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बूढ़ा वृक्ष, हीरामन को समझाता,
''ढेले मार कर कच्चे-पक्के फल तोड़ना बच्चों का स्वभाव है। वे
नहीं जानते कि फल तोड़ने की उनकी कोशिश शांत वृक्षों का तन घायल
कर रही है।'' कुछ देर विचार करने के बाद वह फिर बोला, ''अच्छा
हीरामन! तुम्ही बताओ, क्या तुम फल खाना छोड़ सकते हो? मल-मूत्र
त्यागना बंद कर, क्या हमारा तन गंदा करना छोड़ सकते हो? ..शायद
कभी नहीं, क्यों कि ऐसा करना तुम्हारा स्वभाव है! इसी प्रकार फल
देने हमारा स्वभाव है! ..जब तुम अपने स्वभाव का परित्याग न
करने के लिए विवश हो और बच्चे अपना स्वभाव न त्यागने के लिए..!
फिर वृक्ष ही अपने स्वभाव का त्याग क्यों करें? .. हीरामन यह
स्वभाव ही तो हमारी पहचान है!
हीरामन बूढ़े वृक्ष के प्रवचन सुनता और आंखें बंद कर मनन करने
लगता, ''..जब फल देना वृक्षों का स्वभाव है और वे स्वभाव का
त्याग न करने के लिए विवश हैं, तो फिर एक-एक फल के लिए हमारे
बीच संघर्ष क्यों? क्या यह भी हम जीवों का स्वभाव है?''
बूढ़ा वृक्ष दार्शनिक मुद्रा में हीरामन की शंका का समाधान
करता, ''हीरामन! जरा-जरा सी बात के लिए संघर्ष करना जीवों का
स्वभाव नहीं, आदत है! ..स्वभाव और आदत के मध्य अंतर होता है।
स्वभाव प्रकृति प्रदत्त है और आवश्यकता के अनुसार आदत हम स्वयं
गढ़ लगते हैं। स्वभाव नहीं बदला जा सकता, आदत बदली जा सकती
है!'' |