़ा था...हमारी झोली में भी एक औलाद डाल देता
तो क्या बिगड़ जाता उसका। बुढ़ापे में हम भी औलाद का सुख भोग
लेते।''
''औलाद का सुख?'' बिशन सिंह हँसा।
सुखवंती ने गर्दन घुमाकर बिशन सिंह की ओर देखा। उसकी हँसी के
पीछे छिपे दर्द को पकड़ने की कोशिश की उसने।
बिशन सिंह अपने दोनों हाथों के बीच चाय का गिलास दबोचे, चाय
में से उठ रही भाप को घूर रहा था।
''औलाद का सुख कहाँ है सुखवंती...जिनके है, वे भी रोते हैं। अब
चरने को ही देख ले। तीन-तीन बेटों के होते हुए भी नरक भोग रहा
है। तीनों बेटे अपना-अपना हिस्सा लेकर अलग हो गए। बूढ़ा-बूढ़ी
को पूछने वाला कोई नहीं।''
अपने-अपने हाथों में चाय के गिलास थामे वे खामोश हो गए।
बिशन सिंह ने ही कुछ देर बाद इस
खामोशी को भंग किया। बोला, ''वो अपने परमजीत को जानती हो? अरे
वही, शिंदर का बाप... औलाद के होते हुए भी बेऔलाद-सा है, रोटी-टुक्कड़
को तरसता। जब तक औलाद नहीं थी, औलाद-औलाद करता था। जब रब ने
औलाद दी तो अब इस उम्र में कहता घूमता है- इससे तो बेऔलाद
अच्छा था। सारी जायदाद बेटों ने अपने नाम करवा ली, अब पूछते
नहीं। कहता है- मैं तो हाथ कटवा बैठा हूँ, अगर रुपया-पैसा मेरे
पास होता तो सेवा के लिए कोई गरीब बंदा ही अपने पास रख लेता।''
''पर सारी औलादें ऐसी नहीं होतीं...।'' सुखवंती बिशन सिंह के
बहुत करीब सटकर बैठी थी, पर बिशन सिंह को लगा, जैसे उसकी आवाज़
बहुत दूर से आ रही हो। थकी-थकी-सी!
चाय के गिलास खाली हो चुके
थे। सुखवंती ने अपना और बिशन सिंह का गिलास झुककर चारपाई के
नीचे रख दिया। उघड़ी हुई रजाई को फिर से अपने ईद-गिर्द लपेटते
हुए वह कुछ और सरककर बिशन सिंह के साथ बैठ गई। बिशन सिंह ने
अपना दायाँ बाजू सुखवंती के पीछे से ले जाकर उसे अपने और करीब
कर लिया।
''जिन्दर ने भी हमें धोखा दिया, नहीं तो...।'' कहते-कहते
सुखवंती रुक गई।
''उसकी बात न कर, सुखवंती। वह मेरे भाई की औलाद था, पर मैंने
तो उसे भाई की औलाद माना ही नहीं था, अपनी ही औलाद माना था
उसे। सोचा था, भाई के बच्चे तंगहाली और गरीबी के चलते पढ़-लिख
नहीं पाए, जिंदर को मैं पढ़ाऊँगा-लिखाऊँगा। पर...'' बिशन सिंह
कहते-कहते चुप हो गया।
''जब हमारे पास रहने आया था, दस-ग्यारह साल का था। कोई कमी
नहीं रखी थी हमने उसकी परवरिश में। इतने साल हमने उसे अपने पास
रखा। अच्छा खाने को दिया, पहनने को दिया। जब कोई आस बँधी तो
उसने यह कारा कर दिखाया...।'' सुखवंती का स्वर बेहद ठंडा था।
''सब-कुछ उसी का तो था। हमारा और कौन था जिसे हम यह सब दे
जाते। जब उसने तुम्हारे गहनों पर हाथ साफ़ किया, तो दुख तो
बहुत हुआ था पर सोचा था, अपने किये पर पछताएगा।'' बिशन सिंह ने
सुखवंती का दायाँ हाथ अपनी दोनों हथेलियों के बीच दबाकर
थपथपाते हुए कहा, ''पर जब उसने दुकानें और मकान अपने नाम लिख
देने की बात की तो लगा, हम तो इससे झूठी आस लगाए बैठे हैं। यह
तो अपना कतई नहीं हो सकता।''
''अच्छा हुआ, अपने आप चला गया छोड़कर।'' सुखवंती ने गहरा
नि:श्वास लेते हुए कहा।
''सुखवंती, आदमी के पास जो नहीं होता, वह उसी को लेकर दु:खी
होता रहता है उम्रभर। जो होता है, उसकी कद्र नहीं करता। जो
हमारे पास नहीं है, उसकी हम क्यों चिंता करें। जो है, हम उसी
का आनंद क्यों न उठाएँ।'' कहकर बिशन सिंह ने सुखवंती को अपने
से सटा लिया। सुखवंती भी उसके सीने में मुँह छुपाकर कुछ देर
पड़ी रही। यह सेक, यह ताप दोनों को एकमेक किए था। इधर, बिशन
सिंह ने सोचा, 'जीवन का यह ताप हम दोनों में बना रहे, हमें और
कुछ नहीं चाहिए।' और उधर सुखवंती सोच रही थी, 'यह तपिश, यह
गरमाहट बिशन सिंह के बुखार के कारण है या फिर उसके प्यार के
कारण... काश! दोनों के बीच यह गरमाहट यों ही बनी रहे।'
तभी, धूप का एक छोटा-सा
टुकड़ा खिड़की के काँच से छनकर कमरे में कूदा और फ़र्श पर
खरगोश की भाँति बैठकर मुस्कराने लगा। सुखवंती हड़बड़ाकर बिशन
सिंह से यों अलग हुई मानो किसी तीसरे ने उन दोनों को इस अंतरंग
अवस्था में देख लिया हो! दोनों ने धूप के उस नन्हें खरगोश की
ओर देखा और फिर एक-दूजे की ओर देखकर मुस्करा दिए। |