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हीरामन, मन से भी हीरा था और स्वभाव से भी। उसका मन कुंदन की तरह खरा, निश्छल था और तन हीरे की तरह सतरंगी आभा लिए हुए। पंखों पर इंद्रधनुषी आभा, कंठ मानो नीलकंठ भगवान के आशीर्वाद का फल, चोंच जैसा सूर्य देवता ने अपनी प्रथम किरण से स्वयं सँवारी हो। मन निर्मल, नैतिकता की साक्षात प्रतिमूर्ति। आदर्श व सिद्धांतों पर जान न्योछावर करने वाला, हीरामन!

हीरामन तोते की योनि में होने के बावजूद तोताचश्म नहीं था। यही उस में एक अवगुण था, अर्थात छल-छद्म व प्रपंच से ग्रस्त इस संसार में असफल। जब कभी चार दोस्त मिल-बैठते हीरामन पर तरस खाते और उसे समझाने बैठ जाते, ''देख हीरामन! जमाने की चाल पहचान। कब तक यूं ही धक्के खाता रहेगा? तेरे दोस्त कहां से कहां पहुंच गए और तू है कि..! बुद्धिमान वही है जो अवसर के अनुरूप अपने -आपको परिवर्तित कर ले! .. 'बी प्रैक्टिकल हीरामन'!''
शुभचिंतक समझाते, ''..अच्छा, हमें ही देख ही हीरामन! मजे से फल खाते हैं और पेट भरा नहीं कि उड़ जाते हैं और तू, खुद नहीं खाता! काट-काट कर बच्चों को खिलाता है, खुद भूखा रह जाता है! अरे, छोड़! बच्चे तो ढेला मार कर खुद तोड़ लेंगे। ..तू अपनी सोच हीरामन!'' ..ना-भाई-ना! वह भी क्या जीव जो दिन-रात अपने ही पेट की सोचता रहे? कुछ उपकार भी तो करना चाहिए। वैसे भी बच्चों को स्वादिष्ट फल खिलाने में बड़ा आनन्द आता है। बच्चों के ढेले से वृक्षों का तन भी घायल होने से बच जाता है और कच्चे फल भी टूटने से बच जाते हैं। हीरामन बूढ़े वृक्ष की बात याद कर कहता, ''बस मेरी तो यही पूंजी है! संतोष में ही परम सुख है, भाई! मौकापरस्त जीव असंतुष्ट रहते हैं और असंतुष्ट जीव कभी सुखी नहीं रहता। ..अरे, भाई! अपनी भी तो कोई ज़मीर होती है!''

शुभचिंतक पलटवार करते, ''नादान हीरामन! ज़मीर, आदर्श, सिद्धांत और नैतिकता की मदिरा दूसरों को पिलाने के लिए होती है, खुद पीने के लिए नहीं! ताकि पीने वाला तेरी तरह नैतिकता के नशे में मदमस्त रहे और अपन मीठे-मीठे फलों पर हाथ साफ करते रहें! ..कौए को देख हीरामन! कितना चालाक है! सुबह-सुबह काँऊ-काँऊ कर सारे संसार को नैतिकता का पाठ पढ़ाता है और निगाह बचते ही पराए माल पर हाथ साफ कर जाता है!'' शुभचिंतकों की बात सुन हीरामन बेबाक लहजे में कहता, ''चालाक है तो क्या? ..गू में भी तो चोंच वही मारता है!'' शुभचिंतकों को हीरामन का 'दर्शन' समझ नहीं आता। उसके साथ झक मारते, उस पर तरस खाते और पंख फड़-फड़ा कर उड़ जाते 'तलाश' में। ..हीरामन सोचने लगता, ''कैसा जमाना आ गया है! सरल स्वभाव के मूर्ख और धूर्त व चालक व्यवहारिक समझ के कह लाए जाते हैं!'' ..खैर स्वभाव हीरामन का! स्वभाव कैसा भी हो जीव चाह कर भी त्याग नहीं पाता। उसी प्रकार जमाने की तमाम दुश्वारियाँ सहने के बावजूद हीरामन ने अपने आदर्श व सिद्धांतों को तिलांजलि नहीं दे पाया।

एकांत पाकर हीरामन पंख सिकोड़ता, आंखें बंद कर मन ही मन जमाने पर तरस खाता, ''..कैसा जमाना आ गया है, भाई! ..चलो, ठीक है! मैं मूर्ख ही सही! ..सुखी तो हूं, मानसिक शांति तो है! व्यवहारिक समझ वाले लोगों को मानसिक शांति कहां! ..नहीं, मुझे नहीं बनना प्रैक्टिकल!'' शांतभाव से बैठा देख तोतों के बच्चें टींऊ-टींऊ कर हीरामन को घेर लेते। उन्हें देख हीरामन भी खुशी से पंख फड़फड़ाने लगता। हीरामन समझ जाता, इन्हें फल चाहिए। वह उन्हें लेकर फलदार वृक्षों की ओर उड़ता और मीठे-मीठे फल खिलाकर आनन्द की प्राप्ति करता। फल खाते-खाते जब बच्चों का मन भर जाता, हीरामन से कहानी सुनाने का आग्रह करते। हीरामन उन्हें नैतिकता से भरपूर पौराणिक कहानियाँ सुनाता।

एक दिन ऐसा भी आया जब शुभचिंतकों ने अपने बच्चे हीरामन के पास जाने से रोक दिए। वे नहीं चाहते थे कि नैतिकता की कहानियाँ सुन-सुन कर उनके बच्चे भी हीरामन की तरह दुनियादारी की रफ्तार में पिछड़ जाएँ, निकम्मे बन जाएँ। धीरे-धीरे हीरामन अकेला पड़ने लगा। उसके चरित्र पर भी संदेह की अंगुलियाँ उठने लगी। अकेलेपन से हीरामन दुखी न था। उसके दुख का कारण था, चरित्र पर संदेह। चरित्र पर कीचड़ उछली, हीरामन का हीरे जैसा मन क्लांत हो गया, किंतु कुछ ही समय के लिए। वह स्वभाव के अनुरूप संतोष कर बैठ गया। सोचने लगा, ''पत्थरों के डर से वृक्ष फल देना तो नहीं छोड़ देते! स्वभाव तो स्वभाव है, प्रकृति-जन्य है! ..फिर पत्थरों से कैसा भय! ..बस, आत्मा स्वच्छ होनी चाहिए, तन पर लगे मैल की चिंता क्यों?'' मन शांत कर हीरामन ने परिंदों का संसार छोड़ मनुष्यों के संसार में जाने का फैसला किया। उसका अनुमान था कि थोड़ी-बहुत नैतिकता यदि कहीं शेष है, तो वह मनुष्यों में ही है।

जंगल छोड़ हीरामन ने शहर की तरफ उड़ान भरी। हारा-थका हीरामन एक दिन शानदार एक बंगले की मुँडेर पर आराम फ़रमाने बैठ गया। तभी बंगले के मालिक के बच्चों की निगाह हीरामन पर पड़ी और उन्होंने उसे पकड़ लिया। हीरामन भी खुश था, कहानी सुनाने के लिए उसे बच्चे मिल गए थे। रूप-रंग देखकर बच्चों के मात-पिता भी हीरामन पर मोहित हो गए। सुंदर सा एक पिंजरा मँगवाया गया और हीरामन को उसके अंदर कैद कर दिया गया। हीरामन को खाने के लिए चने की दाल और फल दिए जाने लगे। रोज सुबह-शाम उससे 'राम-राम' का जाप सुना जाने लगा। बच्चे उससे बातें करते। हीरामन भी खुश था, भरपेट भोजन के साथ-साथ, बातें करने के लिए बच्चे, चिंतन के लिए एकांत और परलोक सुधारने के लिए राम-नाम का जाप!

पिंजरे का आकार बढ़ता चला गया और पिंजरे में तोतों की संख्या भी। हीरामन के दिन और प्रसन्नता से कटने लगे, किंतु दूसरे तोते कैद में स्वयं को व्यथित महसूस करने लगे। व्यथित तोतों को हीरामन समझाता, ''क्या रखा है, पिंजरे के बाहर के संसार में! सांसारिक प्रपंच से दूर कितना सुख है यहां, राम का नाम लेने के लिए दो घड़ी का समय भी मिल जाता है और पेट भर भोजन भी।'' हीरामन की बात अन्य तोतों की समझ न आती। वे ताक में रहते, काश! धोखे से ही सही, कभी पिंजरा खुला रह जाए और वे खुले आसमान में फुर्र से उड़ जाएं! ..खुला आसमान न सही किसी अन्य के पिंजरे का सुख लिया जाए!

एक दिन ऐसा भी आया, जब मालिक ने यह सोचकर पिंजरे का दरवाजा खोल दिया कि तोते अब पालतू हो गए हैं और पिंजरे से निकल कर अब इन्हें पूरे बंगले की शोभा बढ़ानी चाहिए। पिंजरा खुलते ही सभी तोते बंगले से बाहर भागने की जुगत में लग गए। शाम हुई और जुगत भी लग गई। तोतों ने हीरामन से कहा, ''..चल उड़ चले मौका है!'' हीरामन ने इनकार कर दिया और उन्हें नैतिकता का पाठ पढ़ाने लगा, ''निष्ठा भी कोई चीज होती है! इतने दिन से मालिक की दाल खा रहे हैं, उसका कोई अर्थ नहीं? ..विचार करो, भाई! हम तो उड़ जाएँगे, मगर मालिक पर क्या बीतेगी, उनके बच्चे निराश हो जाएँगे। कितना अच्छा है मालिक, कोई जरूरी तो नहीं कि दूसरी जगह इससे अच्छा मालिक मिल जाए! ..मत जाओ! रोज-रोज मालिक बदलना अच्छा नहीं है! ..मालिक के प्रति निष्ठावान बनो!'' हीरामन का 'निष्ठा-दर्शन' सुन तोते हँस कर बोले, ''हीरामन! मूर्ख नहीं, 'व्यवहारिक' बन! ..व्यवहारिकता में निष्ठा के लिए स्थान कहां? ..चल-आ-उड़ चले! ..अन्य किसी पिंजरे का आनन्द लेंगे!'' व्यवहारिकता की परिभाषा सुन हीरामन का हीर-मन दुखी हो गया और उसके क्षुब्ध मन से निकला, ''धर्म-धोरा अब कहीं नहीं बचा!'' निष्ठा से बँधा हीरामन मुँडेर से उड़ कर पिंजरे में जा बैठा। शेष हीरामन के मुकद्दर पर तरस खाते-खाते नए पिंजरे की तलाश में खुले आसमान में उड़ान भरने लगे।

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