हीरामन ने जिन तोतों को उड़ना
सिखाया, वे लोहे के पिंजरे से सोने-चांदी तक पहुँच गए। उन्हीं
में से कुछ अवसर पाकर देश-विदेश के चिड़ियाघरों की भी सैर कर
आए, लेकिन निष्ठावान हीरामन लोहे के पिंजरे से बाहर न निकल
पाया। वह इसी को अपना मुकद्दर समझ खुश रहता। उसे संतोष था कि
कथित 'व्यवहारिक लोगों' की तरह भले ही उसने कुछ न पाया हो अथवा
बहुत कुछ खो दिया हो, किंतु निष्ठा और ईमानदारी की पूंजी तो
उसी के पास है! उसे संतोष था कि कम से कम वह अवसरवादी तो न
कहलाएगा! एक-एक कर दिन
बीतते गए और हीरामन परिवार के सदस्यों में घुल-मिलता चला गया।
एक दिन उसे लगा कि वह खुले आसमान में उड़ने वाला जंगली परिंदा
नहीं, मालिक के परिवार का ही एक सदस्य है। उसने एक दिन अपनी
भावना से मालिक को भी अवगत कराया, ''..मैं भी तो इस परिवार का
एक सदस्य ही हूँ! आप मुझ पर इतना खर्च करते हैं, अच्छा नहीं
लगता कि मैं खाली बैठा बस राम नाम का जाप करता रहूँ! पिंजरे से
निकल कर अब मुझे समूचे बंगले की शोभा बढ़ानी चाहिए, परिवार हित
में कुछ और भी कार्य करना चाहिए! ..वैसे भी पिंजरा अब मेरे
आकार के हिसाब से छोटा हो गया है।'' हीरामन की बात सुन मालिक
मन ही मन मुस्कुराया। पिछले हादसे को लेकर मालिक सतर्क हो गया
था। तोते चालाक परिंदे होते हैं, उसकी धारणा ओर पुष्ट हो गई
थी। वह हीरामन को भी संदेह की दृष्टि से देखने लगा था। उसे लगा
कि हीरामन भूल सुधारना चाहता है। अपने अन्य साथियों की तरह उड़
जाना चाहता है। अत: उसके राशन-पानी में वृद्धि और गुणवत्ता में
सुधार कर दिया गया, किंतु हीरामन को पिंजरे से निजात न दी।
इसके विपरीत पिंजरे के कुंदे में एक कील डाल दी गई, ताकि
पिंजरा हवा से भी न खुल जाए। साथ ही मालिक हीरामन का विकल्प
तलाशने में जुट गया। मालिक का व्यवहार और संदेह से हीरामन के
मन को ठेस लगी।
दिन बीतते गए और वक्त के
साथ-साथ हीरामन के मन की पीर का इलाज स्वत: ही होता गया।
..लेकिन एक दिन हीरामन का कोमल हृदय शीशे की तरह चूर-चूर हो
गया। दरअसल जब कभी मालिक नैतिकता का बखान करता, हीरामन ध्यान
से सुनता और मन ही मन उसकी सराहना करता। वह सोचता, ''जैसा सुना
था, मालिक वैसे हैं नहीं! पता नहीं, मनुष्य समाज में एक-दूसरे
के खिलाफ अफवाह क्यों उड़ा दी जाती हैं? ..बस यही कमी है,
मनुष्य समाज में, दूषित राजनीति का त्याग कर दें तो इससे सुंदर
समाज दूसरा और कोई है नहीं!''
एक दिन उसका भ्रम चूर-चूर हो
गया। अफवाह हकीकत में बदल गई। मालिक वैसा ही निकला, जैसा उसके
बारे में सुना था। ऊपर से आदर्शवादी, सिद्धांतवादी और अन्दर से
'व्यवहारिक' अवसरवादी! ..उस दिन मालिक सच बोलने के आरोप में
अपने पुत्र को डाट रहा था, ''मूर्ख है तू, गधा है! सत्यवादी
हरिश्चंद्र बनता है। ..अरे ये नैतिकता-वैतिकता सब दिखाने के
दाँत होते हैं! मैं यदि तेरी तरह हरिश्चंद्र होता तो तू आज
नई-नई कारों में न घूम पाता, शानदार इस बंगले में न रहता।
..अरे मूर्ख, सच्चाई की नींव पर एम्पायर नहीं खड़ी हुआ करती
हैं! ..तेरी यह नैतिकता जरूर एक दिन इस एम्पायर की नींव हिला
देगी!''
मालिक ने हीरामन की ओर संकेत
कर कहा, ''देख रहे हो इस परिंदे को! अपना भला-बुरा यह भी सोचता
है। दाल-फल देना बंद कर दो उड़ जाएगा पिंजरे से! ..पिंजरे से
मुक्ति पाने के लिए एक दिन इसने भी असत्य का सहारा लिया था।
अपने आपको परिवार का सदस्य बता कर पिंजरा खुलवाना चाहता था!''
हीरामन की निष्ठा पर संदेह! हीरामन का कंठ और नीला पड़ गया।
सागर मंथन से निकला संपूर्ण विष उसके कंठ में समा गया हो,
जैसे! ..हीरामन! ..बेचारा हीरामन! गीली आंखों से कभी आसमान की
ओर निहारता, तो कभी मालिक के गले में लटकी रुद्राक्ष की माल की
ओर! कभी ऊपर वाले को कोसता तो कभी अपने मुकद्दर को। किंतु आघात
पर आघात के बावजूद निष्ठा की कैंची उसके पर कुतरती रही। उसका
मन छटपटाता कभी कि सोने का पिंजरा त्याग लौट जाऊँ अपने देश,
लेकिन चाह कर भी वह पिंजरे से बाहर न निकल पाया।
और एक दिन! ..हीरामन की
मौज-मस्ती की कहानी सुन एक 'प्रोफ़ेशनल' मालिक की गोद में
छटपटाता ऐसे आ गिरा मानो किसी बहेलिए ने अपने बाण से उसका तन
घायल कर दिया हो! मालिक ने उसे इधर-उधर से देखा, उसके पंख
सहलाए और कारिंदों को निर्देश दिए, ''हीरामन को मुक्त कर दो!
उसका विकल्प मिल गया है!'' कारिंदों ने आदेश का पालन करते हुए
हीरामन को मुक्त कर दिया।
अप्रत्याशित इस मुक्ति से
हीरामन हतप्रभ था! निष्ठा का बोझ लेकर वह बंगले के बाहर
गुलमोहर के वृक्ष की शाख पर बैठकर 'मनुष्य स्वभाव' को लेकर
चिंतन करने लगा, ''..कहते हैं कि मनुष्य और जानवरों में बस
बुद्धि का अंतर है। जानवरों के मुकाबले मनुष्य की बुद्धि
विकसित होती है।'' हीरामन ने एक लंबी सांस ली और आसमान की ओर
आह भरते हुए बोला, ''भाड़ में जाए विकसित बुद्धि! ..दूषित
बुद्धि!''
..हीरामन ने पंख फड़फड़ाए और
गुलमोहर की शाख से उड़ चला अपने वतन की ओर, सोचते-सोचते, '' हम
बुद्धिहीन ही अच्छे हैं! असभ्य हैं, जानवर हैं, किंतु दूषित
राजनीति से ग्रस्त तो नहीं! 'बी-प्रैक्टिल' का पाठ पढ़ाने वाले
मेरे सहोदरों की कथनी-करनी में तो अंतर नहीं! '' |