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'खान ऊपर देख'।
सिपाही अक्सर उससे चुहल करते रहते। उससे कहते आकाश की तरफ़ देख, पर वह नहीं देखता, ढीठ-सा खड़ा रहता। उसका कोई नाम नहीं था, सो सब सिपाही उसे खान कहते थे। सिपाही उससे बार-बार ऊपर देखने को कहता और वह लगातार उस सिपाही को घूरता।
'अबे देख...।'
'देख तो कैसा नीला आकाश है...।'
सिपाही ने उसका चेहरा पकड़कर आकाश की ओर घुमा दिया।
'क़ादिर...।क़ादिर...।
उसने सिपाही को धक्का दिया, अपना चेहरा उसके हाथों से छुड़ाया और पथरीले टीले की और दौड़ पड़ा। सिपाही हँसने लगे। लड़के को लगा जैसे वह एकदम से क़ादिर के लबादे में धँस सकता है।
लोग 'या खुदा' कहते हैं और यह 'क़ादिर..क़ादिर..'। एक सिपाही ने मुँह बनाते हुए कहा। बाकी सब हँस दिए।

क़ादिर का पूरा नाम क़ादिर-उल-अली है। वह एक अफ़गानी लड़का है। एक तालिबानी, अल-कायदा का नया मुरीद। वह अनपढ़ है, पर उसे कुरान के बहुत से पाठ और अयातें याद हैं। वह अक्सर अपने लाव-लश्कर जिसमें पाँच-छह लड़ाके, कुछ हथियार ढोने वाले अफ़ग़ानी टट्टू और कई किस्म के हथियार होते हैं, के साथ इस जगह आ धमकता है। कैंप के फटीचर से दिखने वाले लोग क़ादिर के लाव-लश्कर के ईद-गिर्द मधुमक्खी की तरह भिनभिनाते रहते हैं। लोग अफ़गानी में चिल्लाते से उससे पूछते हैं और वह एक ही बात बार-बार कहकर लोगों को बहलाता है...एक स्वप्न, जो वह बार-बार कहता है, जब उनकी ज़मीन, उनके गाँव, उनके लोग, उनके घर उनको वापस होंगे...जब वे वापस अपने मुल्क जाएँगे। एक दिन तालिबान रूसी काफ़िरों से उनकी ज़मीन छुड़ा ही लेगा। तो क्या हुआ अगर तालिबान पर बेहतर हथियार नहीं हैं, खुदा उन्हीं पर मेहरबान होगा, जंग ख़त्म होगी और तालिबान उनकी ज़मीन का सुलतान हो जाएगा। क़ादिर चीख-चीखकर उन्हें यकीन दिलाता...वह पिछले आठ सालों से यह यकीन दिलाता आया है। पर लोग हर बार उससे बुरी तरह चिपक जाते हैं...और फिर वह अपनी क्लैश्नेकौफ़ (रूसी मशीनगन जैसा हथियार) आकाश की ओर करके आधे-एक घंटे तक गोलियाँ चलाता रहता है, उसके दूसरे साथी भी दनादन गोलियाँ दाग़ते हैं। चारों ओर कानफोडू आवाज़ होती है, लोग पगलाए-से खुशी में चीखते हैं। कुछ हाथ आकाश में उठकर दुआएँ माँगते हैं। हाँ अबकी बार ज़रूर, हाँ इस बार पक्का उन्हें उनका घर और उनके लोग मिल जाएँगे, लड़का आकाश की ओर लपकती मशीनगनों की आग और गोलियों को देखता है। वह पागलों-सा चिल्लाता है, उसे यकीन है क़ादिर के हथियार एक दिन आकाश को ख़त्म कर देंगे। आकाश से खून निकलेगा और आकाश हमेशा के लिए मर जाएगा। सिपाही पथरीली पहाड़ियों से यह तमाशा देखकर हँसते।

क़ादिर की सिपाहियों से ग़ज़ब की दोस्ती है, याराना। वह उनके लिए सूखे मेवे और बहुत सारे पैसे लाता है और बदले में उसे कुछ और नये हथियार मिल जाते हैं। पेशावर के पास ही एक शहर है डेरा। डेरा में हर तरह के हथियार बनते हैं। लोग डेरा से आलू प्याज़ की तरह हथियार ख़रीदते हैं। डेरा के बंदूकचियों ने क़ादिर की क्लैश्नेकौफ़ की नकल कर कई क्लैश्नेकौफ़ बनाई हैं, जो क़ादिर के दूसरे गुर्गों के पास हैं। सिपाही क़ादिर के लिए दुआ माँगते हैं और कुछ हाथ उसकी पीठ थपथपाते हैं, वह खून के आख़िरी कतरे तक लड़ेगा. . .वह पहाड़ पर खड़ा चिल्लाता है, ऐलान करता है।
'खान सिपाहियों का बड़ा ख़ास है।' खालिद ने मुझे बताया।
'कुछ ना कुछ खाने पीने को दे देते हैं। गोश्त रोटी या कुछ और, इसी से इधर आता है। खाने को कुछ मिलता नहीं, सो नियतखोर की तरह रोज़ आता है।'
'खान इसका नाम है।'
'यहाँ काफ़ी लोग बेनाम हैं। उन्हें नाम देना पड़ता है। पुलिस उनको नंबर दे देती है। जब बेनामी आते हैं, ज़्यादातर छोटे बच्चे-बच्चियाँ तब एंट्री के समय पुलिस वाले नंबर देते हैं। बताते हैं यही शऊर है।'
'इसका क्या नंबर है?'
'पता नहीं, बस खान कहते हैं। नंबर ज़रूर होगा, जब यह आया था तब तीन साल का था। नंबर तो ज़रूर होगा।'
'बहुत पुराना नंबर।'
'हाँ, और छोटा नंबर भी। जो लोग पहली-पहल खेप में दस ग्यारह साल पहले आए थे, उनके नंबर छोटे थे, अब बड़े नंबर मिलने लगे हैं। किसी को क्या पता था कि लोगों की भीड़ हो जाएगी।'
'खान तो फिर यहाँ की ज़बान बोलता होगा।'
'शायद।'
'क्यों तुमने नहीं सुना?'

खालिद कई बार मेरी बातों से चिढ़ जाता था। मैं हर बात को, हर कहानी को, विस्तार से जानना चाहता। वह काम जिसके लिए मैं यहाँ आया था। अपनी पत्रिका के लिए बेहतर कहानी और कवरेज ढूँढ़ने। खालिद को कैंप की बजाय दर्रे के पार उसके पहाड़ों की बात बताना ज़्यादा पसंद था। वह अक्सर पहाड़ों जिन्हें वह अपना मुल्क कहता था, की बातें बड़ी तल्लीनता से बताता। उसने मुझे खोवर (पाकिस्तान की पहाड़ों की भाषा) के बारे में बताया। वह शेंडूर पास में चितराल और गिलगित के बीच हर साल खेले जाने वाले पोलो मैच के बारे में मुझे बताता, खैबर लाइन वाली रेलों के बारे में, किसी अता-मुहम्मद-खान नाम के क़बीला सरदार के प्रिंस मलिक के किले की तर्ज़ पर बने विशाल संगमरमर के महल के बारे में जहाँ वह पहले काम करता था। पेशावर सूबे से लगे सूखे पहाड़ी इलाकों के लोग जहाँ मेहमान-नवाज़ी और बदला लेने होने वाले खून खच्चर की ढेरों कहानियाँ हैं। पाकिस्तान के पहाड़ों पर रहने वाले कलश नाम के आदिवासी जो खुद को सिकंदर की संतान मानते हैं और भी बहुत कुछ। पर खान में उसे दिलचस्पी नहीं थी। उसके बारे में बात करना उसे बोर करता था। शायद उसको पता था कि उस बात में मेरा कोई स्वार्थ है। पर फिर मेरी खालिद से जुगत हो गई। जितनी ज़्यादा बातें वह बताएगा उतने ज़्यादा पैसे मैं उसे दूँगा। वह बताते हुए बोर हो जाता, पर पैसे के लालच से बताना बंद नहीं करता। उन दिनों छोटे-हैंडी टेप नहीं होते थे, सो मैं उसकी हर बात को शार्टहैंड नोट करता जाता और रात-बेरात अपनी डायरी में लिख लेता।

'खान कुछ कहे, तब ना सुनें। पर जानता ज़रूर होगा। बस्ती में जो तीन-चार साल से रह रहा है, उर्दू ज़बान तो बोल लेता है। फिर यह तो दस साल से है। कुछ लोग तो माशा अल्ला पख्तूनी भी जानते हैं।'
'कुछ तो बोलता ही होगा। कोई ऐसे कैसे रह सकता है।'
'बात तो सौ फीसदी ठीक है। पर मैंने नहीं सुना। सिपाहियों ने सुना होगा।'
'बहुत सुंदर दिखता है, है ना।'
'खुदा की रहमत है। पर किस्मत...।' खालिद ने नाक सिकोडते हुए कहा।
'इसके घर वाले।'
'कहते हैं, सब ख़त्म हो गए, शायद पैंसठ की लड़ाई में। पूरा नहीं मालूम, बस इतना ही पता है। यह अकेला था, तीन साल का, बस्ती के एक जवान के साथ आया था। इधर चितराल के रास्ते।'
'बस्ती का नाम पता है।'
'बताते हैं कंधार के पास ही थी, मुझे नहीं मालूम।'
'किसी बड़े घर का रहा होगा।'
'शकल सूरत से तो ऐसा ही लगता है।'

उस उजाड़ कैंप में बड़े घर की बात करना काफ़ी बेतुका था। मैं जब यहाँ नया-नया आया था, तब उस ट्रांसलेटर को जो पुलिस के पास एंट्री करवाता था, अपने साथ लिए कैंप में भटकता था। यहाँ के बाशिंदे जो चीख-पुकार, गाली-गलौज, रोने-पीटने के अलावा ज़्यादातर चुप रहते हैं, उनसे बात करता था। उनसे उस घर की बात पूछता जो अफ़ग़ानिस्तान में था। मुझे लगता कि इस तरह सबसे मार्मिक कहानी निकल सकती है। घर और परिवार काफ़ी भावनात्मक मामला होता है। पर मुझे ज़्यादातर निराशा ही मिलती। बुजुर्ग अवश्य घर की बात में दिलचस्पी लेते, पर ज़्यादातर जवान आदमी, औरत इस विषय पर ज़्यादा बात नहीं करते। उन्हें घर की बात करने की उत्सुकता नहीं होती थी। वे बस इसी फिराक में रहते कि मैं उनके लिए क्या लाया हूँ? विशेषकर खाने की कोई चीज़। कुछ औरतें सजने-धजने की चीज़ माँगती। मैंने शायद ही इनमें से किसी औरत का चेहरा देखा हो, पर सुना ज़रूर था कि अफ़ग़ानी औरतों को सजने का बड़ा शौक होता है। हमेशा नीले कपड़े से अपना पूरा शरीर ढका होने के बाद भी, वे खूब सजती हैं। उन्हें कोई देख नहीं पाता है और यों वे खुद के लिए सजती हैं। उन्होंने खुद के लिए सजने की खुशी को बहुत सँभालकर अपनी बेटियों को दिया है। मैं उनके लिए काँच की चूड़ी, काजल की डिब्बी, कोई सस्ती-सी क्रीम या ऐसा ही कुछ ले जाता। बच्चों के लिए बिस्कुट जो मुझे सिपाहियों से मिल जाते थे, ले जाता था। पर कुछ भी काम नहीं आता। अफ़ग़ानिस्तान का पुराना घर उन्हें उत्सुक नहीं करता था। मुझे ऐसा भी लगा कि वे सब उन यादों से छुटकारा पाने की फिराक में रहते थे। आगे क्या होगा, यह उनकी बातों का मुख्य विषय होता, पर ऐसे कुछ इक्का-दुक्का बूढ़े, जो मार-पीट और लूट-खसोट के बाद भी ज़िंदा बचे थे, पुरानी बातें बड़ी लगन से बताते थे। उनकी भाषा समझ नहीं आती थी, पर वे कहना जानते थे। उनके कहने को भाषा नहीं लगती थी। वह ट्रांसलेटर कभी मेरे साथ होता, तो कभी नहीं, पर मैं उनसे उनके घर की, उनके परिवार की बात कर पाता, उनको सुन पाता। उन बूढ़ी आँखों में छलक आने वाला पानी मुझे मेरे अपने देश के बूढ़ों की याद दिलाता था। उनकी चुप्पी घर की बात पर, बाँध की तरह टूटती थी और मैं शार्टहैंड में उसे समेट नहीं पाता था। कुछ था जो छूट जाता था। कुछ था जिसे लिखते नहीं बनता था। कुछ ऐसा जिसे हम कभी भी लिख नहीं पाए। उनमें से कुछ बड़े घरों से थे और कुछ छोटे घरों से, पर घर के बड़े होने या छोटे होने की बात उनकी बात में नहीं होती थी। इस बात को पता करना पड़ता था। वे अपने घरों को बड़े घर या छोटे घर के रूप में नहीं जानते थे। इस तरह जानना वे भूल चुके थे।

खान की बातों ने मुझे उत्सुक किया था। उसका घर, उसकी कहानी...।
'मैंने इतना सुंदर लड़का पहले कभी नहीं देखा।'
खालिद हँसने लगा।
'सिपाही इसके साथ मज़े करने के चक्कर में रहते हैं।'
'क्या मतलब।'
'इसे पकड़ लेते हैं और...।'
उसने आँख मारते हुए कहा। मुझे मतली-सी आई...एक अजीब-सी ऐंठन जैसे गीली रस्सी आग में जलते समय गुड़मुड़ी होती जाती है...एक नोचने वाला हिच, कि अब क्या?
'यहाँ यह सब बहुत होता है। परदानशीं औरतों को छू नहीं सकते, वरना गदर हो जाए। सो लड़कों की पकड़-धकड़ हो जाती है। फिर खूबसूरती सबकी कमज़ोरी है।'
'पर वह तो अक्सर यहाँ आता है।'
'गोश्त और रोटी की नीयत। भूखे को क्या चाहिए? बस कुत्ते की तरह सूँघता-साँघता चला आता है।'
'उसके बारे में और कोई बता सकता है।'
मुझे रिपोर्टिंग के लिए कहानी मिलने लगी थी।
'वो ही लोग जो उसे यहाँ लाए थे।'
'तुम जानते हो।'
'पुलिस के रिकार्ड में होगा। एक-दो तो बूढ़े लोग थे, शायद मर खप गए हों, पर मालूमात हो सकता है।'

अगले दिन बड़ी मन्नतों के बाद बड़े दरोगा ने मुझे पुराने रिकार्ड दिखाए। इतनी पुरानी जानकारी पाने के लिए उसकी काफ़ी लल्लो-चप्पो करनी पड़ी। घूस भी देनी पड़ी। उसने मेरे सामने मोटे रजिस्टरों का बंडल-सा रख दिया। एक दूसरा सिपाही ढूँढने लगा। पूरे रजिस्टर में हर पन्ना किसी एक शरणार्थी की जानकारी से भरा था। कुछ के नाम थे, तो कुछ के नाम की जगह नंबर लिखे थे। सारी जानकारी उर्दू में। बहुत मशक्कत के बाद वह पन्ना मिला। उसमें एक तीन साल के लड़के का हुलिया उर्दू में दर्ज़ था। नाम ३३६४, नीली-हरी आँखे, गोरा रंग...निशान बाएँ हाथ की छोटी उँगली आधी कटी हुई। खान की भी बाएँ हाथ की छोटी उँगली कटी हुई है...।
'हाँ, बस यही।'

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9 अगस्त 2007

अगले अंक में समाप्त

 
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