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कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। उस पर
पिछले कई दिनों से सूरज देवता न जाने कहाँ दुबके थे। दिनभर धूप
के दर्शन न होते। रोज़ की तरह आज भी बिशन सिंह की आँख तड़के ही
खुल गई, जबकि रात भर वह ठीक से सो नहीं पाया था।
आँख खुलने के
बाद फिर कहाँ नींद बिशन सिंह को। गर्मी का मौसम होता तो उठकर
सुबह की सैर को चल देता। पर भीषण ठंड में किसका मन होता है
बिस्तर छोड़ने का! वह उठकर बैठ गया था। उसने ठिठुरते-काँपते
अपने बूढ़े शरीर के चारों ओर रजाई को अच्छी प्रकार से
लपेट-खोंस कर दीवार से पीठ टिका ली थी। एक हाथ की दूरी पर
सामने चारपाई पर उसकी घरवाली सुखवंती रज़ाई में मुँह-सिर लपेटे
सोई पड़ी थी।
रात भर
खाँसती रही बेचारी...तड़के कहीं जाकर टिकी है। कितनी बार कहा है
जो काम करवाना होता है, माई से करवा लिया कर। दो टेम आती है।
पैसे देते हैं, कोई मुफ्त में काम नहीं करवाते, पर इसे चैन
कहाँ! ठंड में भी लगी रहेगी...पानी वाले काम करती रहेगी...
बर्तन माँजने बैठ जाएगी... पोंछा लगाने लगेगी... और नहीं तो
कपड़े ही धोने बैठ जाएगी। अब पहले वाली बात तो रही नहीं। बूढ़ा
शरीर है, ठंड भी जल्दी पकड़ता है। पर सुखवंती मानने वाली
कहाँ!' सुखवंती को लेकर न जाने कितनी देर तक अपने आप से ही
बातें करता रहा बिशन सिंह। |